शिवमंगल सिंह सुमन की लिखी एक कविता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर सुनाते थे;
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले
यह भी सही वह भी सही
वरदान माँगूँगा नहीं
मोदी-शाह की बीजेपी जिस तरह चुनाव लड़ती है आप उपरोक्त पंक्तियों को प्रेरक मान सकते हैं। नतीजे कैसे भी हो पार्टी लोकसभा से लेकर पंचायत तक के चुनाव किसी युद्ध की तरह लड़ती है। पार्टी संगठन किसी सेना की तरह नजर आती है जो एक लड़ाई खत्म होते ही दूसरे मोर्चे पर उसी स्फूर्ति, उसी ताजगी के साथ लग जाती है।
70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा का 2020 का चुनाव भी बीजेपी कुछ इसी तरह लड़ी है। एकतरफा लग रहे चुनाव को क्रिकेट के 20-20 मैच की तरह रोमांचक बना दिया है। जिस तरह 20-20 मैच जब क्लाइमेक्स की ओर बढ़ता है तो हर गेंद के साथ तेजी से समीकरण बदलने लगते हैं, कुछ इसी तरह जैसे-जैसे मतदान का वक्त करीब आते जा रहा है हर घंटे दिल्ली के समीकरण बदल रहे हैं।
बीजेपी की रणनीतियों पर गौर करने से पहले इस बात को समझते हैं कि 2019 के आम चुनावों में दिल्ली में तीसरे नंबर पर पहुॅंच गई आप ने कैसे मुकाबले को एकतरफा बनाया? इन चुनावों में दिल्ली की सभी सातों सीटें भाजपा को मिली थी। उसे 57 फीसदी वोट मिले थे। 22.5 फीसदी के साथ वह कॉन्ग्रेस दूसरे नंबर पर थी जो इस बार की चुनावी चर्चा से करीब-करीब गायब है। आप को महज 18 फीसदी वोट मिले थे।
इसी तरह 2017 में हुए निगम चुनावों में बीजेपी को 36.1 फीसदी, कॉन्ग्रेस को 21.1 फीसदी और आप को 26.2 फीसदी वोट मिले थे। अब 2015 के विधानसभा चुनाव के आँकड़ों पर गौर करें, जिसमें 70 में से 67 सीटें आप को मिली थी। उस चुनाव में आप को 54.3 फीसदी वोट मिले थे। बीजेपी को भले 3 सीटें मिली थी, लेकिन वोट 32.7 फीसदी मिले थे। कॉन्ग्रेस का खाता भी नहीं खुला था और वोट 9.7 फीसदी मिले थे। जाहिर है कॉन्ग्रेस को वोट करने वाला एक बड़ा तबका उस चुनाव में आप की तरफ झुक गया था। इसके कारण करीब 33 फीसदी वोट लाकर भी भाजपा 3 सीटों पर सिमट गई। लेकिन, 2017 के निगम चुनाव और 2019 के आम चुनाव बताते हैं कि परंपरागत वोटरों का एक तबका आप को छोड़ कॉन्ग्रेस की ओर लौट रहा था। फिर ऐसा क्या हुआ कि जब 6 जनवरी 2020 को दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान किया गया तो आप जबर्दस्त बहुमत के साथ सत्ता में लौटती नजर आ रही थी?
असल में, कॉन्ग्रेस के प्रदर्शन में सुधार शीला दीक्षित के नेतृत्व में हो रहा था। वह 15 सालों तक राज्य की मुख्यमंत्री रही थीं। जब केजरीवाल हर दिन उपराज्यपाल और हर दूसरे दिन मोदी सरकार से लड़ रहे थे और ऐसा लग रहा था कि दिल्ली का पूरा प्रशासनिक अमला ठप पड़ा है तो एक वर्ग दीक्षित को याद करने लगा था। यही तबका निगम और लोकसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस की ओर लौटा भी। लेकिन, जुलाई 2019 में दीक्षित के निधन के साथ ही कॉन्ग्रेस का संगठन फिर से पस्त पड़ गया। इससे आप को छोड़ कॉन्ग्रेस की ओर लौटने का सिलसिला न केवल रुका, बल्कि 2019 के आखिर में फिर से यह वर्ग आप के पक्ष में लामबंद भी दिखने लगा। जब एक पार्टी 50 फीसदी के करीब वोट लाती दिख रही हो तो नतीजों में करिश्मा ही होता है। जैसा कि दिल्ली के 2014 और 2019 के आम चुनावों और 2015 के विधानसभा चुनावों में हुआ था। इसके अलावा, फ्री बिजली-पानी और सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदलने का शिगूफा भी आप के लिए जादू करता दिख रहा था।
ऐसे माहौल में दिल्ली में 15 दिसंबर को नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध में जामिया में हिंसा हुई। फिर सीलमपुर में। लेकिन, बीजेपी के लिए चीजें बदलनी शुरू हुई 5 जनवरी को जेएनयू में हिंसा के बाद से। शाहीन बाग में धरना उससे पहले ही शुरू हो चुका था। विपक्षी दलों को उम्मीद थी कि इनसे न केवल दिल्ली में भाजपा की कब्र खुदेगी, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी वह इससे उबर नहीं पाएगी। लेकिन, जेएनयू और शाहीन बाग की घटनाओं ने जैसे-जैसे मोड़ लेना शुरू किया चीजें बदलती गईं। जेएनयू की घटना के करीब एक हफ्ते बाद महसूस किया जाने लगा कि शाहीन बाग और जेएनयू से जो हवा चल रही है वह दिल्ली के मतदाताओं के मूड पर असर कर रही है। बीजेपी ने भी समय रहते इस भाँप अपनी रणनीति बनानी शुरू की।
एक तरफ केंद्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद प्रवेश वर्मा अपने बयानों से बहुसंख्यक हिंदू मतदाताओं के मन में शाहीन बाग की अराजकता से पैदा हुए भाव को गहरा कर रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि सोचा-समझा प्रयोग है” और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने “8 फरवरी को कमल के फूल का बटन इतनी जोर से दबाना के बटन यहॉं दबे लेकिन करंट शाहीन बाग में लगे” जैसे बयानों से इसे धार दी। दूसरी ओर, पार्टी मोहल्ला क्लीनिकों और सरकारी स्कूलों की पोल भी खोल रही थी। इससे यह धारणा टूटी कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों का कायाकल्प हो चुका है।
19 जनवरी को रात अमित शाह ने एक बैठक ली। इस बैठक में चुनिंदा विधायकों, सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों के अलावा 300 से ज्यादा ऐसे बीजेपी कार्यकर्ता मौजूद थे, जिन्हें सांगठनिक कामों में महारत है। इन्हें देशभर से चुनकर बुलाया गया था। इन सभी को शाह ने माइक्रोमैनेजमेंट के काम पर लगाया। हर लोकसभा की 10 विधानसभा सीटों पर दो-दो नेताओं को लगाया गया। भाषण, व्यवस्था और चुनाव संचालन की जिम्मेदारी इन्हें दी गई। किस इलाके में कौन सा नेता जाएगा, किस मुद्दे पर बात करेगा, घर-घर संपर्क किस तरह किया जाएगा… जमीन पर तमाम रणनीति यही लोग तय कर रहे थे।
उम्मीदवारों का चुनाव बेहद सावधानी से किया गया। जमे-जमाए और कद्दावरों को बेटिकट करने से भी पार्टी नहीं हिचकिचाई। पालम, बृजवासन, विकासपुरी, दिल्ली कैंट, हरि नगर, जनकपुरी, द्वारका जैसी सीटों पर चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी को इसका फायदा होता साफ-साफ दिख रहा था। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग जो आप के सबसे मजबूत वोट बैंक माने जाते हैं, उन्हें लुभाने के लिए रामलीला मैदान में मोदी ने एक रैली की। ‘जहॉं झुग्गी वहीं पक्का मकान’ का वादा किया। फिर 300 सांसदों की फौज उतार उन्हें झुग्गी-झोपड़ी में समय बिताने को कहा। सांसदों की फौज बीजेपी ने 2015 के विधानसभा चुनाव में भी उतारी थी। लेकिन उस वक्त इसे आज की तरह न तो आक्रामक और न खुले तरीके से अंजाम दिया गया था।
20 जनवरी को जेपी नड्डा के लिए बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी खाली करने के बावजूद शाह ने इस चुनाव के सारे सूत्र अपने हाथ में रखे। प्रचार के दौरान वे खुद सभी 70 विधानसभा सीटों पर पहुॅंचे। रोड शो किए या फिर सभाएँ की। इस बात को लेकर शाह का मजाक भी बनाया गया कि ‘चाणक्य’ गली-गली पर्चे बाँट रहे हैं। कथित गोदी मीडिया ने भी इसे खूब हवा दी और गलियों में शाह के जनसंपर्क को केजरीवाल के काम और लोकप्रियता से जोड़ा। लेकिन, जमीन पर शाह की इस रणनीति का बीजेपी को दोहरा फायदा हुआ। इससे उन नेताओं ने प्रचार में पूरी ताकत झोंकी जिन्होंने टिकट नहीं मिलने पर खुद को प्रचार से अलग कर रखा था।
दूसरे, जनसंघ के जमाने के बुजुर्ग समर्थक भी कई चुनावों के बाद दिल्ली की गलियों में भाजपा के लिए सक्रिय हुए। ऐसे ही एक समर्थक एके टांगरी से मेरी मुलाकात हरि नगर में हुई। स्टेट बैंक के वरिष्ठ अधिकारी रहे टांगरी ने बताया, “जब देश का गृह मंत्री घर आकर पर्चे दे जाता है तो आप भी बिना कुछ कहे घर से निकल पार्टी के लिए काम करने लगते हैं। अमित शाह ने खुद सड़क पर उतर कर उन लोगों में भी जोश भर दिया है जो मान बैठे थे कि कुछ नहीं हो सकता। आप दोबारा जीतेगी।” बकौल टांगरी, हर चुनाव में नाम और चेहरे से वोट नहीं मिलते। बीजेपी ने इस बात को समझा और उसका पूरा नेतृत्व जमीन पर उतरा। वे कहते हैं, “कॉन्ग्रेस का नेतृत्व जमीन से कटा है इसलिए उसकी ऐसी दुर्दशा है।”
जमीन पर हुए इसी बदलाव ने आप को आखिर में बीजेपी के पिच पर आकर खेलने को मजबूर कर दिया। उसने शाहीन बाग से पिंड छुड़ाने की कोशिश की लेकिन कपिल गुर्जर के मामले में हुए खुलासे से वह इसमें और धॅंस गई। हिंदुओं की हितैषी साबित करने की जुगत में खुद केजरीवाल ने हनुमान चालीसा पढ़ा। इसके अलावा चुनावों में कहीं दिख नहीं रही कॉन्ग्रेस का करीब दर्जनभर सीटों पर मजबूती से लड़ना भी आप के गले की फॉंस बन गया है। इनमें वे मुस्लिम बहुल सीटें भी हैं जिनका एकमुश्त वोट पहले आप को मिलने का अनुमान लगाया जा रहा था।
ऐसे में हवा बदलने की बीजेपी की रणनीति वोटों में कितना बदल पाई, यह 11 फरवरी को नतीजे आने के बाद ही पता चलेंगे। लेकिन, मतदान से ठीक पहले बीजेपी ने खुद को उस स्थिति में तो जरूर ला खड़ा किया है कि अब धुर विरोधी भी दिल्ली में मुकाबले की बात मानने लगे हैं।
करिश्मे का गणित
2017 के अंत में गुजरात में विधानसभा के चुनाव हुए थे। उस चुनाव में बीजेपी और कॉन्ग्रेस के बीच कॉंटे का मुकाबला बताया जा रहा था। यह भी कहा जा रहा था कि बीजेपी हार सकती है। खुद मोदी को पूरी ताकत झोंकनी पड़ी थी। भारत कैसे हुआ मोदीमय के लेखक वरिष्ठ पत्रकार संतोष कुमार बताते हैं, “उस चुनाव के दौरान बीजेपी की एक इंटरनल मीटिंग में अमित शाह ने कहा हमारे 1.25 करोड़ मिस्ड कॉल कार्यकर्ता हैं। इनमें 60 लाख वेरिफाइड हैं। यदि ये कार्यकर्ता दो-दो अतिरिक्त वोट भी ले आएँ तो बीजेपी को 1.80 करोड़ वोट मिलेंगे। गुजरात में करीब पौने तीन करोड़ वोट पड़ते हैं। यानी हमें जीतने के लिए 1.40 करोड़ वोट चाहिए।” बकौल कुमार उस चुनाव में बीजेपी को करीब 1.49 करोड़ वोट मिले थे।
इस कसौटी पर दिल्ली को परखते हैं। दिल्ली में करीब डेढ़ करोड़ वोटर हैं। 2015 के विधानसभा में करीब 67 फीसदी मतदान हुआ था। यदि इस बार भी ऐसा हुआ तो एक करोड़ के करीब वोट पड़ेंगे। दिल्ली में इस वक्त भाजपा के सदस्यों की संख्या 62 लाख के करीब है। यदि इन सभी ने बीजेपी के लिए वोट डाले तो 11 फरवरी को करिश्मा तय है।
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