Sunday, December 22, 2024
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रोहिंग्या से नेहरू तक, Howdy Modi पर लोगों ने अर्बन नक्सलियों के कुतर्कों को एक-एक कर काटा

“अनुकरणीय” के साथ सबसे बड़ी समस्या ये भी है कि लोग देखते हैं, तालियाँ बजाते हैं और आगे निकल जाते हैं। “अनुकरणीय” का सचमुच अनुकरण करने लायक “दम” किसमें है, और किसमें नहीं है, ये भी एक बड़ा सवाल है।

अनुकरणीय क्या होता है? कुछ भी अच्छा जो दिख गया हो, उसके जैसा किया जा सकता है। हाल में जब ‘Howdy Modi’ कार्यक्रम बीता तो जमकर कुहर्रम मचा। पहले तो शोर इस बात पर था कि भला विदेश में किसी आयोजन से भारत का कौन सा भला होगा? अब मुट्ठी भर अभिजात्यों के नियंत्रण वाली खरीद कर इस्तेमाल होने वाली मीडिया का दौर तो रहा नहीं, सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने के लिए लोग स्वतंत्र हैं। सवाल के उठने भर की देरी थी कि #अभिव्यक्तिकीस्वतंत्रता का इस्तेमाल करते हुए लोगों ने बता दिया कि भारत-वंशियों से कितना रेवेन्यु, कितनी आय भारत को भी होती है।

मामला सिर्फ इतने पर कैसे रुकता? अर्बन नक्सल गिरोहों ने हमले की दिशा बदली और कहने लगे कि अगर अमेरिका में रहने वाले भारतीय लोगों को ‘भारत माता की जय‘ कहने की छूट है, तो वही तर्क रोहिंग्या पर भारत में भी लागू होगा क्या? अब फिर से आम लोग इस बचकाने तर्क को तोड़ गए। प्रवासी, शरणार्थी और घुसपैठिये में अंतर होता है, ये हिन्दी बेचकर खाने वालों को तो बताया ही गया, अंग्रेजी वालों को भी इमिग्रेंट, रिफ्यूजी और इन्ट्रूडर का अर्थ समझाया जाने लगा। समस्या ये थी कि थोड़ी सी फजीहत पर जो मान जाए वो लिबटार्ड कैसा? इसलिए इतनी बेइज्जती पर उनका मन नहीं भरा था।

अंत में नेहरू को महान बताने वाले उनकी पार्टी के कुछ अंग्रेजीदाँ दां अभिजात्य लोग मैदान में उतरे। वो 1955 की रूस की इन्दिरा-नेहरू की तस्वीर को 1954 की अमेरिका की तस्वीर बताने लगे! कुछ लोगों ने ये भी ध्यान दिलाया कि पुराने कॉन्ग्रेसी जुमले “इन्दिरा इज इंडिया, एंड इंडिया इज इन्दिरा” को वो भूले नहीं है, उन्होंने इन्दिरा की वर्तनी इंडिया कर डाली थी! कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अनैतिक मार्केटिंग (अनएथिकल मार्केटिंग) के तीन “सी” (कन्विंस, कंफ्यूज, कर्रप्ट) का इस्तेमाल करने की पुरजोर कोशिश की गई और किसी तरह से इससे कुछ अच्छा न निकल जाए ये प्रयास हुआ।

अब बात चूँकि “अनुकरणीय” से शुरू हुई थी तो वापस वहीं पर आते हैं। पटना शहर में भी दूसरे कई बड़े शहरों की तरह आयोजन होते रहते हैं। जैसा कि दूसरी सभी जगहों पर भी होता ही है, वैसे ही यहाँ भी आयोजनों में मुख्य अतिथि होते हैं। उन्हें मंच पर सम्मानित करने के लिए किसी न किसी को बुलाया जाता है और वो “पुष्प-गुच्छ” से अतिथि का स्वागत करता है। मंच पर कुछ कुर्सियाँ लगी होती हैं, जहाँ ये अभिजात्य अतिथि और मुख्य अतिथि पूरे समय बैठकर वक्ताओं को सुन रहे होते हैं। आम लोग (मामूली मैंगो पीपल) इन अभिजात्यों से अलग कहीं नीचे कुर्सियों पर बिठाए जाते हैं।

अब अमेरिका के इस आयोजन को दोबारा देखिए। यहाँ मंच पर कोई कुर्सी नजर नहीं आएगी। अपनी बात ख़त्म करने के बाद वक्ता वहीं नीचे जाकर आम लोगों (मामूली मैंगो पीपल) जितनी ऊँची कुर्सियों पर बैठे। ट्रम्प मोदी जी के भाषण के समय नीचे बैठे थे और मोदी जी भी ट्रम्प के भाषण के समय नीचे ही थे। कोई कुर्सी और ऊँची जगह की लूट-पाट नहीं थी। कोई महँगे पुष्प गुच्छ नहीं दिए जा रहे थे! जहाँ तक पुष्प-गुच्छ का सवाल है, काफी पहले मोदी जी एक बार कह चुके हैं कि ये पुष्प आयोजन के बाद बेकार ही चले जाते हैं। इनके बदले किताबें दे देना बेहतर विकल्प है।

ऐसा भी नहीं है कि जिस विषय पर आयोजन हो रहा हो उस विषय की किताबें मौजूद नहीं हैं। अगर पानी जैसे मुद्दों पर बात हो रही हो तो अनुपम मिश्र की “आज भी खरे हैं तालाब” है, स्वच्छता इत्यादि पर “जल, थल, मल” मौजूद है, बाढ़ जैसे विषय हों तो डॉ. दिनेश मिश्र ने ऐसे मुद्दों पर किताबें लिखी हैं। शिक्षा जैसे मुद्दों पर “तत्तोचन” अच्छी किताब है, जंगल पर “द मैन हु प्लांटेड ट्रीज” दी जा सकती है।

सिर्फ थोड़ी सी मेहनत से 500-1000 रुपये के गुलदस्ते से कहीं बेहतर और उपयोगी चीज़ दी जा सकती है। हाँ इरादा राजनैतिक हो या अख़बारों में नेताजी या किसी बड़े आदमी को गुलदस्ता देते फोटो छपवाने का शौक हो तो और बात है। लालची लोगों से मेहनत की हम अपेक्षा भी नहीं रखते। बाकी “अनुकरणीय” के साथ सबसे बड़ी समस्या ये भी है कि लोग देखते हैं, तालियाँ बजाते हैं और आगे निकल जाते हैं। “अनुकरणीय” का सचमुच अनुकरण करने लायक “दम” किसमें है, और किसमें नहीं है, ये भी एक बड़ा सवाल है।

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Anand Kumar
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