गीता में भगवान् कृष्ण ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था- संशयात्मा विनश्यति। अर्थात, शत्रु जब सामने हो उस समय शंका का एक छोटा सा बीज भी देखते ही देखते मानसिक द्वन्द के विशाल वृक्ष के रूप में खड़ा हो सकता है।
यह मानसिक द्वन्द बड़े से बड़े योद्धा के उत्साह और शरीर को शिथिल कर देता है। यही भ्रम उसे पराजय की ओर ले जाकर नष्ट कर देता है। यह युद्ध जीवन की रोजमर्रा की लड़ाई हो भी सकती है और सीमाओं पर शत्रु के विरुद्ध लड़ा जाने वाला संग्राम भी।
विश्वास मानव की प्रगति की कुंजी है, तो शंका उसके विनाश का दरवाज़ा। युद्ध की स्थिति में सिपाहियों और जनता के बीच संदेह का कीड़ा पैदा कर दिया जाए तो बड़ी से बड़ी सेना हार सकती है।
हमारे 20 जवान धोखे से मार डाले गए हैं। यह भी सही है कि हमारे वीर सैनिकों ने चीन के भी कई जवानों को मार डाला है। आज चीन हमें खुली चुनौती दे रहा है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने तो इस कपटपूर्ण कार्रवाई के लिए भारत की सेना को ही दोषी बताया है।
गलवान घाटी में 15 जून को नियंत्रण रेखा की झड़प के बाद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकृत अखबार ‘ग्लोबल टाईम्स’ ने तो सीधी धमकी दे डाली है। अखबार लिखता है, “1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ भारत की मदद को आए थे, पर चीन ने भारत को फिर भी हराया था।” उसने आगे लिखा है कि इस समय तो चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पाँच गुनी है। चीन फिर से भारत को सबक सिखाएगा।
पिछले कुछ दिनों में एक बार नहीं बल्कि दसियों बार इस अखबार ने 1962 का जिक्र करके भारत को ताना मारा है और ‘देख लेने’ की धमकी दी है। यही नहीं सीधे-सीधे पाकिस्तान और यहाँ तक कि नेपाल को भड़काकर भारत पर तीन तरफ से हमला करने का दुस्साहस भी दिखाया है।
अख़बार ने 23 जून के एक लेख में लिखा है कि “भारत के चीन, पाकिस्तान और नेपाल के साथ सीमा के झगड़े चल रहे है।” इसलिए इसे एक साथ तीन मोर्चों पर युद्ध लड़ना पड़ेगा। यानी, भारत जब भी अपने बाजिव हकों की बात करेगा तो चीन युद्ध की धमकी देगा।
आप इसका विश्लेषण किसी भी तरह करें, तो पाएँगे कि चीन की नीयत में खोट आ चुका है। निस्संदेह प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के साथ संबंध बेहतर बनाने की लाख कोशिशें की हैं। पर अब उसकी किसी भी बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता। हम इस समय चीन के साथ युद्ध जैसी स्थिति में हैं।
इस युद्ध के कई मोर्चे हैं। मौजूदा संघर्ष सामरिक भी है, आर्थिक भी, वैचारिक भी और मनोवैज्ञानिक भी है। इसी बीच देश कोरोना से भी एक जंग लड़ रहा है। देश में साढ़े चार लाख से ज्यादा संक्रमण और 14 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं।
हम जानते ही हैं कि चीन बहुत ही चालाक, धूर्त और घातक शत्रु है। वह ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के नारे की ओट में आपकी पीठ में छुरा भोंकता है। वह आपके साथ शिखर बैठक के समय नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ कर देता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का अधिनायकवादी तंत्र दुनिया के किसी कायदे-कानून, पूर्व मान्य समझौते और नियम को नहीं मानता।
पिछले दिनों में हांगकांग के मामले में दुनिया ये देख ही रही है। अपनी आर्थिक और सामरिक धौंसपट्टी से सबको हाँकने की कोशिश करने वाले ऐसे मर्यादाहीन देश की चालबाजियों से समूचा विश्व हैरान है। हमें समझना होगा कि चीन अपनी टेक्नोलॉजी और एप्स जैसे कि ज़ूम और टिकटॉक तक का इस्तेमाल इस युद्ध के मनोवैज्ञानिक संघर्ष में कर रहा है।
देखने की बात ये है की गलवान घाटी में लड़ाई की मूल वजह क्या है? इसकी दो मूल वजह हैं। पहली, भारत ने पिछले कुछ साल में अपनी पूर्वोत्तर क्षेत्र में लगातार सड़कें, पुल और हवाई अड्डे बनाने का काम किया है। इससे चीन विचलित है। अगर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखा जाए तो 1962 के बाद हमने चीन की सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का काम किया ही नहीं।
उधर चीन ने लगातार सड़कें, रेल मार्ग, हवाई पट्टियाँ और पुल बनाए जिससे उसकी सेना तथा बड़े हथियार थोड़ी समय में ही मोर्चे पर पहुँच जाते हैं। इधर हम सोचते रहे कि अगर हम सड़क और पुल बनाएँगे तो चीन की सेना उनका इस्तेमाल कर सकती है। ऐसी नकारात्मक और कायरतापूर्ण सोच एक पराजित मानसिकता को ही दिखाती है। जो लोग आज सरकार से सवाल पूछ रहे हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि डर की यह मानसिकता क्या सही थी?
संतोष की बात है कि देश ने अपनी इस कमजोरी को समझा और पिछले कुछ समय से भारत-चीन नियंत्रण रेखा तक पहुँचने के लिए नई सड़कें, पुल और हवाई अड्डे बनने लगे। इसीलिए चीन ने स्पष्ट कहा है कि मौजूदा तनाव का मूल कारण भारत का ये निर्माण ही है। इसका सीधा मतलब है कि अगर हम अपने इलाकों के विकास के लिए सड़क और पुल बनाएँगे तो चीन उनका विरोध करेगा और उसके विरोध में वह संघर्ष पर उतारू हो जाएगा।
सवाल है, जब चीन संघर्ष पर उतारू होगा तो क्या हम वहाँ से भागेंगे या फिर डटकर उसका मुकाबला करेंगे। गलवान घाटी में वही हुआ। हमारी सेना चीन के तेवरों से डरी नहीं। दृढ़ता से चीन की उद्दंड सेना का सामना किया। जिसमें कुछ बलिदान हमारे जवानों की हुई और काफी चीनी सैनिक भी मारे गए। मौजूदा संघर्ष भारत की इस नई सोच का उदाहरण है। जो भारत की संप्रभुता, सम्मान और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार है। इसलिए गलवान घाटी की घटना पर देश को गर्व करने की आवश्यकता है न कि इससे विचलित होने की।
मौजूदा भारत-चीन तनाव का दूसरा कारण है, चीन की आंतरिक स्थिति। कोरोना महामारी के बाद चीन की निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था संकट में है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा कोरोना की जानकारी दुनिया को समय पर न दिए जाने के कारण विश्वभर में चीन के प्रति आक्रोश है। स्वयं चीन के अंदर भी इसको लेकर असंतोष के स्वर उठ रहे हैं। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी गलती मानने की बजाए पूरी दुनिया में देशों को धमकाना शुरू कर दिया है।
अगर आप देखें तो एक के बाद एक चीन ने ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, जापान, ताइवान, कनाडा आदि कई देशों के साथ जबरन बैर मोल लिया है। हांगकांग में पहले से मान्य और स्वीकृत समझौते को उलट दिया है।
दरअसल कोरोना को पूरी दुनिया में फैलाने की जिम्मेदारी से बचने के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने उद्दंडता का सहारा लेना शुरू किया है। लद्दाख क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर जो विवाद के मोर्चे चीन ने अब खोले हैं उन पर पहले अधिक विवाद नहीं था। इसका मतलब साफ है, अपनी नाकामी और आंतरिक मामलों से ध्यान हटाने के लिए भारत के साथ उसने यह मोर्चा खोला है।
दरअसल अपने देश में एक वर्ग ऐसा है जो अंदरखाने चीन के साथ सहानुभूति रखता है। देश के वामपंथी सोच रखने वाले तो चीन को अपना वैचारिक मसीहा मानते हैं, इसलिए उनके बर्ताव पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। वे 1962 के दौरान भी ऐसा कर चुके हैं। समझा जा सकता है कि उनकी स्वाभाविक सहानुभूति चीन के साथ है। परंतु मुख्य विपक्षी दल कॉन्ग्रेस को सोचना चाहिए कि संकट की इस घड़ी में बेतुके सवाल उठाना क्या देश में शंका का माहौल पैदा करने जैसा नहीं है?
ऐसे में सेना, उसकी तैयारी और देश के नेतृत्व के प्रति संदेह का वातावरण पैदा करना इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में शत्रु का साथ देने के बराबर है। यह सही है की चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही के उलट भारत एक प्रजातंत्र है। प्रजातंत्र पारदर्शिता और खुलेपन पर चलता है। पर जब सवाल देश की सुरक्षा, रणनीतिक दावपेंचों और उसके सैन्य मनोबल का हो तो बेहद सतर्कता बरतना ज़रूरी है। प्रजातंत्र में सवाल पूछने का अधिकार विपक्ष को ही नहीं, देश के हर एक नागरिक को है।
इसी तरह सरकार का कर्तव्य है कि वह हर सवाल का उत्तर दे। परंतु कौन से सवाल पूछे जाए? इनका टाइमिंग क्या हो? यह भी बहुत महत्वपूर्ण है। क्या ये सवाल उस समय पूछे जाने चाहिए जिस समय गलवान घाटी में सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खड़ी हुई हैं? क्या कुछ भी अनाप-शनाप सवाल उस समय उठाए जाएँ जब हमारी सेना के कमांडर चीन के साथ बातचीत के नाज़ुक दौर में हों?
जब चीन का पूरा प्रोपेगेंडा तंत्र भारत के खिलाफ प्रचार में लगा हुआ है उस समय देश की पार्टियाँ खासकर कॉन्ग्रेस ऐसा करने लगे तो बड़ी हैरत होती है। मेरे ख्याल से ये वक्त सवाल पूछने का नहीं, बल्कि बिना किसी किन्तु-परन्तु के देश की सेना और देश के प्रधानमंत्री के पीछे खड़ा होने का है।
कॉन्ग्रेस कार्यसमिति की इस हफ्ते ख़ास बैठक हुई। होना तो ये चाहिए था कि पार्टी एक लाइन का प्रस्ताव पारित करती कि इस नाज़ुक घड़ी में वह सेना और देश के साथ खड़ी हुई है। पर उस प्रस्ताव में तो बस सवालों की झड़ी लगी हुई है। और तो और, अपने दस साल के कार्यकाल के दौरान राजनीतिक मौन धारण करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस वक्त लम्बा चौड़ा बयान दे रहे हैं। राहुल गाँधी के ट्वीट्स और बयानों के बारे में तो कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर होगा।
जब संकट के बादल थम जाएँ; सेनाएँ पीछे लौट जाएँ; युद्ध जैसी स्थिति समाप्त हो जाए; उस समय संसद में सरकार और प्रधानमंत्री से खूब सवाल पूछे जाने चाहिए। परंतु इस समय ट्विटर पर अनर्गल प्रलाप करना और अटपटे सवाल पूछना देश की जनता के मन में संदेह के बीज बोना है।
जो भी ऐसा कर रहे हैं वे देश के दीर्घकालिक हितों को दरकिनार करते हुए सिर्फ अपनी छोटी-मोटी राजनीति तथा क्षुद्र स्वार्थों के लिए ऐसा कर रहे हैं। देश की सेनाएँ जब सीमा पर खून बहा रही हों, आपके शत्रु की नजर आपके एक-एक कदम पर ही नहीं आपकी भाव भंगिमा तक पर हो, उस समय 20-20 क्रिकेट मैच की तरह हर बॉल पर कमेंट्री की उम्मीद गैर जिम्मेदाराना और बेहद बेवकूफाना है।