कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई से बुधवार (22 सितंबर 2021) को बंगलुरु के आर्च बिशप पीटर मैकाडो की अगुवाई में कैथोलिक बिशप मिले। उन्होंने मुख्यमंत्री के सामने राज्य सरकार के प्रस्तावित जबरन धर्मांतरण विरोधी कानून को लेकर चिंता व्यक्त की। बिशप मैकाडो की अगुवाई वाले डेलीगेशन ने मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन दिया जिसके अनुसार जबरन धर्मांतरण रोकने के लिए प्रस्तावित कानून की कोई आवश्यकता नहीं है और यदि ऐसा कानून लाया गया तो इसके कारण अनावश्यक सांप्रदायिक मुद्दे उठेंगे और राज्य में अशांति फैलेगी।
कर्नाटक के ईसाई समुदाय के धार्मिक प्रतिनिधियों द्वारा मुख्यमंत्री को दिया गया ऐसा ज्ञापन समझ से परे है, खासकर तब जब उन्हीं के समुदाय के धार्मिक नेता पड़ोसी राज्य केरल में ग्रूमिंग जेहाद को लेकर बार-बार चिंता व्यक्त कर रहे हैं। कर्नाटक में ईसाई समुदाय के धार्मिक प्रतिनिधियों को यह समझ क्यों नहीं आ रहा कि जबरन धर्मांतरण को रोकने के लिए लाया जाने वाला कानून सभी संप्रदायों के लोगों को जबरन धर्मांतरण से सुरक्षा प्रदान करेगा? या फिर कर्नाटक के ईसाई समुदाय के धार्मिक प्रतिनिधि ऐसा मान कर चल रहे हैं कि इस तरह का कानून लाया गया तो जबरन धर्मांतरण से केवल हिंदुओं को सुरक्षा मिलेगी? यदि वे ऐसा मानकर नहीं चल रहे तो फिर कानून के मात्र प्रस्ताव भर से चिंतित होकर मुख्यमंत्री से मिलने क्यों पहुँच गए?
मिशनरी के तमाम बिशप का आनन-फानन में मुख्यमंत्री से मुलाकात का फैसला दरअसल कर्नाटक के ईसाई धर्म के प्रतिनिधियों के बारे में बहुत कुछ बताता है। उनका यह कदम बताता है कि उन्हें कानून लागू होने के बाद उसके प्रभाव और परिणाम की चिंता है। धर्मांतरण विरोधी कानून आने से उन्हें उनके काम करने में तकलीफ हो सकती है। ऐसा न होता तो सरकार द्वारा ऐसे किसी कानून लाने की मात्र संभावना व्यक्त करने के साथ ही एक प्रतिनिधिमंडल को मुख्यमंत्री के साथ मुलाकात करने की आवश्यकता महसूस न होती। इन सबके ऊपर उनका एक चुनी हुई सरकार से यह कहना कि ऐसे किसी कानून से राज्य में अशांति फैलेगी, उनकी अपनी ताकत और समाज तथा कानून के प्रति उनके धार्मिक दृष्टिकोण को भी दर्शाता है।
मिशनरी के इस कदम के पीछे का कारण बिलकुल स्पष्ट है। राज्य विधानसभा में धर्मांतरण जैसे गंभीर विषय पर हाल के वर्षों में बहस नहीं हुई थी। लेकिन हाल ही में विधानसभा में धर्मांतरण पर एक बहस हुई। इस बहस के दौरान अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए भारतीय जनता पार्टी के होसदुर्ग के विधायक गूलीहट्टी शेखर ने यह खुलासा किया था कि धर्मांतरण में लिप्त मिशनरी ने कैसे उनकी माँ का भी धर्म परिवर्तन कर दिया है और अब वे हिंदू देवी-देवताओं और रीति-रिवाजों के विरुद्ध हो गई हैं। साथ ही शेखर ने यह भी बताया कि कैसे केवल उनके क्षेत्र में प्रलोभन देकर या किसी और बहाने से करीब बीस हजार हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कर दिया गया है। शेखर का यह भी कहना था कि इस तरह से धर्मांतरण करवाने वाले लोग इतने ताकतवर हैं कि अपने विरोधियों को वे झूठे कानूनी मामलों में फँसा देते हैं। यह बात चिंताजनक है।
सुनने में ये आँकड़े साधारण लगेंगे पर प्रश्न यह है कि धर्मांतरण के ऐसे प्रयासों का दीर्घकालीन परिणाम क्या हो सकता है?
जबरन या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन की घटनाएँ देश के तमाम राज्यों के लिए नई नहीं हैं। केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में क्या हुआ या क्या हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। पिछले कई वर्षों से पंजाब में क्या हो रहा है, यह भी पूरे देश को विदित ही है। झारखंड में इससे पहले जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी तब उसने धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया था और उसका प्रभाव भी दिखाई दिया था। पर अब जबसे वर्तमान सरकार आई है, ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं। यह प्रश्न पुराना है कि हिंदुओं का लगातार इस तरह से धर्म परिवर्तन क्यों हो रहा है? फिलहाल जो प्रश्न पूछे जाने की आवश्यकता है वह ये है कि यदि ऐसा हो रहा है तो हमारी राज्य सरकारें इसे रोकने को लेकर कितनी गंभीर हैं? अपराधी का काम है अपराध करना, पर राज्य और प्रशासन का भी तो काम है अपराध रोकना। एक अपना काम कर रहा है और दूसरा नहीं। ऐसे में स्वाभाविक है कि समाज का धार्मिक संतुलन बिगड़ेगा।
ईसाई मिशनरी जबरन या प्रलोभन के जरिए धर्मांतरण की बात को खारिज करते रहे हैं। पर जब भी कोई राज्य सरकार कानून बनाकर ऐसी घटनाओं को रोकना चाहती है तो ये उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। प्रश्न यह है कि यदि ईसाई मिशनरी और राज्य सरकार, दोनों एक ही पेज पर नज़र आते हैं तो सरकारों द्वारा कानून लाने की बात का मिशनरी विरोध कैसे कर सकते हैं?
दरअसल जबरन धर्मांतरण पर मिशनरी का विरोध दिखावे के मौखिक विरोध से अधिक कुछ नहीं है। वे जिस अपराध का विरोध करते हैं, उसी में लिप्त हैं और चाहते हैं कि राज्य, सरकार और हिंदू समाज उनके इस दिखावे के विरोध को ‘जैसा है जहाँ है’ आधार पर स्वीकार कर लें। यह बात शायद तीस वर्ष पहले उनके अनुसार ही होती पर इसे लेकर पिछले लगभग डेढ़ दशक से हिंदू समाज की सतर्कता के चलते यह अनवरत नहीं चल सकता। सोशल मीडिया के आने के बाद इस तरह के धर्मांतरण के बारे में जागरूकता का स्तर ऊँचा हुआ है और इसका प्रभाव आए दिन दिखाई भी देता है।
पंजाब से लेकर तमिलनाडु और झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़ तक में इस समय धर्मांतरण कैसे चल रहा है वह दिखाई देता है। कहीं बीमारी ठीक करने के नाम पर तो कभी प्रार्थना के नाम पर लगातार हो रहे धर्मांतरण को देख कर किसी भी समुदाय का चिंतिति होना स्वाभाविक है। प्रश्न यह है कि कब तक हम केवल चिंता करके निज को दायित्वमुक्त समझते रहेंगे? या फिर हो रहे धर्म परिवर्तन को किसी तरह का तर्क (या कुतर्क) देकर ऐसा करने वालों को ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ देते रहेंगे?
आए दिन हो रहे हिंदुओं के धर्म परिवर्तन को हँसी-मजाक में केवल चावल के लिए हुआ बताना (राइस बैग कन्वर्ट कहना) इस समस्या को बहुत हल्का करके देखना है। हिंदुओं का धर्मांतरण किसी चावल या गेहूँ के बारे में नहीं, बल्कि भारतवर्ष के बहुसंख्यक समाज के बारे में है। यह कहना भी लोगों की मानसिक कमजोरी दर्शाता है कि हिंदू समाज आर्थिक रूप से कमजोर अपने लोगों की चिंता नहीं करता, इसलिए धर्म परिवर्तन होता है। आर्थिक रूप से कमजोर होना किसी को यह अधिकार नहीं देता कि वो उस व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवा दे। हिंदू समाज को ही धर्म परिवर्तन के लिए जिम्मेदार बताकर हम जाने-अनजाने उन्हें अपराध मुक्त कर देते हैं जो इसमें लिप्त हैं। समाज और सरकार जब तक इस बात को लेकर सतर्क नहीं होंगे, लगातार बढ़ रही जागरूकता का कोई ख़ास असर न होगा।
दशकों से इस तरह से चल रहे धर्मांतरण को लेकर अब सरकारें, मंत्री या नेता केवल चिंता व्यक्त करके काम नहीं चला सकते। राज्य सरकारें क्या करेंगी वह सबके लिए उत्सुकता का विषय होगा। इतिहास गवाह है कि किसी भी प्रस्तावित कानून का हरसंभव विरोध दिखाई देगा। ऐसे में यह राज्य सरकार के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न होगा कि वे इस समस्या से कैसे निपटती है। सबसे ताजा विरोध जो कर्नाटक में दिखाई दिया, वह इस बात को साबित करता है कि धर्मांतरण के विरोध में कानून बनाना सरकारों के लिए हमेशा चुनौती रहेगी। वे इस चुनौती का मुकाबला कैसे करते हैं, इस पर हिंदू समाज की दृष्टि रहेगी।