पश्चिम बंगाल ने उन्हें गलत साबित कर दिया है जिन्होंने यह सोचा था कि इस बार विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद शायद हिंसा न हो। ऐसा सोचने के पीछे लोगों के अपने-अपने कारण होंगे पर मतदान के दौरान हर बार की तुलना में इस बार हिंसा की कमी शायद इसका सबसे बड़ा कारण होगा। पर लोगों की आशा के विपरीत चुनाव परिणामों के बाद हिंसा हुई और देखा गया कि पहले की तुलना में बहुत अधिक थी। जैसे हिंसा न होने की आशा के पीछे लोगों के अपने-अपने कारण थे, वैसे ही हो रही हिंसा पर लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ भी हैं।
सत्ताधारी तृणमूल कॉन्ग्रेस की ओर से पहली प्रतिक्रिया यह थी कि; कोई हिंसा नहीं हुई और हिंसा के जो वीडियो शेयर किए जा रहे हैं, वे पुराने हैं। दूसरी यह थी कि; हम तो चुनाव जीते हैं। भला हम क्यों हिंसा करेंगे? तीसरी प्रतिक्रिया भी आई और वो यह थी कि; भारतीय जनता पार्टी के अलग-अलग धड़े आपस में ही लड़ रहे हैं।
वामपंथियों में से अधिकतर चुप रहे और कुछ ही बोले, यह बात अलग है कि उनके वोटर और ‘समर-थकों’ के खिलाफ भी हिंसा हुई। कॉन्ग्रेस पार्टी ने ममता बनर्जी की खुशी में अपनी खुशी खोज ली है। उसने चुप्पी साध ली। भारतीय जनता पार्टी की ओर से भी प्रतिक्रिया आई जिसमें हिंसा को लोकतंत्र के विरुद्ध बताया गया।
पत्रकारों और मीडिया की ओर से भी प्रतिक्रिया आई। अधिकतर प्रादेशिक मीडिया और पत्रकारों की पहली प्रतिक्रिया चुप्पी थी। पहली प्रतिक्रिया के बाद सबसे लोकप्रिय प्रतिक्रिया यह रही कि; राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल के लिए नई बात नहीं है और ऐसा पहले से होता रहा है। पर लोगों को सबसे आश्चर्यचकित जिस प्रतिक्रिया ने किया, वह ऐसी थी जिसने भारत में मीडिया की तटस्थता को एक नई परिभाषा दी। यह प्रतिक्रिया वाम-तंत्री मीडिया की ओर से थी जिसमें कहा गया कि; पश्चिम बंगाल में हिंसा तो हो रही है पर वह सांप्रदायिक हिंसा नहीं है।
जैसे कोई कह रहा हो; हिंसा जब तक सांप्रदायिक न हो, तब तक उसे मानवता के विरुद्ध नहीं माना जा सकता। हो सकता है अगली प्रतिक्रिया जेएनयू के किसी समाजशास्त्री की ओर से आए, जिसमें वो बताए कि पश्चिम बंगाल में हिंसा की घटनाओं पर इतनी भिन्न प्रतिक्रियाओं का अर्थ ही यह है कि प्रदेश में लोकतंत्र मजबूत है और बाकी के भारत को इसी लोकतंत्र से सीखने की आवश्यकता है। यह भले काल्पनिक लगे पर इतिहास को देखते हुए इसे असंभव करार देने का मन नहीं हो रहा।
प्रश्न यह उठता है कि ऐसी भीषण हिंसा पर अलग-अलग लोगों की इतनी भिन्न प्रतिक्रियाएँ कैसे? आखिर जो सामने दिख रहा है उसमें ऐसा क्या है जो छिपा हुआ है और जिसे कुछ लोग तो देख पा रहे हैं पर कुछ लोग नहीं देख पा रहे? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हुई किसी भी हिंसा पर इतनी अलग-अलग प्रतिक्रिया कैसे आ सकती है? चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा तृणमूल कॉन्ग्रेस, कॉन्ग्रेस, वाम दल और मीडिया भी था। फिर ऐसी भीषण हिंसा की एक स्वर में निंदा असंभव क्यों है?
तृणमूल कॉन्ग्रेस हो रही हिंसा को लेकर जो कुछ भी कह रही है, वह क्या केवल इसलिए कह पा रही है क्योंकि उसे पता है कि उससे कोई प्रश्न नहीं करेगा? पार्टी की सोच का आधार चाहे जो हो पर यह जरूर है कि मीडिया ने चुप्पी साधकर प्रदेश में होने वाली हिंसा को लोकतंत्र का अभिन्न अंग बना दिया है। परिणाम स्वरूप वह न केवल खुद अपनी इस थ्योरी में विश्वास करता है बल्कि यह भी चाहता है कि आम भारतीय भी यह मान ले कि प्रदेश में राजनीतिक हिंसा रोजमर्रा के जीवन का अंग है और इसलिए मीडिया और बुद्धिजीवियों को अधिकार है कि इसे लेकर आश्चर्यचकित होने वालों को वह जाहिल करार दे दे।
यह सच है कि राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल के लिए नई बात नहीं है पर वर्तमान में जो स्थिति है, हालात वहाँ तक कैसे पहुँचे? देश में होने वाले चुनाव सुधारों का असर बाकी प्रदेशों में होने वाली हिंसा पर हुआ पर पश्चिम बंगाल इसका अपवाद क्यों रहा?
दरअसल प्रदेश में हिंसा का जो रूप हम आज देख रहे हैं, वह वाम जनित हिंसा का ही विस्तार है। 1970 के दशक में वामपंथियों द्वारा शुरू की गई हिंसा ने उनके सत्ता में आने के बाद एक नया रूप ले लिया। “सत्ताधारी को हिंसा के बल पर सत्ता से हटाना है” जैसा सिद्धांत सत्ता में आने के बाद “तुमने विपक्ष को वोट करने की हिम्मत कैसे की?” में परिवर्तित हो गया और वामपंथी दलों के सत्ता से हटाए जाने के साथ भी नहीं गया क्योंकि जाते-जाते वामपंथी यह सिद्धांत ममता बनर्जी को दे गए और उन्होंने इसका खूब इस्तेमाल किया। हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों से पहले 2018 के पंचायत चुनावों में हुई हिंसा इस सिद्धांत के प्रयोग का सबसे बड़ा उदाहरण है। उनकी सरकार के विरुद्ध कोलकाता उच्च न्यायालय की टिप्पणी इस बात का सबसे बड़ा सबूत है।
ऐसे में तृणमूल कॉन्ग्रेस का प्रश्न कि “हमने तो चुनाव जीता है, हम हिंसा क्यों करेंगे?” बेमानी है। दल को यह विश्वास है कि उससे प्रश्न नहीं पूछा जाएगा क्योंकि प्रदेश की सत्ता में अब वामपंथ भले न हो, वाम-तंत्र आज भी मौजूद है और मज़बूती के साथ टिका हुआ है। हाँ, वामपंथियों के समय में और आज के बीच एक अंतर यह है कि तब के मीडिया ने हिंसा पर कभी बहस भले न किया हो पर हिंसा की रिपोर्टिंग जरूर करता था। अब रिपोर्टिंग तक नहीं करता। तब के वाम-तंत्री संपादक संभावित बहस में नैतिकता का प्रश्न उठाकर अपने वैचारिक शासकों को धर्मसंकट (वैसे वामपंथियों के लिए धर्मसंकट जैसा शब्द शायद सही न हो) में नहीं डालना चाहते थे पर अब तो रिपोर्टिंग न करके उन्हें शर्मिंदा भी नहीं करते। जो लॉयल दैन द क्वीन हैं, वे एक कदम आगे जाकर बहस करते हुए यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि; प्रदेश में हो रही हिंसा सांप्रदायिक नहीं है इसलिए हिंसा के आरोप को खारिज कर दिया जाना चाहिए।
ऐसा शायद इसलिए है कि साल दर साल वाम-तंत्री मीडिया ने केवल सांप्रदायिक हिंसा की बात और उस पर बहस करके यह साबित करने की कोशिश की कि हिंसा केवल एक ही तरह की होती है और वह है सांप्रदायिक हिंसा। उसके अलावा किसी और हिंसा पर न तो बहस की जरूरत है और न ही उसके निंदा की। अभी हाल ही में 26 जनवरी के दिन दिल्ली में किसान आंदोलन के नाम पर की गई हिंसा हाल के दिनों में इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पूरे देश ने देखा कि कैसे उस हिंसा को उचित ठहराने की कोशिश की गई।
वामपंथी हिंसा और उसकी वाम-तंत्री रिपोर्टिंग का क्रमिक विकास देखने लायक है। “जो है उसमें से अपने मतलब का सीन ही देखना है” से चलकर “कुछ नहीं दिख रहा है” तक के सफर में मात्र तीन दशक लगे जो वाम-तंत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि का अगला पड़ाव क्या होगा, यह देखना रोचक होने के साथ-साथ शोध का भी विषय होगा।