Sunday, December 22, 2024
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तब मरीचझापी नरसंहार, अब जान बचाते हजारों बंगालियों का पलायन: सिर्फ वोटर बदले हैं, बंगाल की राजनीतिक वही है

1972 में कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे को याद कीजिए या वामपंथी शासन में 1979 में हुए मरीचझापी नरसंहार को... और अब बंगाल से जान बचा असम की ओर भागे आम बंगालियों को - हिंसा और पलायन ही बंगाल की राजनीति का पर्याय है।

राजनीति को सैद्धांतिक रूप से समझने वाले यह जानते हैं कि एक संस्था के तौर पर राज्य शासन तंत्र में सबसे मजबूत और शक्तिशाली होता है। इसीलिए लोकतन्त्र में यह सुनिश्चित किया जाता है कि किसी एक ही व्यक्ति या एक ही दल का वर्चस्व राज्य की इस शक्ति पर हमेशा के लिए न हो जाए। अगर ऐसा होता है तो निरंकुशता बढ़ती है। और अगर सत्ता में बैठा दल या व्यक्ति निरंकुश हो जाए तो समाज विकृत होने में और बिखरने में देर नहीं लगती।

पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। सांप्रदायिक लामबंदी के दम पर सत्ता में आई टीएमसी और दंभ से भरी हुई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समाज की समरसता को बनाए रखने में न सिर्फ असफल हुई बल्कि उसे तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज जो बंगाल में हो रहा है, वो बंगाल में पहले वामपंथियों और फिर टीएमसी की शासन सत्ता में फैलाई गई वैमनस्यता और घृणा की पुरानी राजनीति की परिणति है।

ध्यातव्य हो कि गत कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल में शासन व्यवस्था पूर्ण रूप से विफल रही है। इसका जीता जागता उदाहरण है बंगाल में होती आ रही हिंसा जो कि पूर्ण रूप से राजनीति से प्रेरित ज्ञात होती है। खास कर ममता सरकार द्वारा सरकार के विरोध में आवाज उठाने वाले लोगों को जानबूझ कर निशाना बनाया जा रहा है, उनके घरों को तोड़ा जा रहा है, ऐसा करने से रोकने पर परिवार जनों को मारा जा रहा है तथा महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया जा रहा है।

आश्चर्य की बात यह है कि इतना कुछ घटित होने के बावजूद मीडिया चैनल, पत्रकार तथा समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी लोग मुक दर्शक बने हुए हैं। शायद उनके के लिए विध्वंसक गतिविधियाँ एवं हत्याएँ भी राज्य तथा सरकारें देख कर मायने रखती हैं।

बंगाल की वर्तमान परिदृश्य को देखकर वर्ष 1972 की घटनाएँ याद आती हैं, जब सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने भी राजनितिक विरोधियों को सबक सिखाने में सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया था। उस समय की तत्कालीन सरकार द्वारा भी चुन-चुन कर सरकार विरोधी लोगों को मारा जाता था, वही झलक आज भी देखने को मिल रही है।

वर्ष 1979 में हुए मरीचझापी नरसंहार को भी नहीं भुला जा सकता है, जब एक तरफ 26 जनवरी 1979 को सम्पूर्ण देश धूम-धाम से गणतंत्र दिवस मना रहा था, वहीं दूसरी ओर लेफ्ट सरकार द्वारा सुनियोजित तरीके से मरीचझापी द्वीप को चारों तरफ से घेर कर सारी आवश्यक सामग्री के आयात पर रोक लगा कर एवं पीने वाले पानी के मुख्य स्रोत में जहर मिला कर लोगों को भूखे प्यासे मरने पर मजबूर कर दिया गया था।

इन सरकारों में बस फर्क इतना है कि तब कॉन्ग्रेस बाद में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार थी और अब लेफ्ट सरकार को सत्ता से बेदखल कर सरकार में आई ममता बनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस की सरकार है। वर्तमान की ममता सरकार बंगाल में हो रही खुलेआम गुंडई एवं नरसंहार पर लगाम लगाने में पूरी तरह से विफल है।

तृणमूल कॉन्ग्रेस जबसे पुनः सत्ता में आई है, तबसे पश्चिम बंगाल में हिंसा काफी बढ़ गई। आज के समय में राष्ट्रवादी सोच रखने वाले लोगों को बंगाल से असम की ओर पलायन होने पर मजबूर होना पड़ रहा है। यही कारण है कि पिछले कुछ दिनों में हजारों परिवार पलायन कर गए हैं। हालाँकि पलायन वाली स्थिति समय समय पर भारत में उत्पन्न होती रही है। चाहे वो भारत पाकिस्तान विभाजन के समय हो या पूर्वी बंगाल विभाजन का समय या फिर कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से पलायन की घटना हो और अब पश्चिम बंगाल में हो रहे पलायन।

अभी की स्थिति को देख कर पूर्व में घटित घटनाओं का अंदाज लगाया जा सकता है। समझा जा सकता है कि कैसे पहले की घटनाओं को दबा दिया जाता होगा, जब वर्तमान में प्रेस की स्वतंत्रता एवं मीडिया में इतनी पारदर्शिता (सोशल मीडिया के कारण) होने के बावजूद खबरें दबा दी जाती हैं। ऐसे में केंद्र सरकार को दखल देते हुए लोगों को पलायन से रोकने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए।

एक ओर उपरोक्त घटनाएँ घटित हो रही हैं, वहीं दूसरी ओर उसी पश्चिम बंगाल में हिंदुओं को निशान बनाया जा रहा है। हिंदुओं के पवित्र मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा है, मूर्तियाँ तोड़ी जा रही हैं। जबकि दशहरा के दौरान एक समुदाय विशेष को खुश करने के लिए बंगाल की प्रसिद्ध काली/दुर्गा पूजा पर पाबंदी लगा दी जाती है। और आम जनता चुपचाप तमाशा देखने को मजबूर हो जाती है। यदि कोई इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करता भी है तो उसे चुप करने के लिए उस पर हमला करवा दिया जाता है या उसे जान से मरवा दिया जाता है ताकि अन्य लोग ऐसा करने से पहले कई बार सोचें।

बंगाल की जनता वामपंथ की रक्तरंजित खेल से ऊब कर एक दशक पहले विकल्प के रूप में ममता बनर्जी को अपने मुख्यमंत्री के रूप में चुना था। शायद उस समय लोगों को इस बात का अंदेशा नहीं था कि जिसे वो विकल्प के रूप में चुन रहे हैं, वो भी वैसे ही निकलेगी बल्कि उससे भी कई कदम आगे, जैसा वो लोग पूर्व में भुगतते आ रहे थे।

पश्चिम बंगाल में मौजूदा ममता सरकार छात्रों पर भी निरंकुश शासक वाली रवैया अपनाती रही है। आवाज उठाने वाले छात्र संगठनों के कार्यलयों को ध्वंस करना, उनके कार्यकर्ताओं को मारना इनके लिए आम बात है। जब हम बात करते है लोकतंत्र की तो बंगाल को देख कर लगता है कि लोकतान्त्रिक शक्ति का दुरुपयोग करके पुलिसिया कारवाई करके लोगों की आवाज दबाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं करती है।

एक तरफ सम्पूर्ण देश में लोग कोरोना महामारी की वजह से अपनी जानें गवाँ रहे हैं, वही दूसरी ओर बंगाल में लोग कोरोना के साथ-साथ तृणमूल कॉन्ग्रेस के गुंडों के हाथों अपनी जानें गवाँ रहे हैं। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इतनी हत्याओं के बाद अब बंगाल में धरण देने की बात कही है, यह हैरानी की बात है।

हैरानी की बात तो खैर यह भी है कि जो राजनीतिक दल बंगाल चुनाव 2021 में अपनी खाता तक नहीं खोल पाए, वो आत्ममंथन करने की जगह ममता बनर्जी की पुनः सत्ता में वापसी की जश्न मना रहे। खैर मुझे अभी भी आशा है कि लोकतंत्र की चतुर्थ स्तम्भ कही जाने वाली मीडिया में इस मुद्दे को भी उतना ही प्रमुखता से दिखाया जाएगा जितना अन्य राज्यों से संबंधित खबरें दिखाई जाती हैं। अन्यथा यह देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्य का विषय होगा कि जिस विषय को ज्यादा आकर्षण मिलना चाहिए, उसे दिखाने की जगह दबा दिया जा रहा है।

लेखक: प्रियांक देव

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