Sunday, November 17, 2024
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MSP की गारंटी कृषि सहित भारत की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देगी

सरकारों को 'इनेब्लर', यानी संबल की भूमिका निभानी चाहिए न कि वैसे पिता की जिसके स्नेह के चक्कर में बच्चा इतना चॉकलेट खाता है कि उसके सारे दाँत झड़ जाते हैं, और फिर नए दाँत बनवाने में और पैसे लगते हैं वो अलग।

1965-70 के दशक में भारत ने अपने दो मूलभूत समस्याओं को निवारण हेतु हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की अवधारणाओं को क्रियान्वित किया। इससे पहले के दौर में चाहे वो तकनीकी पिछड़ापन हो, या दूरदृष्टि का अभाव, अपनी शैशवावस्था से बाहर आते देश के सामने अनाजों और दूध एवम् डेयरी उत्पादों की किल्लत थी। हम जितना उपजाते थे, उससे ज्यादा हमारी जनसंख्या थी। लगातार भारत भोजन और दूध के मामले में एक अभाव में जीता था।

खेती योग्य भूमि के संदर्भ में भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है, और मवेशियों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक यहीं है। फिर भी, भारत न तो अपने योग्य अनाज उपजा पाता था, न ही दूध और उससे जुड़े उत्पाद। तब भारत में सरकार ने दोनों ही क्षेत्रों को लिए योजना बना कर, इन वस्तुओं के आयात पर लगाम लगाने की कोशिश की।

यहीं से भारत में पहली बार MSP, यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की अवधारणा कृषि के क्षेत्र में आती है। भारत ने यह तय किया कि गेहूँ, चावल जैसे अनाजों के मामले में राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाना है। लेकिन, इसके लिए किसानों को हर उस अनाज को उपजाने के लिए प्रोत्साहित करना था, जो हमारी जनसंख्या की माँग से कम था। लेकिन, किसान को अगर लगे कि वो सब्जी उपजा कर ज्यादा लाभ कमा सकता है, तो वो गेहूँ या चावल में क्यों समय और धन लगाएगा?

इसके लिए सरकार ने कई तरह की सब्सिडी और प्रोत्साहन मूल्यों की घोषणा की। 1966 में भारत में सरकार ने किसानों से कहा कि वो अगर वैसे अनाज उपजाएँगे जो सरकार उनसे खेत में लगवाना चाहती है, तो सरकार उन्हें प्रति टन कम से कम एक तय मूल्य देगी ही। इसके साथ ही, सरकार ने उर्वरक, बिजली और सिंचाई के लिए सब्सिडी की व्यवस्था की। बीजों के लिए ब्लॉक के स्तर पर बेहतर व्यवस्थाएँ बनाई गईं। गाँव-गाँव में कृषि के क्षेत्र में नए तरीकों को ले कर प्रचार अभियान भी चले।

कहानी अमूल की, सहकारिता की, जहाँ सरकार नहीं है

इसी के समानांतर, अमूल नाम की एक कम्पनी थी, जो लगभग आजादी के ही समय में भारत में दुग्ध उत्पादों को लिए अस्तित्व में आई। सत्तर के दशक में सरकार के लिए डेयरी उत्पादों के क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता एक लक्ष्य थी। यहाँ ‘ऑपरेशन फ्लड‘ या ‘श्वेत क्रांति’ का जन्म होता है जिसके प्रणेता डॉ वर्गीज़ कूरियन थे। डॉ कूरियन ने यह दिखाया कि एक कम्पनी, भले ही सरकार के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आगे आ रही है, लेकिन बिना किसी भी सरकारी मदद के, एक सहकारिता के ढाँचे को कॉरपोरेट शैली में चलाते हुए, सफलता की नई कहानी रच सकती है।

अमूल कम्पनी को, या उसके बाद उसी मॉडल पर आई सुधा या अन्य कम्पनियों को सरकार से खास मदद नहीं मिलती, न ही उसकी कभी आवश्यकता पड़ी। यहाँ व्यवस्था यह थी कि बाजार में दूध और उसके उत्पादों की आवश्यकता है, बाजार माँग तय करेगा, किसान (दुग्ध उत्पादक) एक कम्पनी के माध्यम आपूर्ति करेगा और उसके मूल्य तय करेगा। यहाँ, न सरकार ने कभी समर्थन मूल्य बताया, न ही भंडारण में मदद की, न ही बाजार तक पहुँचाने में, फिर भी हर गाँव में पाँच-दस लोगों के साथ शुरु हुई संस्थाएँ हर महीने लाखों रुपए का व्यवसाय कर रही हैं।

यहीं पर, मैं अपना एक निजी अनुभव साझा करना चाहूँगा ताकि आपको यह समझ में आए कि बिना सरकारी मदद के एक संस्था कैसे चलती है, और लाभ में रहती है। मेरा गाँव ‘रतनमन बभनगामा’ बेगूसराय जिले में है। 1990-91 की बात है जब मेरे दालान पर छः लोगों ने अपने घर से दूध ला कर, जमा कर के बरौनी स्थित सुधा डेयरी को बेचना शुरु किया। इससे पहले या तो ग्रामीणों का दूध गाँव में ही लोग ‘उठौना’ (प्रति दिन एक तय मात्रा में किसी के घर से ले जाना) खरीदते थे, या फिर ज्यादा है तो उससे घी बना लो, मट्ठा बना लो या फिर ग्वाले को उसके मन के दाम पर बेचो।

यानी, कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी। अमूल की तर्ज पर, डॉ कूरियन की दूरदर्शिता को आधार बना कर, सुधा डेयरी स्वयं को स्थापित करने लगती है। इस व्यवस्था में दूध की गुणवत्ता के आधार पर आपको पैसे मिलते थे। पैसे साप्ताहिक अंतराल पर मिलते थे। इसके साथ ही डेयरी ने किसानों को गायें खरीदने में आर्थिक मदद की। हर किसान ने एक-दो गायें खरीद लीं। धीरे-धीरे गाँव में दुग्ध उत्पादन बढ़ने लगा।

गाँव के ही मिल्क सेंटर पर, गाय के गर्भाधान से ले कर हर तरह की चिकित्सा आदि के लिए वैटनरी डॉक्टर उपस्थित होते थे। साथ ही, ग्रामीण किसानों को कृषि के क्षेत्र में भी आई नई तकनीकों, बीजों आदि की भी जानकारी दी जाती थी। कुछ ही समय में गाँव का मिल्क सेंटर लाभ कमाने लगा, जो किसानों की सहकारिता से चलने के कारण उन्हें भी मिलता था। फिर वहाँ अपना शीत गृह बन गया, अपनी बड़ी बिल्डिंग खड़ी हो गई, कम्प्यूटर लग गए।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा उत्कृष्टता का अवार्ड भी हमारे गाँव की डेयरी को मिला। आज के दौर में हर महीने तीस लाख रुपए किसानों को वितरित किए जाते हैं, यानी हर दिन एक लाख की दूध खरीदी जाती है। मैंने अपने गाँव और आस-पास के गाँवों को बिना किसी सरकारी सहायता के ऊपर उठते देखा है। किसानों की संस्था, किसानों का उत्पाद, पारदर्शिता के साथ काम और किसानों तक लाभ पहुँचना।

बात MSP की

एक तरफ, जहाँ अमूल द्वारा लाई गई क्रांति ने इसी देश में और भी सफल कंपनियों को जन्म दिया, स्वयं भी वैश्विक स्तर पर एक सफल कंपनी बनी, वहीं दूसरी तरफ हर स्तर पर सरकारी सहयोग मिलने वाली कृषि की हालत क्या है, वह किसी से छुपा नहीं। MSP की अवधारणा एक तय समय के लिए होना चाहिए थी, ताकि जब भारत आत्मनिर्भर हो जाए, तब किसान खुले बाजार में अपने उत्पाद बेच सकें और सरकार का मुँह न ताकें।

लेकिन, जैसा कि हर वोट बैंक के साथ होता है, आरक्षण की तरह ही यह नीति अपना लक्ष्य पूरा करने के बाद भी चलती रही। MSP देने का मतलब है कि आप बाजार के चलन में एक रुकावट या बदलाव लाना चाहते हैं। जैसे कि सड़क में अगर आप, एक जगह गड्ढा होने पर, या उसके टूट जाने पर, एक सहायक व्यवस्था बनाते हैं कि लोग किसी तरह लक्ष्य तक पहुँचें, लेकिन टूटी सड़क को भी सुधारने का काम करते रहते हैं, वैसे ही सरकार को यही करना चाहिए था, लेकिन सरकार ने दो सड़कें बना दीं।

आवश्यकता एक सड़क के सही तरह से काम करने की थी, आपने दो बना दिए, तो जाहिर है कि दो में से एक रास्ता लम्बा होगा, दोनों का रखरखाव करने में ज्यादा संसाधन जाएँगे और किसी को यह समझ में आ गया कि रास्ता तोड़ने पर उसकी घर की तरफ से भी सरकार वैकल्पिक रास्ता बना सकती है, तो वो जेसीबी ले कर मुख्य सड़क को तोड़ने पहुँच सकता है।

MSP के कारण कुछ ऐसा ही हुआ। अनाज की उपज कम थी, सरकार ने प्रोत्साहित किया ताकि वो अपने गोदाम भर सके, और समय पड़ने पर बाजार में अनाज की आपूर्ति कर सके। उदाहरण के लिए शुरू में आवश्यकता सौ टन की थी, और यहाँ सिर्फ 80 टन ही पैदावार हो रही थी। लेकिन इस पैदावार का मूल्य किसान तय करता था। अब सरकार ने कहा कि उसे 20 टन और चाहिए, तथा जो भी उपजाएगा उसे बिजली, खाद और सिंचाई में आर्थिक छूट के साथ, उसका अनाज खरीदने में भी मदद देगी।

इस चक्कर में उपजने लगा 120 टन। सरकार ने तो कहा था कि वो मदद देगी, लेकिन अब इस अतिरिक्त अनाज का सरकार क्या करेगी? या तो कम दाम में बेचेगी, या गरीबों वाली किसी योजना में इसे अडजस्ट करेगी, या फिर वैश्विक बाजार में निर्यात करेगी। इसके साथ दूसरी समस्या यह है कि अतिरिक्त पैदावार वाले अनाज एक ही गुणवत्ता के हों, यह भी संभव नहीं, लेकिन आपने न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की है, तो किसान कहेंगे कि ‘सरकार ने कहा था उपजाओ, अब हम कहाँ बेचें, हमें तो इतना पैसा मिलना ही चाहिए।’

अब सरकार के पास दो तरह के अनाज हैं, कम गुणवत्ता के और बेहतर गुणवत्ता के। गरीबों को खराब गुणवत्ता का दो, तो मीडिया पीछे पड़ेगी कि पंजाब में जब इतना अच्छा गेहूँ किसानों ने उपजाया तो सरकार ने उसका क्या किया? उसे निर्यात क्यों किया क्योंकि पहला हक तो भारतीय लोगों का है। ये तर्क भी सही है। दूसरी समस्या यह है कि खराब गुणवत्ता के अनाज को आप, निर्यात करेंगे भी तो कोई क्यों लेगा अगर उसके पास बेहतर गुणवत्ता का, आपसे कम दाम पर मिल जाए?

आपसे कम दाम पर बेहतर गुणवत्ता का अनाज किसी देश को इसलिए भी मिलेगा क्योंकि भले ही आपने ‘अपने देश के लोगों का पेट भरने के लिए प्रोत्साहन के तौर पर किसानों को बाजार से अलग मूल्य दिया’, लेकिन वही समस्या किसी और विक्रेता देश की नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि दूसरे देश की लागत भी कम होगी, और गुणवत्ता भी अच्छी, तो आपका अनाज या तो कम दाम में बिकेगा या फिर गोदामों में रखा हुआ सड़ जाएगा।

MSP की व्यवस्था खुले बाजार के नियमों के विरोध में है

बजाय इसके कि किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्नत तकनीक और बीज आदि का सहयोग दिया जाए, जैसा कि अमूल ने किया, सरकार ने उन्हें अपने ऊपर आश्रित हो जाने का भरपूर मौका दिया। इसीलिए, एक जगह जहाँ सरकार ने मछली पकड़ना सिखाया, दूसरी जगह मछली पका कर देती रही। इस कहानी की नैतिक शिक्षा सबको पता है कि मछली पकड़ने वाला न सिर्फ अपनी भूख मिटा सकेगा, बल्कि वो ज्यादा पकड़ कर व्यापार भी कर पाएगा। वहीं, मछली खाने वाले के जीवन में जीभ के स्वाद के अलावा कुछ भी नहीं रहेगा।

बाजार का सीधा नियम है कि वह ‘माँग और आपूर्ति’ से चलता है, और उपभोक्ताओं के लिए मूल्य भी वहीं से तय होते हैं। बाजार के विधान में अगर सरकार हस्तक्षेप कर रही हो, तो उसके लिए कोई आपातस्थिति होनी चाहिए। जैसे कि कोविड के समय में सरकार ने अस्पतालों, बीमा कंपनियों और दवाई विक्रेताओं के लिए विशेष निर्देश तय किए क्योंकि यह महामारी का दौर है।

सत्तर के दशक में एक आपातस्थिति थी क्योंकि हमारे पास भूमि होते हुए भी पैदावार बहुत कम थी। इसलिए सरकार ने MSP के जरिए बाजार व्यवस्था में हस्तक्षेप किया। जब हम अनाज के मामले में माँग से ज्यादा पैदा करने लगे, तो जाहिर सी बात है कि मूल्य नीचे ही जाएगा। जब यह मूल्य नीचे जाने लगा, तो उन किसानों को सबसे ज्यादा समस्या हुई जो सरकार से हमेशा एक निश्चित मूल्य पाते थे, और सब्सिडी की बात तो ऊपर से थी ही।

दूसरी बात, सरकार अपने पास रखने के लिए तो अनाज खरीदती नहीं, वो तो उन इलाकों में भेजी जाएगी, जहाँ उसकी आवश्यकता है, लेकिन पैदावार नहीं। इसीलिए, सरकार ने इन अनाजों को (और अन्य कृषि उत्पादों को) ‘एसेंशियल कमोडिटी’ कह कर वर्गीकृत कर रखा था कि ये आवश्यक वस्तुएँ हैं, जिनका भंडारण हर कोई नहीं कर सकता। क्योंकि कहीं इसकी माँग हो, और किसी दूसरे राज्य में दस व्यापारियों ने मूल्य बढ़ाने के लिए उसकी आपूर्ति कम कर दी, तो समस्या हो जाएगी। अब पैदावार इतनी ज्यादा है कि इन वस्तुओं के भंडारण से सरकार को कोई आपत्ति नहीं, फिर भी अगर कोई व्यक्ति बाजारों को नियंत्रित या प्रभावित करने के लिए इस तरह का कार्य करता है, तो उसके लिए अलग कानून की भी व्यवस्था है।

इसके साथ ही, एक और विमा (आयाम) यह भी है कि मैं किसको बेचूँ या किससे खरीदूँ, यह सरकार तय नहीं कर सकती। यह मेरे व्यापार करने के मौलिक अधिकार के विरोध में है। दो लोग अपनी वस्तु को चाहे जिस मूल्य पर खरीदें या बेचें, इसमें सरकार को तीसरी पार्टी बनने की आवश्यकता नहीं है। अगर वह ऐसा करती है तो पूरी अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।

MSP की गारंटी क्यों नहीं दी जा सकती

यही कारण है कि सरकार MSP की गारंटी नहीं दे सकती। सरकार के पास भंडारण की क्षमता तो रहने दीजिए, अनाजों को खरीदने से ले कर गोदाम तक पहुँचाने में सही तकनीक नहीं है कि अनाज की बर्बादी रोकी जा सके। यही कारण है कि स्टेशनों के प्लेटफॉर्म हों या फिर आपके इलाके के FCI गोदाम, बोरियों से गिरते अनाज, चूहे, नालियाँ और सड़ते दानों का दृश्य प्रायः देखने को मिल ही जाता है।

ऐसे में, सरकार अगर MSP पर खरीदने की गारंटी देने लगे, तो फिर उतना अनाज वो रखेगी कहाँ? और, अगर सरकार स्वयं न खरीद सके, तो फिर कोई भी व्यापारी ज्यादा दाम में उसे क्यों खरीदेगा? आप ही सोचिए कि अगर आपके गाँव में गेहूँ 100 क्विंटल उपजा, खपत 70 की है, लागत प्रति क्विंटल ₹1000 की है, और MSP 1500 की, बगल के गाँव में भी सही पैदावार हो गई है, तो MSP पर खरीद कर व्यापारी बेचेगा कहाँ?

आपके पास खाने के लिए है, 30 क्विंटल अतिरिक्त है, बगल के गाँवों में आपने पता कर लिया कि पैदावार अच्छी है तो कहीं भी 1200 से ज्यादा मूल्य नहीं मिल रहा, फिर कोई भी व्यापारी आपको ज्यादा मूल्य क्यों देगा? सरकार ने कह दिया कि उसका तो भंडार भर गया है, और कानून बना दिया गया कि किसानों से जो भी गेहूँ खरीदेगा ₹1500 की ही दर से खरीदना होगा। ऐसे में आपको बेचना भी है, किसी को आपने राजी कर लिया कि वो बाजार के दर, यानी 1200 पर ही ले ले। बाद में आप ही ने उस पर केस कर दिया कि उसने कानून तोड़ा है तो व्यापारी क्या करेगा?

व्यापारी फिर गेहूँ खरीदना बंद कर देगा और कहीं और पैसा लगाएगा। इसलिए, एक सीमा के बाद सरकार बाजार के मूल्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। वैसे भी, न्यूनतम समर्थन राशि का मतलब यह नहीं है कि उतना मिलना ही चाहिए, बल्कि वह एक ऐसी संख्या है जिसके आस-पास लेन-देन होने की संभावना हो। इस संभावना से ऊपर उठने के लिए बाजार की आधारभूत बात, माँग और आपूर्ति (डिमांड और सप्लाय), केन्द्र में आती है। उपज ज्यादा होने पर सबके पास सामान है बेचने के लिए, और उसी कारण से उसकी माँग भी कम है, ऐसे में कोई जबरन ज्यादा मूल्य क्यों देगा?

मान लेते हैं कि सारी खरीद सरकार ने या फिर निजी संस्थाओं और व्यापारियों ने MSP के दर पर कर ली। अब यही गेहूँ या धान, आटा या चावल बनेंगे। उसके बाद इसके अन्य प्रोसेस्ड उत्पाद बनेंगे। चूँकि किसी की लागत ज्यादा है, तो आटे का मूल्य स्वतः बढ़ेगा, चावल और महँगा होगा। इनसे बनने वाली चीजें, जो हम और आप रेस्तराँ में खाते हैं, चिप्स आदि के रूप में खरीदते हैं, सबका मूल्य बढ़ेगा। इस कृत्रिम महँगाई को कैसे नियंत्रण में लाया जाएगा?

आप कहेंगे कि सरकार लाएगी। लेकिन सरकार भी तो हमारे ही पैसे लगाएगी। नब्बे प्रतिशत जनसंख्या जिस देश में या तो गरीब है, या बहुत ज्यादा गरीब है, वो क्या इस मूल्य पर आटा-चावल खरीद सकेगी? उनके लिए फिर सरकार को ही सब्सिडी या लाल कार्ड जैसी सुविधा देनी होगी। इस सब्सिडी के लिए बजट में प्रावधान करने होंगे। इस प्रावधान के कारण आपका फिस्कल डेफिसिट यानी वित्तीय घाटा और बढ़ेगा क्योंकि भारत बजट सरप्लस देश तो है नहीं कि तेल बेच कर घाटा कम कर लेगा।

साथ ही, ज्योंही आपके राष्ट्र में पैदावार का मूल्य वैश्विक बाजारों से ज्यादा होगा, यहीं के किसान निर्यात करने में कठिनाई में होंगे क्योंकि उनसे कम दाम पर कोई और सामान बेच रहा होगा। भारतीय कृषि उत्पादों का निर्यात, भारत के पूरे निर्यात में 11% है। यह एक बड़ा प्रतिशत है और इसका सीधा प्रभाव फोरेक्स रिजर्व पर पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि MSP की गारंटी से महँगाई बढ़ेगी, निर्यात पर असर पड़ेगा, छोटे किसानों के उत्पाद गारंटी कानून के कारण घरों में सड़ जाएँगे, और भारत की अर्थव्यवस्था इससे हिल जाएगी।

अमूल सफल कैसे हुआ और MSP नाकाम कैसे हुई

अमूल की सफलता यही है कि उसने अपने तकनीकों में हमेशा सुधार किया। अगर गर्मियों में गाँव से दूध ले जाते समय रास्ते में फट जाता था, तो उसके लिए गाँवों में ही ‘शीत गृह’ बनवा दिए। गायों को बीमारी होगी, हर साल गर्भाधान कराया जाएगा, रोगों से बचाने के लिए दवाइयाँ दी जाएँगी, इसलिए स्थानीय स्तर पर मवेशी डॉक्टरों की व्यवस्था की। हरा चारा हर समय उपलब्ध नहीं हो पाएगा, अतः दाना, सरसों/तिलहन की खल्ली, मिक्सचर आदि की व्यवस्था भी कराई गई।

अमूल ने समय के साथ स्वयं को बदला और पालसन जैसी विदेशी संस्थाओं को यहाँ से भगाया। अमूल ने न तो विदेश से मवेशीपालक मँगवाए, न ही उनकी मार्केटिंग तकनीक अपनाई, न ही सरकार से हस्तक्षेप की माँग की, बल्कि लगातार तकनीकी संवर्धन और दुग्ध उत्पादकों को केन्द्र में रख कर नीतियाँ बनाईं, और न सिर्फ स्वयं एक कम्पनी के रूप सफल हुए बल्कि देश में डेयरी व्यवसाय में कई कम्पनियों के सामने एक आदर्श भी स्थापित किया।

वहीं, MSP एक वैकल्पिक व्यवस्था थी जिसे समय के साथ खत्म हो जाना चाहिए था। सरकार ने न सिर्फ MSP को बढ़ावा दिया बल्कि कुछ अनाज, आलू, प्याज, तिलहन और दलहन के भंडारण पर भी नियंत्रण रखा। इसका कुप्रभाव यह हुआ कि आपूर्ति की मात्रा छूने के बाद, सरकार के पास न सिर्फ भंडारण में समस्या आने लगी, बल्कि MSP की व्यवस्था के बाद भी, राजनैतिक मुद्दा यह बन गया कि किसानों को उसकी उपज के पैसे नहीं मिल रहे।

दूसरी बात यह है कि सरकार कुल 23 कृषि उत्पादों पर MSP जारी करती है जिसमें सात अनाज, पाँच दाल, सात तिलहन और चार व्यावसायिक फसलें हैं। फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) और राज्य सरकारें मंडियों के द्वारा किसानों से उनकी पैदावार खरीदती है। लेकिन आश्यर्चजनक बात यह कि सारे राज्यों को किसान अपनी सारी उपज या आनुपातिक उपज इन संस्थाओं को नहीं बेच पाते।

उदाहरण के लिए जहाँ पंजाब ने पूरे भारत के गेहूँ की सरकारी खरीद में 33% का योगदान देते हुए कुल 127 लाख मैट्रिक टन बेचा, वहीं बिहार ने महज 10,000 मैट्रिक टन का योगदान दिया। यह योगदान लगभग 0.02% के आस-पास आता है। अब बात यह है कि क्या बिहार का किसान उपेक्षित नहीं है? या फिर पंजाब के किसानों के गेहूँ की गुणवत्ता अच्छी है, और वहाँ उपज ज्यादा है? या, उनके यहाँ से FCI और मंडियों की तालमेल अच्छी है?

किसानों को सरकारों ने MSP के चक्कर में कुछ खास फसलों को ही उपजाने को प्रोत्साहित कर दिया है, जिससे उनका ध्यान वहाँ से अलग नहीं हो पाता। साथ ही, सरकार ने अपना लक्ष्य हासिल करने के बाद भी MSP को निरंतर बनाए रखा, और लोगों को दूसरी फसलों या वैकल्पिक व्यवस्थाओं की तरफ मोड़ने के भी उपाय नहीं किए। मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, इंटीग्रेटेड फार्मिंग, ऑर्गेनिक फार्मिंग की तकनीकों के बारे में दस गाँव में एक व्यक्ति मिलता है जिसे कुछ पता हो।

अमूल ने तकनीक को अपने ही स्तर से गाँव तक पहुँचाया, यहाँ सरकारों ने कृषि के क्षेत्र में हो रहे अनुसंधानों को किसानों तक नहीं पहुँचाया। अमूल ने दूध से मक्खन, घी, पेड़ा, छाछ, मसाला छाछ, आइसक्रीम, चॉकलेट आदि के बाजारों में पैठ बनाई, MSP वाला किसान तब भी गेहूँ उपजा रहा था, आज भी वही कर रहा है। फूड प्रोसेसिंग की छोटी ईकाईयों के लगाने की बात हाल में शुरु भी हुई है, लेकिन पहले तो किसान की लोन माफी के अलावा सरकारों को कुछ सूझता ही नहीं था।

लोन माफी हो या फिर MSP की बात, ये लम्बे समय के लिए असफल योजनाएँ हैं। इससे वोट बैंक बना रह सकता है, लेकिन किसानों की जीवनशैली नहीं सुधरने वाली। किसानों के बैंक अकाउंट में रोपाई की शुरुआत में कुछ पैसे भेजना एक बेहतर विकल्प है क्योंकि किसान उससे बीज आदि खरीद सकता है, जिसके लिए उसे कहीं और से ऋण लेना पड़ता है। फसल बीमा योजना भी सही शुरुआत है लेकिन मैंने जहाँ भी किसानों से बात की है, उसकी असफलता के किस्से ज्यादा मिले हैं।

सरकारों को ‘इनेब्लर’, यानी संबल की भूमिका निभानी चाहिए न कि वैसे पिता की जिसके स्नेह के चक्कर में बच्चा इतना चॉकलेट खाता है कि उसके सारे दाँत झड़ जाते हैं, और फिर नए दाँत बनवाने में और भी पैसे लगते हैं, पारिवारिक दर्द सहना पड़ता है, वो अलग। रोपाई से पहले सहायता पहुँचाना छोटे किसानों को सक्षम बनाना है, न कि यह सुनिश्चित करना कि रोपने के भी पैसे हम देंगे और कोई नहीं खरीदेगा तो हम खरीदेंगे। यहाँ सरकार पैसे दे रही है, न कि यह कह रही है कि इस पैसे का गेहूँ रोप लो, बाद में हम ले लेंगे।

बदलते समय के साथ कृषि क्षेत्र में जिन सुधारों की आवश्यकता है, उसमें से MSP की गारंटी एक नहीं है। यहाँ उच्च तकनीक, बाजार की माँग के अनुपात में (और उसकी माँग की विविधता में कि बस तीन ही चीजों की खेती न कर रहे हों) खेती करना, स्थानीय स्तर पर भंडारण और प्रोसेसिंग की लघु ईकाईयों का निर्माण करना, आपदाओं की स्थिति में किसानों की आर्थिक सहायता करना आदि वो बिन्दु हैं जिन पर सरकारों को आगे बढ़ना चाहिए।

सरकार बाजार को नियंत्रित नहीं कर सकती क्योंकि बाजार खुला हुआ है। बाजार अपने मूल्य तय करेगा, अपनी गुणवत्ता सुनिश्चित करेगा ताकि प्रतिस्पर्धा बढ़े, लोग यह समझें कि किस फसल की खेती में किस तरह के लाभ हैं, सरकारों से नई तकनीक सीखने की सहायता माँगे। अन्यथा, हम उसी वृत्त में घूमते रह जाएँगे जहाँ भले ही मिथिला क्षेत्र में मछली की माँग बहुत है, बिहार में तालाब के लिए जमीन भी बहुत है, लेकिन वहाँ का किसान गेहूँ उपजा कर कम दाम पर बेचता रहता है, लेकिन अपने खेत में तालाब नहीं खोदता कि मत्स्य पालन कर सके, और मछली आंध्र प्रदेश की खाता है।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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