Saturday, April 27, 2024
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किसानों को MSP से भी ज्यादा कीमत… लेकिन ‘गैंग’ बना रहा भय का माहौल, कर रहा खेतिहरों का नुकसान

अगर किसान दोषी तो उससे सिर्फ उतना ही पैसा लिया जाएगा, जो उस पर देय होगा। लेकिन अगर व्यापारी दोषी तो उस पर 50% तक अधिक जुर्माना वसूला जा सकता है। अगर किसान की फ़सल बाढ़, आग या किसी भी प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो जाती है, तो उस पर कोई कार्यवाही नहीं होगी और ना ही पैसों की उगाही होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार किसानों से जुड़े तीन अध्यादेश जून 2020 में लेकर आई, जिन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है। कृषि उपज, वाणिज्य और व्यापार (संवर्धन व सुविधा) अध्यादेश, दूसरा मूल्य आश्वासन एवं कृषि समझौता अध्यादेश और तीसरा आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश।

पहला अध्यादेश किसानों को मंडी व्यवस्था से अलग फसल बेचने की वैकल्पिक व्यवस्था देगी। जिसकी माँग लंबे अर्से से किसान संगठन कर रहे थे। किसानों की माँग थी कि उन्हें अपनी फसल अपनी मर्जी के भाव बेचने की आजादी मिलनी चाहिए। दूसरे में किसान कम्पनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट कर सकेंगे। ताकि मुनाफा देने वाली फसलों की खेती की जा सके और तीसरे में खेती उत्पादों के 1955 के एक्ट को सुधारा गया है। जिसमें खेती उत्पाद को संग्रह नहीं करने के कठोर नियम थे, उनमें छूट दी गई है। हालाँकि इस छूट लेकर जमाखोरी और कालाबाजारी की चिंता जाहिर की जा रही है।

दरअसल खेती में सबसे ज्यादा मुश्किल उसकी मार्केटिंग में आती है। खेत में कुछ भी उगाना उतना मुश्किल नहीं होता। मुश्किल होता है, उस फसल का बढ़िया दाम मिलना। दाम नहीं मिलने की स्थिति में किसान अपनी फसलों को विरोध स्वरूप सड़कों तक पर डाल देते थे।

इस बढ़िया दाम को लेकर राजनीति ज्यादा होती रही है, दामों की असल चिंता कम होती है। या यूँ कह सकते हैं कि किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम कैसे मिल सकता है, इसको लेकर गंभीरता से विचार-विमर्श कम होता है। खैर, इन अध्यादेशों से एक उम्मीद बढ़ी है कि खेती उत्पादों के बिक्री और खरीद में इजाफा होगा और किसानों की खुशहाली का रास्ता खुलेगा।

इन अध्यादेशों का विरोध करने वालों का आरोप है कि ये तीनों अध्यादेश मंडी व्यवस्था को खत्म कर देंगे। पर तीनों अध्यादेश पढ़कर ऐसा कहीं से नहीं लगता। उनकी इस शंका का कोई ठोस आधार नजर नहीं आता, बल्कि विरोध तथ्यात्मक होने के बजाय विचाराधारा से प्रेरित नजर आ रहा है।

दूसरे जब मंडी व्यवस्था जारी रहेगी तो MSP का सवाल भी बेमानी लगता है, क्योंकि मंडी व्यवस्था में एमएसपी ऐसे ही लागू रहेगा। हैरानी इस बात से होती है कि जो संगठन अब तक मंडी व्यवस्था को शोषण का केंद्र मानती थी, वही संगठन अब मंडी व्यवस्था के गुणगान में लगे हुए हैं।

कुछ जगह यह भी विरोध उभरकर सामने आया है कि कंपनियाँ किसानों को बढ़िया कीमत देने से मुकर जाएँगी। जबकि अध्यादेश में साफ है कि सभी कमिटमेंट (समझौते) लिखित रूप में होंगे। जिसका उद्देश्य यह है कि किसान अपने कृषि उत्पादों को स्पॉन्सर्स को आसानी से बेच सकें।

स्पॉन्सर में व्यक्ति, पार्टनरशिप फर्म्स, कंपनियाँ, लिमिटेड लायबिलिटी ग्रुप्स और सोसाइटियाँ कोई भी शामिल हो सकते हैं। ये समझौते निम्नलिखित के बीच हो सकते हैं:

1. किसान और स्पॉन्सर

2. किसान, स्पॉन्सर और तीसरा पक्ष

तीसरे पक्ष में एग्रीगेटर भी शामिल हैं। जबकि एग्रीगेटर वे होते हैं, जो एग्रीगेशन से संबंधित सेवाएँ प्रदान करने के लिए किसान और स्पॉन्सर के बीच बिचौलिए का काम करते हैं। राज्य सरकार कृषि समझौते की इलेक्ट्रॉनिक रजिस्ट्री के लिए एक रजिस्ट्रेशन अथॉरिटी स्थापित करेगी।

कृषि समझौते में उनकी भूमिका और सेवाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख होगा। समझौते में दोनों पक्ष मिलकर कृषि उत्पाद की सप्लाई, गुणवत्ता, मानदंड और मूल्य से संबंधित नियमों और शर्तों तथा कृषि सेवाओं की सप्लाई से संबंधित नियमों का उल्लेख कर सकते हैं।

ये नियम और शर्तें खेती और पालन की प्रक्रिया के दौरान, या डिलीवरी के समय निरीक्षण और सर्टिफिकेशन का विषय हो सकते हैं। ये समझौता एक फसल से लेकर अधिकतम पाँच साल के लिए होगा।

एक चिंता यह भी जताई जा रही है कि कंपनियाँ या खरीदार खरीदते वक्त किसानों से पहले से तय मूल्य देने से मुकर सकते हैं। जबकि इसमें साफ है कि मूल्य पहले से निर्धारित होंगे और लिखित में होंगे। मूल्य में बदलाव की स्थिति में समझौते में निम्नलिखित चीजें शामिल होनी चाहिए:

1. ऐसे उत्पाद के लिए गारंटीशुदा मूल्य

2. गारंटीशुदा मूल्य के अतिरिक्त राशि, जैसे बोनस या प्रीमियम का स्पष्ट संदर्भ

यह संदर्भ मौजूदा मूल्यों या दूसरे निर्धारित मूल्यों से संबंधित हो सकता है। गारंटीशुदा मूल्य सहित किसी अन्य मूल्य के निर्धारण के तरीके और अतिरिक्त राशि का उल्लेख भी कृषि समझैते में होगा।

सबसे बड़ी चिंता यह जाहिर की जा रही है कि किसान कोर्ट में अपना केस नहीं ले जा सकते, जबकि किसान और कंपनियाँ दोनों ही के बीच उठे विवाद को निपटाने के लिए एक प्रक्रिया जरूर निर्धारित की गई है। विवाद निपटारे के लिए कन्सीलिएशन बोर्ड और सुलह की प्रक्रिया के लिए कृषि समझौता प्रदान किया है।

अगर तीस दिनों में बोर्ड विवाद का निपटारा नहीं कर पाता, तो पक्ष समाधान के लिए सब डिविजनल मेजिस्ट्रेट (SDM) से संपर्क कर सकते हैं। उनके पास यह अधिकार होगा कि मेजिस्ट्रेट के फैसले के खिलाफ अपीलीय अथॉरिटी (कलेक्टर या एडिशनल कलेक्टड की अध्यक्षता वाली) में अपील कर सकते हैं।

मेजिस्ट्रेट और अपीलीय अथॉरिटी को आवेदन प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर विवाद का निपटारा करना होगा। मेजिस्ट्रेट या अपीलीय अथॉरिटी समझौते का उल्लंघन करने वाले पक्ष पर जुर्माना लगा सकते हैं। हालाँकि किसी बकाए की वसूली के लिए किसान की खेती की जमीन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।

बाकी फिलहाल तो अध्यादेश किसान और कंपनियों दोनों के लिए फायदे का ही सौदा लग रहा है। बाकी अमल में आने के बाद की समस्याओं को लेकर अभी से भय खड़ा करना किसानों को डरा सकता है। जिसके कारण किसान इस दिशा में आगे बढ़ने से पीछे हट सकते हैं। इसलिए किसानों के भीतर भय का माहौल बनाकर किसानों का नुकसान नहीं करना चाहिए।

खेती में उत्पादन की अधिकता ने इसके अर्थशास्त्र को बिगाड़ा हुआ है। विविधता इसमें अप्रत्याशित सुधार ला सकती है। मंडी व्यवस्था इसे ऑपन मार्केट बनाने में बड़ी बाधक थी, जिसे अध्यादेश के जरिए वैकल्पिक बनाया गया है।

अब यह किसान पर निर्भर करता है कि वह मंडी में सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर बेचते हैं या खुले बाजार में बेहतर भाव पर बेचते हैं। उसके सामने ये दो विकल्प खुल गए हैं। दूसरा वैकल्पिक व्यवस्था से सरकार के बजट पर अतिरिक्त बोझ कम होगा और जो युवा खेती से जुड़े क्षेत्रों में बिजनेस करना चाहते हैं, उनके लिए अपार संभावनाएँ खुलेंगी।

छोटे और मझले किसान खेती में रिस्क लेने की हालत में नहीं होते और न उनके पास ज्यादा बजट की खेती करने के लिए बजट होता है। ऐसे में कंपनियाँ रिस्क उठाने और पैसा लगाने में नहीं हिचकेंगी। एक सवाल यह आ रहा है कि किसान तो पहले भी मंडी से बाहर बेच देते थे। अब क्या बदल जाएगा? पहले किसान व्यक्तिगत तौर पर बेच देते थे, पर कंपनियाँ कानूनी तौर पर खरीद सकेंगी और उन्हें मार्केट में अपने अनुसार उतार सकेंगी। संग्रह कर सकेंगी। जिसकी कानूनी मान्यता अब मिली है। जो मंडी व्यवस्था उन्हें देती थी।

The Farmers (Empowerment and protection) agreement on price Assurance and Farm services ordinance, 2020

यह अध्यादेश मूलतः किसानों और व्यापारियों के बीच कृषि उत्पादों के व्यापार को लेकर बनाया गया है, क्योंकि खेती में उत्पादन से बड़ी समस्या इसकी मार्केटिंग में आती है। इस अध्यादेशों से जुड़े उन बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे, जिन्हें लेकर किसानों में अनर्गल भय का वातावरण क्रिएट किया जा रहा है। इसे आप पहले जो ‘भय का माहौल’ है कहा जाता है, का अगला चरण भी कह सकते हैं।

तथाकथित विद्वानों द्वारा कहा जा रहा है कि इससे केवल व्यापारियों का फायदा होगा और किसान तो केवल मजदूर भर बनकर रह जाएँगे। जबकि अध्यादेश का सेक्शन 3.3 के अनुसार, “इस लिखित समझौते की अवधि एक फसल चक्र से लेकर अधिक से अधिक 5 साल तक ही हो सकती है।” सेक्शन 4 के मुताबिक- दोनो पार्टी यानी किसान और व्यापारी आपस में मिलकर समझौते का पत्र तैयार करेंगे।

जिसमें हर चीज़ के बारे में साफ-साफ उत्पाद की क्वालिटी, ग्रेड और स्टैंर्ड के बारे में लिखा होगा। जहाँ समझौता होगा। वहाँ की मिट्टी व मौसम आदि को ध्यान में रखकर ही समझौते होंगे। इसमें सरकार या सरकारी एजेंसी की मदद ली जा सकती है। इस समझौते में दोनों पार्टी कौन-से पेस्टिसाइड का प्रयोग करेंगे और उनकी क्या मात्रा व गुणवत्ता होगी, सुरक्षा क्या होगी। ये सभी लिखित रूप में होंगे।

दोनो पार्टियाँ आपस में मिलकर किसी भी तीसरी पार्टी से बुआई से लेकर फसल पकने तक और बीच-बीच में मुआयना करवा सकती हैं। फसल पकने के बाद व्यापारी फसल की डिलीवरी के लिए बाध्य होगा।

एक बात जो बहुत जोर देकर विरोध में कही जा रही है कि कंपनियाँ फसल पकने के बाद किसान को कम दाम देने के लिए बाध्य करेंगी और इस तरह किसान का शोषण होगा। जबकि फसल का क्या भाव होगा, ये सब पहले से ही लिखित रूप में होगा।

जैसे ही उत्पाद व्यापारी के पास पहुँचेगा, उसी समय भुगतान पूरा हो जाएगा। अगर बीज-उत्पाद के लिए अगर समझौता हुआ है तो 2/3rd भुगतान डिलीवरी के टाइम और बाकी 1/3rd 30 दिन के अंदर-अंदर होगा। किसान पर स्टॉक लिमिट का कोई कानून लागू नहीं होगा। सिर्फ उन फसलों पर जिन पर समझौता किया गया है।

इसी अध्यादेश के सेक्शन 8 के अनुसार- “फसल समझौते के सिवाय, किसान और व्यापारी में किसान की जमीन की खरीद-फरोख्त, लिज या गिरवी जैसा कोई और समझौता नहीं हो सकता। व्यापारी संस्था किसान की जमीन पर कोई भी ढाँचा या कुछ भी ऐसा चेंज नहीं कर सकती, जिसे समझौता खत्म होने पर ठीक ना किया जा सके। ये व्यापारी की जिम्मेदारी होगी कि जैसी जमीन उसे मिली उसी अवस्था मे उसे वापस करे।”

सेक्शन 11 के अनुसार- किसान और व्यापारी किसी भी समय आंतरिक समझौते को रद्द कर सकते हैं।

सेक्शन 14 के अनुसार: कोई भी विवाद सबसे पहले एसडीएम के द्वारा बनाई गई कमिटी करेगी, जिसे यह विवाद 30 दिन में खत्म करना होगा।

अगर किसान दोषी मिलता है, तो उससे सिर्फ उतना ही पैसा लिया जाएगा, जो उस पर देय होगा। लेकिन अगर व्यापारी दोषी मिलता है तो उस पर 50% तक अधिक जुर्माना वसूला जा सकता है। इसके साथ-साथ अगर व्यापारी चालाकी से अध्यादेश से अलग नियमों पर समझौता करता है तो किसान से किसी तरह की भी उगाही नहीं होगी। इसके अलावा अगर किसान की फ़सल बाढ़, आग या किसी भी प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो जाती है, तो समझौते के तहत उस पर कोई कार्यवाही नहीं होगी और ना ही पैसों की उगाही होगी।

सेक्शन 15 के अनुसार- अगर किसान डिफॉल्टर होता है और समझौते की शर्तें पूरी नहीं करता, तब भी किसी भी सिचुएशन में किसान की जमीन से उगाही नहीं हो सकती। यानी जमीन किसान की ही रहनी है।

इस अध्यादेश को किन नियमों व रेगुलशन के तहत चलाएँगे, यह सरकार लोकसभा और राज्यसभा में विचार-विमर्श करने के बाद तय करेंगे।

The farmers produce trade and commerce (promotion and facilitation) ordinance, 2020

मुख्य तौर पर यह अध्यादेश पहले वाले अध्यादेश का ही एक हिस्सा है। इसका जो मुख्य मकसद है “एक देश एक मार्केट”

इसके तहत कोई भी किसान अपनी फसल अपने प्रदेश में या दूसरे प्रदेश में बेच सकता है। उसी तरीके से कोई भी व्यापारी अपने प्रदेश के किसानों से या दूसरे प्रदेश के किसानों से व्यापार कर सकता है। इसे राज्य से बाहर और राज्य के भीतर किसान-व्यापारी समझौता कह सकते हैं। ये इस चीज को मद्देनजर रख कर बनाया गया है कि मार्केट में जितनी प्रतिस्पर्धा होगी, अच्छे किसान और अच्छे व्यापारी को उतनी ही अच्छी क़ीमत मिल सकती है।


इस अध्यादेश के सेक्शन 4 के अनुसार– कोई भी व्यापारी या किसान किसी भी प्रदेश के व्यापारी के साथ व्यापार कर सकते हैं। हर वो व्यक्ति जिसके पास PAN कार्ड नम्बर है, वो भी व्यापार कर सकता है। एकाध जगह किसानों के पेन कार्ड को लेकर ही विरोध किया जा रहा है।

सेक्शन 4.3 के अनुसार- जो भी व्यापारी किसान से उसका उत्पाद खरीदेगा, वो डिलीवरी के टाइम पूरा पेमेंट करेगा या फिर अधिक से अधिक 3 दिन के अंदर किसान को पूरा पैसा देना पड़ेगा।

सेक्शन 5 के अनुसार- “कोई भी संगठन, एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसायटी, राज्य के भीतर या राज्य के बाहर या इलैक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग कर सकते हैं। इसके लिए वो क्या प्रोसीजर अपनाएँगे, क्या फीस होगी, कौन-सी तकनीक या सॉफ्टवेयर इस्तेमाल करेंगे, कैसे किसान को पेमेंट करेंगे, किसानों के लिए क्या गाइड लाइन होगी, वो भी साफ-साफ कैसे किसान तक पहुँचेगी, ये सब व्यापारी को पहले से ही तैयार रखना होगा और इस पर सरकार की नजर रहेगी।”

सेक्शन 6 के अनुसार- “जो व्यापारी और किसान (जो अलग-अलग प्रदेश से हैं) व्यापार करेंगे उन पर कोई भी प्रदेश की मार्किट फीस, टैक्स कर वगैरह नहीं लगेगा।”

केंद्रीय सरकार किसानों के लिए एक सेंटरलाइज प्राइस इनफोर्मेशन और मार्किट इनटेलिजेंस सिस्टम बनाएगी, ताकि किसान और व्यापारी के पास अलग-अलग किस्म की फसलों के दामों का ब्यौरा रहे और व्यापार में पारदर्शिता रहे।

किसी भी विवाद का उसी तरह से समाधान होगा जैसा कि पहले वाले अध्यादेश में जिसकी चर्चा की गई है। अगर कोई व्यापारी कानून के तहत नहीं चलता तो उस पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

एसडीम के बाद, केस एग्रीकल्चर मार्किटिंग एडवाइजर से होते हुए, जॉइंट सेक्रेटरी तक जा सकता है। कुल मिला कर किसी भी विवाद का फैसला 30 दिन से 90 दिन (अधिकतम) में देना होगा।

सेक्शन 11 के अनुसार- “जो भी व्यापारी सेक्शन 4 के रूल के तहत काम नहीं करेगा, उस पर 25000-5,00,000 तक जुर्माना किया जा सकता है। उसी तरह जो व्यापारी इलैक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग करेगा और सेक्शन 5 ओर 7 के बनाए नियम को तोड़ेगा, या धोखाधड़ी करेगा, तो उस पर 50,000 से 10 लाख तक जुर्माना हो सकता है। साथ ही साथ व्यापार पर प्रतिबंध भी लग सकता है।”

इस अध्यादेश को किन नियमों और रेगुलेशन के तहत चलाएँगे। इन सभी नियमों को सरकार लोकसभा और राज्यसभा में विचार-विमर्श के बाद तय करेगी।

अगर दोनों अध्यादेशों का सूक्ष्म अध्ययन करने पर एक बात तो साफ है कि इसमें कुछ भी किसान विरोधी नहीं है, बल्कि किसानों के प्रोटेक्शन का विशेष ध्यान रखा गया है। बल्कि सरकार ने किसानों को इन अध्यादेशों के माध्यम से एक वैकल्पिक व्यवस्था मुहैया कराई है। ताकि किसान अपनी फसल मंडी व्यवस्था या ऑपन मार्केट जहाँ मन करे और जहाँ ज्यादा मुनाफा मिले बेच सकता है।

ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले इस तरह की कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग या राज्य के भीतर व बाहर एग्रीकल्चर व्यापार नहीं होता था। बस फर्क यह है कि अबकी बार सरकार सीधे तौर पर किसान और व्यापारी के साथ खड़ी होकर इस व्यवसाय को मोनिटर कर सकेगी। जो प्रगतिशील किसान हैं, जो डिमांड के अनुसार फसलों को पैदा करने में दिलचस्पी लेते हैं। उनको अब कानून के तहत काम करना पड़ेगा और दोनों तरफ के लोगों यानी किसान और व्यापारी दोनों पर पारदर्शिता का दवाब बना रहेगा।

कुछ संगठनों ने यह भी आरोप लगाया है कि इससे एमएसपी खत्म होगा। लेकिन किसी ने भी ये नहीं बताया कि कैसे खत्म होगा? इसलिए उनके कहे में सच कम और राजनीतिक अंध विरोध ज्यादा है। एक तपका यह भी आवाज उठा रहा है कि ऑपन मार्केट से किसानों को उनकी फसल के रेट कम मिलेंगे। जबकि बहुत से किसान प्राइवेट व्यापारियों से व्यापार करेंगे तो सरकार पर आर्थिक बोझ कम होगा। सरकार का अतिरिक्त बोझ कम होगा तो सरकार भी किसानों को बढ़िया रेट (एमएसपी) देने के लिए बाध्य होगी।

हालाँकि इन अध्यादेशों का एमएसपी से सीधा कोई संबंध नहीं है, क्योंकि यह सभी किसानों पर लागू नहीं होगा। जो किसान स्वैच्छिक तौर पर वैकल्पिक व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहते हैं। उनके लिए ही ये अध्यादेश लाए गए हैं। अब यह तो किसानों को तय करना है कि वह अपनी फसल सरकार को बेचता है या व्यापारी या कंपनी को।

दरअसल ये अध्यादेश पारंपरिक तरीके से खेती करने वालों के लिए नहीं बल्कि उन प्रगतिशील किसानों के लिए है, जो जोखिम उठाते हैं और प्रयोगिक खेती के माध्यम से इसे सफल व्यवसाय में बदलने का जुनून रखते हैं। ऐसे किसान अभी तक बिना किसी सरकारी सरंक्षण या ढाल के यह काम कर रहे थे, उन्हें अब सरकारी संरक्षण देने का काम ये अध्यादेश करेंगे।

किसान और व्यापारी के बीच डील में किसानों के ठगे जाने के डर को लेकर भी चिंता व्यक्त की जा रही है। जो कि वाजिब भी हैं। परंतु इन समझौतों में अगर जागरूक संस्थाएँ या गाँव के प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करेंगे तो लिखित समझौतों में किसानों के साथ होने वाले किसी भी प्रकार के छल से उन्हें बचाया जा सकता है।

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डॉ. नवीन रमण
डॉ. नवीन रमण
मीडिया सलाहकार, महिला एवं बाल विकास मंत्री, हरियाणा सरकार

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