Tuesday, September 17, 2024
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अंबेडकर का अपमान नहीं है सिविल कोड को ‘सांप्रदायिक’ कहना, नेहरू से लेकर राहुल गाँधी तक के तुष्टिकरण पर है प्रहार: जानिए क्यों PM मोदी ने बताई UCC की जरूरत

हिंदू कोड पर संसद में बहस के दौरान दौरान जब समान नागरिक संहिता की बात हुई तो भारत के पहले एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा था कि समान नागरिक संहिता के लिए अभी सही समय नहीं आया है, क्योंकि मुस्लिम इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने इस पूरे मुद्दे को देशहित से बढ़कर मुस्लिमों की इच्छा पर डाल दिया था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किला के प्राचीर से समान नागरिक संहिता की जमकर वकालत की। ध्वजारोहण के बाद पीएम मोदी ने कहा कि अब देश की मांग है कि देश में धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता हो। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार इसकी वकालत कर चुका है। जिस समय प्रधानमंत्री यह बात कह रहे थे उस वक्त CJI डीवाई चंद्रचूड़ भी वहाँ मौजूद थे।

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यह सांप्रदायिक नागरिक संहिता है जो लोगों के बीच भेदभाव करती है। देश का एक बड़ा वर्ग यही मानता है। यह लोगों के बीच भेदभाव करती है। उन्होंने कहा कि देश को सांप्रदायिक आधार पर बाँटने और असमानता को बढ़ावा देने वाले कानूनों का आधुनिक समाज में कोई स्थान नहीं है। इस खाई को पाटने के लिए एक धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता अपनाने की जरूरत है।

पीएम मोदी ने कहा, “मैं कहूँगा कि यह समय की माँग है कि भारत में एक धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता होनी चाहिए। हम 75 साल से सांप्रदायिक नागरिक संहिता के साथ जी रहे हैं। अब हमें एक धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता की ओर बढ़ना होगा, तभी धर्म आधारित भेदभाव खत्म होगा। इससे आम लोगों में जो अलगाव की भावना है, वह भी खत्म होगी।”

क्यों किया पीएम मोदी ने UCC का जिक्र

समान नागरिक संहिता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रमुख मुद्दा है। यह मुद्दा उसके चुनावी घोषणा पत्र का अहम हिस्सा है। अपने इस वादे को पूरा करने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी बड़े नेता प्रमुखता से कर चुके हैं। पीएम मोदी के आदेश के बाद उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने इसे प्रदेश में लागू भी कर दिया है। इसके तहत दोनों समुदायों के लिए सिविल मामले में यानी शादी-विवाह, संपत्ति, उत्तराधिकार आदि गैर-आपराधिक मामलों में एक ही कानून होगा।

यह मुद्दा भाजपा के घोषणा पत्र में 1989 से पहले के चुनावी घोषणा पत्रों का हिस्सा नहीं था। हालाँकि, सन 1980 में भाजपा के गठन से पहले जनसंघ था और यह उसके मुद्दे में शामिल था। साल 1986 में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तत्कालीन राजीव गाँधी की सरकार द्वारा पलटने के बाद 1989 के चुनावी घोषणा पत्र में भाजपा ने पहली बार समान नागरिक संहिता को शामिल किया था।

उसमें कहा गया था कि देश में प्रचलित विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों- हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, ईसाई कानून, पारसी कानून आदि की जाँच करने और इन कानूनों में निष्पक्ष एवं न्यायसंगत तत्वों की पहचान करने के लिए एक आयोग की नियुक्ति की जाएगी, ताकि समान नागरिक संहिता के लिए आम सहमति विकसित करने के उद्देश्य से एक मसौदा तैयार किया जा सके।

भाजपा ने अपने दो प्रमुख चुनावी मुद्दे- राम मंदिर को पूरा कर लिया है, जबकि समान नागरिक संहिता उत्तराखंड में लागू करके इसे आंशिक रूप से पूरा कर लिया गया है। हालाँकि, इसे पूरे देश में लागू करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार की ओर से इस पर कानून बनाने को लेकर बहस लगातार चल रही है और भाजपा सरकार के मंत्री समय-समय पर इसकी वकालत कर चुके हैं। अब पीएम मोदी ने लाल किले से इसकी घोषणा कर दी है।

कॉन्ग्रेस सहित विपक्ष का विरोध

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद कॉन्ग्रेस छटपटाने लगी है। कॉन्ग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि प्रधानमंत्री की टिप्पणी भारतीय संविधान के जनक डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का अपमान है। जयराम रमेश ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, “गैर-जैविक प्रधानमंत्री की दुर्भावना, शरारत और इतिहास को बदनाम करने की क्षमता की कोई सीमा नहीं है। आज लाल किले से इसका पूरा प्रदर्शन हुआ।”

जयराम ने आगे कहा, “यह कहना कि हमारे पास अब तक ‘सांप्रदायिक नागरिक संहिता’ है, डॉक्टर अंबेडकर का घोर अपमान है। वे हिंदू व्यक्तिगत कानूनों में सुधारों के सबसे बड़े समर्थक थे। यह सुधार 1950 के दशक के मध्य तक एक वास्तविकता बन गए। इन सुधारों का आरएसएस और जनसंघ ने कड़ा विरोध किया था।”

वहीं, कॉन्ग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा, “वह संविधान की शपथ लेते हैं और फिर बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा लिखे गए नियमों को सांप्रदायिक बताते हैं। वह एक तरह से अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ बोलते हैं और कहते हैं कि पिछली सरकारों के कार्यकाल में आतंकवादी हमले हुए थे। हम जानना चाहते हैं कि उन्होंने बांग्लादेशी हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए हैं?”

क्या है समान नागरिक संहिता?

समान नागरिक संहिता को सरल अर्थों में समझा जाए तो यह एक ऐसा कानून है, जो देश के हर समुदाय पर समुदाय लागू होता है। व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, जाति का हो या समुदाय का हो, उसके लिए एक ही कानून होगा। अंग्रेजों ने आपराधिक और राजस्व से जुड़े कानूनों को भारतीय दंड संहिता 1860 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, विशिष्ट राहत अधिनियम 1877 आदि के माध्यम से सब पर लागू किया, लेकिन शादी, विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति आदि से जुड़े मसलों को सभी धार्मिक समूहों के लिए उनकी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया।

हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं के तहत जारी कानूनों को निरस्त कर हिंदू कोड बिल के जरिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू नाबालिग एवं अभिभावक अधिनियम 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 लागू कर दिया गया। वहीं, मुस्लिमों के लिए उनके पर्सनल लॉ को बना रखा, जिसको लेकर विवाद जारी है। इसकी वजह से न्यायालयों में मुस्लिम आरोपितों या अभियोजकों के मामले में कुरान और इस्लामिक रीति-रिवाजों का हवाला सुनवाई के दौरान देना पड़ता है।

इन्हीं कानूनों को सभी धर्मों के लिए एक समान बनाने की जब माँग होती है तो मुस्लिम इसका विरोध करते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि उनका कानून कुरान और हदीसों पर आधारित है, इसलिए वे इसकी को मानेंगे और उसमें किसी तरह के बदलाव का विरोध करेंगे। इन कानूनों में मुस्लिमों द्वारा चार शादियाँ करने की छूट सबसे बड़ा विवाद की वजह है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी समान नागरिक संहिता का खुलकर विरोध करता रहा है।

UCC को लेकर संविधान और डॉक्टर अंबेडकर

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि देश में एक समान कानून होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी कई मौकों पर समान नागरिक संहिता की वकालत कर चुका है। हालाँकि, भाजपा सरकार और सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक संहिता की वकालत करना संविधान के अनुरूप है। संविधान में समान नागरिक संहिता को लागू करने के बारे में स्पष्ट रूप से कहा गया है। इसके बावजूद कॉन्ग्रेस तुष्टिकरण की राजनीति के कारण इसे मुद्दा बनाती रहती है।

कॉन्ग्रेस कह रही है कि पीएम मोदी का बयान संविधान और डॉक्टर अंबेडकर का अपमान है। हालाँकि, ऐसा नहीं है। 26 जनवरी 1950 को लागू भारतीय संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है। ये निदेशक तत्व, मूल अधिकारों की मूल आत्मा कहे जाते हैं। अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को अनिवार्य बताया गया है।

अनुच्छेद 44 में कहा गया है, “भारत पूरे देश में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास करेगा।” यहाँ बताना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 37 में अनुच्छेद 44 में जैसे नीति निदेशक तत्व कानून की अदालत में अप्रवर्तनीय है, फिर भी देश के शासन में मौलिक है और कानून बनाकर इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य (भारत) का कर्तव्य है।

75 साल पहले बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि समान नागरिक संहिता को ‘विशुद्ध रूप से स्वैच्छिक’ नहीं बनाया जा सकता है। उन्होंने उस दौरान भी अल्पसंख्यक समुदाय के डर और आशंकाओं को देखते हुए यह बात कही थी। आज जब पीएम मोदी लाल किले से इसे लागू करने की बात कर रहे हैं तो कॉन्ग्रेस इसे डॉक्टर अंबेडकर का अपमान बता रही है, जोकि पूरी तरह झूठ है।

पंडित नेहरू ने समान नागरिक संहिता का किया था विरोध

हिंदू कोड पर संसद में बहस के दौरान दौरान जब समान नागरिक संहिता की बात हुई तो भारत के पहले एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा था कि समान नागरिक संहिता के लिए अभी सही समय नहीं आया है, क्योंकि मुस्लिम इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने इस पूरे मुद्दे को देशहित से बढ़कर मुस्लिमों की इच्छा पर डाल दिया था।

पंडित नेहरू ने संसद में समान नागरिक संहिता के बजाए हिंदू कोड बिल का बचाव करते हुए कहा था, “मुझे नहीं लगता कि वर्तमान समय में भारत में इसे लागू करने का समय आया है। जब हिंदू कोड बिल के माध्यम से देश की 80% से अधिक जनता के लिए व्यक्तिगत कानून के तहत लाया जा चुका है तो भारत में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने का कोई औचित्य नहीं है।”

कॉन्ग्रेस का मुस्लिम तुष्टिकरण

आजादी के बाद मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी के भारत में रह जाने के बाद कॉन्ग्रेस ने इसे अपने वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। साल 1954 में हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान समाजवादी नेता जेपी कृपलानी ने पंडित नेहरू की कॉन्ग्रेस सरकार पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि यह सरकार केवल हिंदुओं के लिए कानून ला रही है, मुस्लिमों के लिए नहीं।

भारत के पहले और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी हिंदू कोड बिल का जोरदार विरोध किया था। राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि इस तरह के कानून जनता की राय को ध्यान में रखे बिना एकतरफा और मनमाने ढंग से बनाया जा रहा है। उन्होंने कानून पर हस्ताक्षर करने से भी इनकार करने की धमकी दी। इसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और राष्ट्रपति के बीच टकराव की स्थिति आ गई थी।

इतना ही नहीं, राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कॉन्ग्रेस ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर मुस्लिम तुष्टिकरण की एक नई लकीर खींच दी थी। दरअसल, 59 साल की शाहबानो को को उनके शौहर मोहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक दे दिया था और उन्हें एवं उनके 5 बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया था।

विभिन्न न्यायालयों से होते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने 23 अप्रैल 1985 को मुस्लिम पर्सनल लॉ बॉर्ड के आदेश के खिलाफ जाते हुए शाहबानो के शौहर को आदेश दिया कि वो अपने बच्चों को गुजारा भत्ता दे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत हर महीने मोहम्मद अहमद खान को 179.20 रुपए देने थे।

इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस आदेश में केंद्र सरकार से ‘समान नागरिक संहिता’ की दिशा में आगे बढ़ने भी की अपील की थी। इस पर मुस्लिमम कट्टरपंथियों ने आपत्ति जताई थी। इनके आगे झुकते हुए राजीव गाँधी की सरकार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 सदन में पास कराया था।

सरकार के इस कदम के कारण मुस्लिम महिलाओं का जीवन पहले की तरह ही नारकीय बना रहा। 59 साल की उम्र में जब शाहबानो को तलाक दे दिया और बिना एक पाई के उन्हें उनके पाँच बच्चों के साथ जीने के लिए छोड़ दिया गया था। ऐसे में किसी भी मुस्लिम महिला के लिए उम्मीद के दरवाजे बंद हो गए थे। हालाँकि, मोदी सरकार ने तीन तलाक खत्म किया और UCC की दिशा में आगे बढ़ रही है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ है ‘कम्यूनल सिविल कोड’!

खुद को धर्मनिरपेक्ष और संविधान का सम्मान करने वाला बताने वाला एक वर्ग संविधान के समान नागरिक संहिता के उद्देश्य को नकारना चाहता है। पंडित नेहरू द्वारा मुस्लिम पर्सनल और अन्य धर्मों के लिए हिंदू कोड बनाने को सही मानता है। हालाँकि, एक देश में दो तरह के कानून कभी भी सही नहीं कहे जा सकते, खासकर तब, जब वे एक-दूसरे के ठीक विपरीत हों।

जैसे लड़़कियों के विवाह को ही लें। हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों के लिए लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल निश्चित की गई है। इससे एक दिन पहले भी अगर लड़की की सहमति से कोई पुरूष शारीरिक संबंध बना लेता है तो लड़की को नाबालिग मानते हुए उस पर POCSO के तहत बलात्कार का मुकदमा चलेगा। दूसरी, तरफ मुस्लिम पर्सनल कानून 15 साल की लड़की की निकाह की बात करता है।

मुस्लिमों में चार शादियाँ: मुस्लिम पर्सनल लॉ, जिसे शरिया कानून भी कहा जाता है, इस्लामिक किताब कुरान और हदीसों पर आधार है। कुरान में मुस्लिमों को चार शादियाँ करने को वैध माना गया है। इसके आधार पर मुस्लिम चार निकाह को वैध मानते हैं। वहीं, सामान्य भारतीय कानून के तहत कोई भी व्यक्ति सिर्फ एक शादी कर सकता है। विशेष परिस्थितियों में दूसरी शादी की इजाजत दी जा सकती है।

तलाक एवं गुजारा भत्ता: मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिलाओं को तीन तलाक देने के प्रावधान है। हालांकि, साल 2019 में मोदी सरकार ने इस पर रोक लगा दी है। वहीं, जिस महिला को मुस्लिम तलाक देते हैं, उन्हें गुजारा भत्ता देने का रिवाज नहीं है। वे सिर्फ महर की रकम वापस करते हैं, जो बेहद की कम होता है। वहीं, सामान्य भारतीय तलाक कानून में पति को अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता या एकमुश्त रकम देनी होती है।

तलाक के बाद बच्चे की कस्टडी: हिंदू कानून के मुताबिक माता-पिता के तलाक की स्थिति में बच्चे की कस्टडी हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप ऐक्ट 1956 के तहत निर्धारित होती है। तलाक के वक्त अगर बच्चे की उम्र 5 साल से कम है तो उसे उसके माँ के हवाले किया जाएगा। अगर बच्चा है 9 साल से ऊपर का हो गया है तो वह कोर्ट में बता सकता है कि वह अपनी माँ के साथ जाना चाहता है या अपने पिता के साथ। इसके आधार पर उसे माँ या पिता की कस्टडी में दी जाएगी।

वहीं, मुस्लिम शरिया कानून के तहत बच्चे की उम्र 7 साल होने तक उसकी कस्टडी माँ के पास होती है। अगर माँ उसे रखने या उसका पालन पोषण करने में असमर्थ है तो उस बच्चे की कस्टडी उसके अब्बू को दे सकती है। वहीं, ईसाइयों में कस्टडी को लेकर कोई नियम निर्धारित नहीं है।

संपत्ति में बेटियों का अधिकार: भारत के सामान्य सिविल कानून में बेटियों को अपने पिता एवं पति की संपत्ति में बराबर का अधिकार है। हालाँकि, मुस्लिम पर्सनल कानून में यह अधिकार बेटियों को बराबर नहीं है। शरिया कानून के तहत, पैतृक संपत्ति में पुरुष के अधिकार का आधा महिलाओं का हिस्सा होता है। यानि महिलाओं को बराबर का हिस्सेदार नहीं नहीं माना जाता।

वहीं, ससुराल पक्ष में मुस्लिम महिला का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। उसे निकाह के दौरान मिली मेहर की राशि, मिले उपहार, पिता की तरफ से मिले धन पर ही उसका अधिकार होता है। अगर वह तलाक लेती है तो सिर्फ इन्हीं संपत्तियों को वह शरिया कानून के तहत पाने की अधिकारी है। अगर शौहर चाहे तो अपनी इच्छा के आधार पर उसे कुछ दे सकता है।

उत्तराधिकार कानून: हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 के तहत दत्तक पुत्र को गोद लेने वाले माता-पिता की संपत्ति में एक सामान्य पुत्र की तरह अधिकार होता है। वहीं, मुस्लिम शरिया कानून के तहत ऐसा नहीं है। इस्लाम में गोद लिए गए बच्चों को संपत्ति में अधिकार नहीं होता। दारुल उलूम देवबंद ने भी इस संबंध में फतवा जारी किया था।

शरिया कानून के आधार पर देवबंद ने कहा था कि गोद लिए गए बच्चे का अधिकार असली बच्चे के समान नहीं होगा। उसे संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलेगा और ना ही उसे किसी मामले में वारिस बनाया जा सकता है। इसमें आगे कहा गया है कि सिर्फ गोद ले लेने से वास्तविक बच्चे का अधिकार उस पर लागू नहीं हो जाते। परिपक्व होने के बाद उसे शरिया का पालन करना होगा।

शरिया कानून के अनुसार, दत्तक बच्चे को हिबा (उपहार) दिया जा सकता है, लेकिन वारिस नहीं बनाया जा सकता। इस्लाम के अनुसार, गोद लिया जाने वाले बच्चे को लेकर ‘महरम’ का सवाल खड़ा हो जाता है। इस्लाम में महरम उसे कहते हैं, जिससे शादी नहीं की जा सकती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी कोर्ट में कहा था कि इस्लामी कानून गोद लिए बच्चे को जन्म दिए गए बच्चे के समान नहीं मानता।

इतना ही नहीं, शरीयत कानून के तहत एक मुस्लिम सिर्फ अपनी संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा ही किसी को वसीयत कर सकता है। शेष संपत्ति को शरीयत कानून के अनुसार विभाजित करना होगा। शरीयत कानून में किसी भी लड़का या लड़की को पूरी संपत्ति वसीयत करने का प्रावधान नहीं है। ऐसी स्थिति में शुक्कुर जैसे पिता के सामने विशेष विवाह अधिनियम जैसे विकल्प बचते हैं।

पर्सनल कानून संविधान के खिलाफ

पर्सनल कानून भारतीय संविधान के खिलाफ है। संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार देश के सभी नागरिक एक समान हैं। आर्टिकल 15 जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। आर्टिकल 16 सबको समान अवसर उपलब्ध कराता है। आर्टिकल 19 देश मे कहीं पर भी जाकर पढ़ने, रहने, बसने, रोजगार करने का अधिकार देता है।

उसी तरह, आर्टिकल 21 सबको सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। आर्टिकल 25 धर्म पालन का अधिकार देता है, लेकिन अधर्म पालन का नहीं। रीतियों को पालन करने का अधिकार देता है, लेकिन कुरीतियों को नहीं। प्रथा को पालन करने का अधिकार देता है, लेकिन कुप्रथा को नहीं। इस तरह देश में समान नागरिक संहिता लागू होने से संविधान का किसी तरह उल्लंघन नहीं होगा।

देश में किसी एक तबके को प्रश्रय देना और उसके लिए अलग व्यवस्था करना ना सिर्फ संविधान का अपमान है, वरन यह सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना भी है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के आधार पर ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसा बेहद निजी संगठन सरकार पर दबाव बनाकर मनवांछित काम करा लेता है। अगर देश में कानून समान हो जाएगा तो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने पर अंकुश लगेगा।


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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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