पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव 8 चरणों में होने हैं। पहले चरण की 30 सीटों पर शनिवार यानी 27 मार्च को वोट पड़ेंगे। जिन सीटों के लिए वोट डाले जाएँगे उनमें बांकुड़ा की चार, पुरुलिया की नौ, झाड़ग्राम की चार, पूर्व मेदिनीपुर की सात और पश्चिम मेदिनीपुर की छह सीटें शामिल हैं। साथ ही असम की 47 सीटों पर मतदान होगा।
राजनीतिक हिंसा के लिए कुख्यात बंगाल के इस चुनाव से कइयों का भविष्य और सपने दाव पर लगे हैं। एक ओर भाजपा 200 से ज्यादा सीटों के साथ ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के दावे कर रही है। दूसरी ओर तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) ममता बनर्जी की राजनीति और ‘बाहरी’ प्रशांत किशोर के बल पर राज्य में बहुमत के साथ दोबारा आने का दावा कर रही है।
मगर, यदि टीएमसी नेताओं में होती हलचल, जमीनी बदलाव और लोकसभा चुनावों और राज्य की वर्तमान राजनीति में आए बदलावों को देखें, तो मालूम होता है कि बीजेपी का पलड़ा भारी है और ममता बनर्जी समेत मास्टरमाइंड प्रशांत किशोर जैसों के लिए चुनाव में स्थिति आर-पार की बनी हुई है।
प्रशांत किशोर का नाम साल 2014 के चुनावों के बाद मुख्यधारा में आया था, जब उन्होंने पीएम मोदी के लिए चुनाव ‘मैनेज’ किया था। मोदी लहर में किशोर ने खुद को एक पहचान दिलवा दी और मीडिया के जरिए अपने लिए एक माहौल बनाया कि वो चुनाव में बनते बिगड़ते समीकरण को पहचान लेते हैं। हालाँकि, बाद में उन्हें तमाम असफलताओं का सामना करना पड़ा। वह न राहुल गाँधी को जनता के बीच जगह दिला पाए न प्रियंका गाँधी को। उत्तर प्रदेश में भी उनकी भूमिका क्षीण रही।
सारी चीजें देख लोगों को यह समझने में भी समय नहीं लगा कि प्रशांत किशोर का जलवा तभी तक चलता है जब उन्हें किसी ऐसे शख्स को मैनेज करना हो जो पहले ही जनता के बीच प्रसिद्ध हो। अगर उन्हें कोई बुरा ‘प्रोडक्ट’ सौंप दिया जाए तो वह उसे जनता के बीच बेच पाने में असफल रहते हैं।
लेकिन, जब किसी का राजनीति करियर संदेह में घिरता है तो मीडिया ऐसे लोगों के लिए मित्र साबित होती है। प्रशांत किशोर के साथ भी यही हुआ है। पिछले दिनों मीडिया में दो लेख प्रकाशित हुए। दिलचस्प बात यह है कि दोनों एक समय पर प्रकाशित हुए थे और उनमें कई समानताएँ भी थीं। एक लेख हिंदुस्तान टाइम्स में बरखा दत्त ने लिखा और दूसरा इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित हुआ था।
ईटी में प्रकाशित लेख में बताया गया था कि कैसे भाजपा बंगाल में अपनी पिच बढ़ा रही है और टीएमसी 9 बड़े जिलों में अपने स्ट्रैटेजी पर काम कर रही है। दूसरा बरखा दत्त द्वारा का लेख था जिसमें लिखा गया था कि बंगाल में टीएमसी, भाजपा से लड़ाई लड़ रही है।
ऑनलाइन कई लोगों ने इन दोनों लेखों में समानताएँ पाई और हैरानी जताई है कि क्या ये लेख ममता बनर्जी और किशोर के गिरते भविष्य को सँभालने के लिए लिखे गए हैं।
Barkha Dutt and Vasudha Venugopal are dancing on tune of Prashant Kishor in Bengal.
— Modi Bharosa (@ModiBharosa) December 26, 2020
Same argument in two different articles:
➡️Nine big districts for TMC
➡️Youth management by Prashant Kishor @BDUTT@vasudha_ET @PrashantKishor pic.twitter.com/HYkva2h6Bn
अब हो सकता है कि ये आरोप सही हो या हो सकता है गलत हों। लेकिन सवाल ये उठता है कि दो अलग-अलग आर्टिकल में इतनी समानता कैसे हो सकती है। इन दोनों आर्टिकल में समान-समान बिंदु दिए गए हैं जो साबित करने का प्रयास कर रहे हैं कि ममता बनर्जी बंगाल में अपनी पकड़ अब भी नहीं छोड़ी हैं और प्रशांत किशोर खेल में शीर्ष पर बने हुए है।
See how Barkha and Vasudha write similar arguments showing that they religiously followed Prashant Kishore’s dictation.
— PoliticsSolitics (@IamPolSol) December 26, 2020
Pic 1 : Barkha Dutt in HT
Pic 2: Vasusha Venugopal in ET
Same Song. Same Signature Steps. Same Audience. pic.twitter.com/2aQ2D1T7K0
See how Barkha and Vasudha write similar arguments showing that they religiously followed Prashant Kishore’s dictation.
— PoliticsSolitics (@IamPolSol) December 26, 2020
Pic 1 : Barkha Dutt in HT
Pic 2: Vasusha Venugopal in ET
Same Song. Same Signature Steps. Same Audience. pic.twitter.com/2aQ2D1T7K0
बरखा दत्त ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा था कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पिछले चुनावों में व्यक्तिगत और संगठनात्मक रूप से कई गलती की थी, लेकिन अब वह उन्हें नहीं दोहराएँगीं।
अब एक पत्रकार द्वारा इस तरह के दावे क्या साबित करते हैं और किन आधारों पर ये दावे किए जाते है? क्या इस बात के कोई सबूत हैं कि ममता बनर्जी ने नरमी बरती इसलिए भाजपा बंगाल में अपनी जगह बना पाई, न कि वास्तविकता में इसलिए क्योंकि वहाँ की जनता बदलाव चाहती थी।
बरखा दत्त ऐसे दावों को करने के लिए कोई तथ्य पेश नहीं करती। उनकी जानकारी का स्रोत सिर्फ और सिर्फ प्रशांत किशोर होते हैं। तो ऐसे में तो सिर्फ दो बातें साफ होती हैं। पहली ये कि बरखा दत्त, बंगाल विधानसभा से पहले प्रशांत किशोर की इमेज बिल्डिंग का काम समांतर कर रही हैं। और ये बताना चाहती हैं कि ममता बनर्जी ने जो गलती की वो अब नहीं दोहराई जाएँगी क्योंकि प्रशांत किशोर उन्हें बचाने आ गए हैं। दूसरा ये कि भाजपा प्रदेश में जगह इसलिए बना पा रही थी क्योंकि ममता बनर्जी ने नरमी बरती, न कि इसलिए क्योंकि जनता बदलाव चाहती थी।
साल 2019 के लोकसभा चुनावों को यदि याद किया जाए तो बरखा दत्त की इस थ्योरी पर अपने आप सवाल खड़ा हो जाता है। भाजपा ने नारा दिया था कि ‘चुप चाप कमल छाप’, जिसके कारण बीजेपी ने बंगाल में लगभग वादे के मुताबिक 20 के आसपास सीटों पर विजय पाई थी।
दोनों लेखों में मुस्लिम जनसंख्या और वोट शेयर प्रतिशत पर भी बहस
- इन लेखों में मुस्लिम जनसंख्या और वोट शेयर प्रतिशत पर भी बहस हुई। कमाल की बात है कि दोनों ने एक जैसे बिंदु पर इसे समझाने का प्रयास किया। बरखा दत्त ने अपने लेख में किशोर की तारीफ की। बंगाल में 30% मुस्लिम जनसंख्या का जिक्र करके 70% को सिर्फ भाजपा के लिए बताया और टीएमसी के लिए कहा कि वो 100% आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावों को याद दिलाते हुए कहा गया कि अल्पसंख्यक आबादी होने के बाद भी वह वहाँ जीत गए लेकिन यही जनमत उन्हें बंगाल में नहीं मिलने वाला।
इकोनॉमिक टाइम्स में भी बरखा दत्त की तरह ऐसे तर्क दिए गए। इसमें बताया गया कि भाजपा को चुनाव जीतने हैं तो अपने प्रदर्शन को सुधारना होगा। 24 परगना और मुर्शीदाबाद में कुल 80 विधानसभा हैं जो टीएमसी की जीत का मुआवजा भरने में उनकी मदद कर सकती है। इसके बाद इस आर्टिकल में भी मुस्लिम वोटरों का हवाला दिया गया और कहा गया कि यहाँ बिहार, उत्तर प्रदेश से ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं जो टीएमसी को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
अब इस स्थिति में पहले आइए यूपी और बंगाल की मुस्लिम जनसंख्या पर ही बात कर लेते हैं। टीएमसी नेता का कहना है कि बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या 30% है जो यूपी की 18 % से अधिक है। यानी लेख के अनुसार बंगाल में भाजपा सिर्फ 70% पर चुनाव लड़ेगी और टीएमसी 100 % पर। दिलचस्प बात यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव को देखें तो टीएमसी 43.69% पर जीती थी और भाजपा 40.64% पर।
दोनों लेखों के तर्क हैं कि बंगाल में मुस्लिम बहुमत होने के कारण भाजपा की संभावनाएँ कम हैं। क्या 40.64% वोट देखने के बाद भी ऐसी थ्योरी पर भरोसा किया जा सकता है? रही बात इस बिंदु की कि यूपी में त्रिकोणीय जंग की तो भाजपा ने राज्य में 40% वोटों से विजय हासिल की थी। लेकिन बंगाल में ऐसा नहीं हो पाएगा। तो लगता है बरखा दत्त और ईटी बंगाल में AIMIM की उपस्थिति को नकार रहे हैं।
वहाँ निश्चित तौर पर AIMIM सपा और बसपा जितनी मजबूत नहीं है, मगर उसके पास कुछ निश्चित कारण जरूर हैं। अगर किसी को ममता बनर्जी का ओवैसी के ख़िलाफ़ बयान याद हो तो साफ पता चलता है कि ममता बनर्जी को AIMIM की एंट्री होने से डर है कि 30% मुस्लिम आबादी के वोट दोनों में बँट जाएँगे।
उसके बाद शुभेंदु अधिकारी जैसे नेता भाजपा में आ रहे हैं क्या ये सब साबित नहीं करता कि भाजपा जीत के करीब पहुँच रही है। ईटी ने 9 जिलों के नाम अपने आर्टिकल में दिए हैं। दक्षिण 24 परगना, उत्तर 24 परगना, मुर्शिदाबाद, नादिया, हावड़ा, बर्दवान, पूर्वी-पश्चिमी मेदिनापुर। इन सब में शुभेंदु की अच्छी पकड़ है। मुस्लिम इलाकों में शुभेंदु की अपील का अब भी महत्त्व है क्योंकि लोगों को नंदीग्राम में हुआ जन आंदोलन भुलाया नहीं है। वो टीएमसी के सबसे प्रसिद्ध नेता हैं। पूर्वी मिदनापुर जिले में उनके परिवार का भी खासा दबदबा है। तो इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जिन मुस्लिम वोट पर टीएमसी के नेता इतरा रहे हैं। प्रशांत किशोर का बखान कर रहे हैं। वो वोट शुभेंदु अधिकारी के भाजपा में आते ही बीजेपी के पक्ष में आते दिख रहे हैं।
दोनों लेखों का दावा है कि भाजपा एक समुदाय के 100% समर्थन के बाद भी 45% वोट नहीं हासिल कर पाएगी।
इन लेखों में भाजपा को लेकर माना जा रहा है कि उन्हें सिर्फ एक समुदाय का समर्थन मिला और वह 40.64% वोट जुटा पाए। लेकिन अब टीएमसी का मानना है कि अगर यही राह अपनाई गई तो भाजपा के लिए 40.64% से 44-45% पहुँच पाना बहुत मुश्किल होगा। जबकि तथ्य यह है कि भाजपा इन चुनावों में एक ताकतवर प्रतिद्वंदी है और प्रशांत किशोर के लिए नुकसान ये है कि चुनावों में जाति मुख्य कारक नहीं है। अगर भाजपा किसी भी तरह इन चुनावों में हिंदू वोटों के अलावा कुछ और वोट जुटा पाने में सफल होती है, तो इस बात में कोई संदेह नहीं है कि टीएमसी का गेम जल्दी ओवर होगा।
दोनों लेख में एक समान तर्क दिया गया है कि पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए किशोर द्वारा कई संगठनात्मक बदलाव किए गए हैं।
अब यह तर्क पढ़ कर आपको नहीं लग रहा है कि प्रशांत किशोर को बैटमैन की तरह पेश किया जा रहा है कि वो ममता बनर्जी को चुनाव में बचाने आए हैं? कमाल की बात है कि बड़ी संख्या में टीएमसी नेताओं के भाजपा में शामिल होने को भी इसी से जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन इसमें एक गड़बड़ है।
दरअसल, कई नेताओं ने प्रशांत किशोर के ख़िलाफ़ आवाज उठाई थी। मिहिर गोस्वामी ने लिखा था, “यह अब दीदी की पार्टी नहीं है। वह अलग है। इसीलिए दीदी के आदमियों की अब आवश्यकता नहीं है। अगर आपको रहना है, तो आपको जी हुजूरी करना होगा या यहाँ से जाना पड़ेगा।” दिलचस्प बात क्या है कि दोनों लेखों में प्रशांत किशोर के कारण जुड़े नए नेताओं की भूमिका को सकारात्मक बताया गया है जबकि हकीकत ये है कि पार्टी में विद्रोह इसी वजह से हो रहा है।
‘दीदी के बोलो’, ‘दुआरे सरकार’, ममता प्रो सेंटीमेंट और भाजपा के स्थानीय नेताओं की कमी
आर्टिकलों में टीएमसी के लिए ऐसे तर्क वास्तविकता में कोई मतलब नहीं रखते। इनका मत है कि ऐसे अभियान टीएमसी को वोट दिलाएँगे। लेकिन याद करें अगर तो मात्र ‘चुप चाप कमल छाप’ से लोकसभा चुनावों में भाजपा को जीत मिल गई थी।
तथ्यों को यदि देखें तो ममता बनर्जी के पक्ष में कैसा माहौल है, कुछ घटनाओं से मालूम पड़ता है। ममता सरकार ने राजनीति साधने के लिए केंद्र सरकार की नीतियों को राज्य में लागू नहीं होने दिया। इसके कारण बंगाल के किसान मुआवजे से भी वंचित हो गए थे। जबकि एक योजना में गड़बड़ करने के कारण उससे पहले जनता के क्रोध का असर टीएमसी नेताओं को झेलना पड़ा था।
जून माह में एक टीएमसी नेता के बेटे को बनगाँव की धर्मपुकुरिया पंचायत में झाड़ू और लाठियों से मारा गया था। इन पर अम्फान तूफान में मिले मुआवजे के भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। लोगों का कहना था या तो वह सारा मुआवजा दे दें या तो सरकार को सारा पैसा लौटाएँ।
इसी प्रकार साउथ 24 परगना के कैलाशपुर गाँव में टीएमसी नेता के घर का घेराव किया गया था और उन्हें बंधक बनाया गया था। इन पर आरोप था कि इन्होंने अम्फान तूफान के मुआवजे का गलत इस्तेमाल किया और अपने परिवार वालों को इसका लाभ पहुँचाया। बाद में नेता ने मीडिया के सामने अपनी गलती भी मानी थी।
बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का ही परिणाम था कि जुलाई में, TMC को पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में अपने 18 पंचायत सदस्यों को निलंबित करना पड़ा। इन सब पर चक्रवात अम्फान राहत कोषों के संवितरण में भ्रष्टाचार का आरोप था। इस बाबत 200 नेताओं को कारण बताओ नोटिस जारी किए गए थे।
हालाँकि, ये सब बरखा दत्त के विश्लेषण का हिस्सा नहीं था और न ही इस पर ईटी ने संज्ञान लिया। ये तर्क देना कि राज्य में अब भी ममता का दबदबा है, बिलकुल गलत साबित होता है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो भाजपा लोकसभा चुनावों में 40% वोटशेयर हासिल नहीं कर पाती।
आगे हो सकता है कि किसी स्थानीय चेहरे को लाने के बजाय बीजेपी इस चुनावी खेल को ममता बनर्जी और अमित शाह की लड़ाई बना दे और अगर ऐसा नहीं होता है तो भाजपा इतनी जल्दी उस नेता का नाम तो नहीं बताने वाली।
दोनों लेखों में किए गए हर दावे के पीछे कोई तर्क नहीं है। ये लेख जमीनी हकीकत से अवगत कराने की बजाय प्रशांत किशोर को मसीहे की तरह पेश करते हैं। अब यही लेखों का प्रमुख उद्देश्य था, ये सिर्फ इसके लेखक ही बता सकते हैं।
नोट: यह लेख ऑपइंडिया अंग्रेजी की संपादक नुपुर शर्मा के अंग्रेजी लेख के कुछ अंशों पर आधारित है। उनका मूल लेख पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।