Monday, November 18, 2024
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‘टाइम’ का रेसिस्ट पत्रकार, हिंदू-घृणा जताने में ‘वायर’ के लेख चोरी कर कल्पना परोस रहा है

ये कवर पेज पर लिखे कुछ शब्द मात्र नहीं हैं, ये एक घृणाजनित सोच की कुत्सित अभिव्यक्ति है जिसे 'टाइम' छुपा नहीं सका। ये एक भीतर से मुस्लिम, हिन्दू-विरोधी, साम्प्रदायिक घृणा से ग्रस्त पत्रकार की घटिया भाषा है जिस पर 'टाइम' जैसे मैग्ज़ीन से जवाब माँगा जाना चाहिए।

‘टाइम’ एक मैगजीन है जो अमेरिका से छपती है। एक समय था जब इनकी एलिटिज्म इतनी ऊँची हुआ करती थी कि इन मैग्जीनों के कवर पर पहुँचने के लिए नेता, उद्योगपति, सितारे आदि एड़ी-चोटी का जोर लगाकर लॉबीइंग किया करते थे। अब वो टाइम नहीं रहा। वो टाइम इसलिए नहीं रहा क्योंकि अमेरिका में ट्रम्प को चुन लिया गया, और इस राष्ट्र की एलीट मायनोरिटी को वो कभी पसंद नहीं आया। परिणाम यह हुआ कि ‘द इकनॉमिस्ट’ और ‘टाइम’ जैसे उच्चस्तरीय मीडिया संस्थान चिरकुटों वाली हरकत पर उतर आए और खुल्लमखुल्ला राजनीति में उतर आए। जबकि इनका काम राजनीतिक पार्टियों की कैम्पेनिंग नहीं है।

इसी एलीट मायनोरिटी का एक हिस्सा अमेरिकी लेट नाइट टॉक शोज़ हैं जहाँ आप हर रात लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए नेता के हर ट्वीट, हर नीति, हर बात का मजाक उड़ाते देख सकते हैं। पूरा का पूरा ईकोसिस्टम एक व्यक्ति पर केन्द्रित है क्योंकि वो इनकी भाषा नहीं बोलता, वो ओबामा और बुश की तरह दूसरे देशों में नरसंहार नहीं करना चाहता, वो उनकी तरह शब्दों को चाशनी में डुबो कर नहीं कहता। लेकिन इनका दुर्भाग्य कि अमेरिकी जनता को वही पसंद है।

अमेरिका मूलतः एक रेसिस्ट समाज है। यूँ तो एक नैरेटिव यह भी है कि वहाँ यूरोप के चोर, लुटेरों और बलात्कारियों को डीपोर्ट किया जाता था, और उन लोगों ने यहाँ के जनजातियों को न सिर्फ भगाया बल्कि उन्हें ग़ुलामों की तरह रखने का भी गुनाह किया। यह नैरेटिव कितना सही है, वो अलग चर्चा का विषय है, हालाँकि यह मानना कोई गलत नहीं है कि इन लोगों के भीतर ‘व्हाइट सुप्रीमेसिज्म’ अत्यधिक मात्रा में भरा हुआ है।

ख़ैर, मुद्दा यह है कि कई बार कुछ लोगों या संस्थानों को यह ग़लतफ़हमी हो जाती है कि उनके ऊपर पूरे विश्व का भार है। वो अपने काम से मतलब नहीं रख पाते। वो अपने समाज, राष्ट्र या स्वयं के भीतर की समस्याओं को ताक पर रख कर भारत के लोगों को बताते हैं कि भारतीय लोग कितना भेदभाव रखने वाले हैं, कितने मूर्ख हैं कि भैंस पालते हैं और मंगलयान छोड़ते हैं, कैसे लोग हैं जो मोदी जैसों को सत्ता दे देते हैं।

ऐसे विचार रखना सबसे पहले आपको महामूर्ख बनाता है कि लोकतंत्र में जनता जिसे सत्ता देती है, उस जनता के विचारों का आपको सम्मान करना चाहिए न कि आप उस जनता की मानसिक क्षमता पर सवाल उठाने लगें क्योंकि आपके मतलब के लोग सत्ता में नहीं हैं। ‘टाइम’ की इस कवर स्टोरी के लेखक आतिश तासीर हैं जो कि एक पाकिस्तानी मुस्लिम की औलाद हैं, ऐसा उन्होंने खुद बताकर पढ़ने वालों पर कृपा की है। चूँकि लेखक मुस्लिम है, तो मैं इस पर बिलकुल फ़ैसला नहीं सुनाने वाला कि उसने इसी कारण से इतना लम्बा लेख लिख दिया है। वो काम मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ।

अभी कुछ दिन पहले ‘द वायर’ नाम के प्रोपेगेंडा पोर्टल पर किसी बकलोल इंटरनेट ट्रोल स्वाति चतुर्वेदी ने ऐसा ही आर्टिकल लिखा था। आतिश तासीर का दुर्भाग्य कि मैंने वो आर्टिकल भी पढ़ा, और ‘टाइम’ मैग्जीन की कवर स्टोरी भी। दोनों को पढ़ते हुए मैंने पाया कि पुत्र आतिश ने स्वाति के आर्टिकल के कई हिस्से चोरी किए हैं। उनके पूरे आर्टिकल में ‘द वायर’ के आर्टिकल के कई शब्द (dog whistle, tacit support of state, cow lynching, silence on Godhra, anti-Muslim) से लेकर पूरे के पूरे आर्गुमेंट उसी आर्टिकल को पढ़ कर लिखे गए हैं। आतिश के आर्टिकल को पढ़ते हुए लगा कि स्वाति के लेख के ग़ुब्बारे में खूब हवा भर दी गई, और उसे दस गुना बड़ा कर दिया गया है। हालाँकि, यह बात और है कि आतिश ने भारत के लेफ़्ट और कॉन्ग्रेस पर ठीक-ठाक लिखा है जो ‘द वायर’ वाले आर्टिकल में कहीं नहीं था।

‘टाइम’ के कवर पर मोदी को ‘डिवाइडर इन चीफ़’ कहा गया है। इसका सरल शब्दों में अर्थ होता है ‘समाज को बाँटने में सबसे आगे रहने वाला’। ये कवर पेज पर लिखे कुछ शब्द मात्र नहीं हैं, ये एक घृणाजनित सोच की कुत्सित अभिव्यक्ति है जिसे ‘टाइम’ छुपा नहीं सका। ये एक भीतर से मुस्लिम, हिन्दू-विरोधी, साम्प्रदायिक घृणा से ग्रस्त लेखक की घटिया भाषा है, जो बताती है कि अगर वो अपने पिता का धर्म नहीं भी लिखता तो यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि वो कहाँ से आया है, और क्या है।

इस कवर स्टोरी की हेडलाइन है ‘Can the World’s Largest Democracy Endure Another Five Years of a Modi Government?’ इसको सहज शब्दों में अनुवाद करने पर हमें यह प्राप्त होता है कि ‘क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार के दूसरे पाँच साल को बर्दाश्त कर सकता है?’ मैग्जीन के कवर के शब्दों और आर्टिकल के शीर्षक से पता चल जाता है कि यह लेख दुर्भावना से ग्रसित और मानसिक अवसाद में सना हुआ है। वरना, अमेरिका में बैठ कर भारतीय समाज के लोकतांत्रिक चुनाव को पूरी तरह से ख़ारिज कर देना, किसी संयमित सोच का नतीजा तो नहीं ही हो सकती।

आखिर ऐसा क्या हुआ है, या नहीं हुआ है कि अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित मैग्जीन को ऐसी नकारात्मक और अधपकी सोच के साथ बिकने पर मजबूर होना पड़ रहा है? क्या न्यूज चैनलों के डिबेटों की सनसनी अब मैग्जीन में भी पहुँच गई क्योंकि बात अब सर्वाइवल पर आ गई है। क्या अब ‘टाइम’ भी ‘शॉकिंग’ हेडलाइनों से खुद को बाज़ार में उतारेगा?

कल्पनाओं को तथ्य की तरह रखना

लेखक ने शुरुआत से ही साबित कर दिया है कि वो कहाँ जाने वाला है। वस्तुतः वह एक जगह पर पहुँच चुका है, उसके बाद वो अपनी यात्रा शुरु कर रहा है। यही कारण है कि वो भारतीय समाज को धार्मिक राष्ट्रवाद, मुस्लिम-विरोधी भाव और जातिगत कट्टरता से सना हुआ बताता है। भारतीय समाज में जातिवाद है, और वो कहाँ से इस कुत्सित रूप में पहुँचा, यह हम सब जानते हैं, लेकिन उसे इस समाज की पहचान बता देना अल्पज्ञान ही है।

आतिश ने लिखा है कि मोदी को सत्ता दे देना बताता है कि भारतीय समाज उदारवादी नहीं, कट्टरपंथी है। लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए नेता को चुनने वाली जनता के विवेक पर सवाल करना एक असहिष्णुता है जो कि दो-चार अक्षर पढ़-लिख लेने वाले लोगों में आम है, खासकर जो अंग्रेज़ी जानता हो और अपने पाकिस्तानी मुस्लिम पिता को ‘अंग्रेजी बोलने वाले एलीट का हिस्सा’ बता कर अपनी ऑथेन्टिसिटी घुसाना चाहता है। भारतीय समाज में विविधता है, और यह समाज मुस्लिम आक्रांताओं से लेकर मुस्लिम आतंकियों तक, ब्रिटिश लुटेरों से लेकर यूरोपीय-अमेरिकी व्हाइट सुप्रीमेसिज्म तक, आज भी इन समाजों से कम अपराध दर, कम घृणा से चलायमान है। इसलिए, इन मुद्दों पर ज्ञान ऐसे लोग और संस्थान न दें, तो बेहतर है।

अधिकतर लोगों के साथ यह समस्या है कि उनकी आसमानी किताब प्रकट होती है, और वही अंतिम सत्य होता है, और राम ‘हिन्दू एपिक’ के हीरो भर रह जाते हैं। लेखक ने बार-बार यह जताया है कि वो ‘टाइम’ का पत्रकार नहीं, वस्तुतः खुन्नस खाया वही कट्टरपंथी है जो बाबर जैसे लुटेरे और आतंकी को अपना बाप-दादा मानते हुए, उसके द्वारा राम मंदिर ध्वस्त कर बनाई मस्जिद को एक अंतिम सत्य मानता है, जिसके गिरा दिए जाने का दुःख उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी होता रहेगा। हालाँकि, मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों को ये सेलिब्रेट करने में नहीं सकुचाते, या उस पर चर्चा ही नहीं करते।

अत्याचारों के उस दौर को ‘इस्लामी शासन’ कह कर इस लेखक ने भी ऐसे जस्टिफाय किया है जैसे भारत के लोगों ने उन्हें बुलाया था कि ‘आओ, हमारे मंदिर तोड़ो, हमारी लड़कियों का बलात्कार करो, हमें काट डालो, और जो तुम्हारा मज़हब स्वीकार लें उन पर राज करो’। ऐसा किसी ने नहीं कहा था। कुछ लुटेरे आए और अपनी हिंसा के बल पर बसे और उन्होंने हमारे समाज को इतना तबाह किया यहाँ शादियाँ रात में होने लगीं, लड़कियाँ पर्दा और घूँघट करने लगीं, लोगों को ग़ुलामों की तरह रखा जाने लगा। इसलिए आतिश तासीर जैसे लोग इन बातों तक दो लाइन भी नहीं लिख पाते।

रेटरिक, रेटरिक, रेटरिक… ब्ला, ब्ला, ब्ला…

आगे जो लिखा है, वो वही लिखा है, जो भारत का लेफ़्ट-छद्मलिबरल गिरोह और पाक अकुपाइड पत्रकारों का समुदाय विशेष पिछले पाँच सालों से लिखता आ रहा है: मोदी गोधरा पर चुप रहा, मोदी समाज को मजहबों में बाँट रहा है, मोदी ने समुदाय विशेष की मौत पर अफ़सोस नहीं जताया, गौरक्षकों का आतंक फैल गया है, योगी को सीएम बना दिया, प्रज्ञा को प्रत्याशी बना दिया, मोदी सरकार हर फ़्रंट पर नाकाम रही है, मोदी सरकार में अल्पसंख्यकों में डर फैल रहा है, मोदी सरकार हिन्दू साम्प्रदायिक ताक़तों को हवा दे रही है…

ये सारी बातें इतनी बार कही गई हैं, और एक ही नक्कारखाने से बजती रही हैं, कि अब इन पर ध्यान देना भी इन लोगों को नाहक ही भाव देने जैसा है। फिर भी ‘टाइम’ मैग्जीन ने यह दुष्कृत्य किया है तो एक-एक लाइन में इन सारे खोखले तर्कों को हवा करना आवश्यक हो जाता है।

मोदी गोधरा पर कभी चुप नहीं रहा, उसने बार-बार कहा है कि उसकी नौ घंटे पूछताछ हुई, और उसने सारी बातें बता दी हैं जो पब्लिक डोमेन में हैं। अगर ‘चुप्पी’ से मतलब यह है कि मोदी ने समुदाय विशेष से माफ़ी नहीं माँगी, तो वो मुग़ालते में हैं। मोदी को क़ायदे से हिन्दुओं से माफ़ी माँगनी चाहिए जिन्हें बंद ट्रेन की बॉगी में जला दिया गया। मायनोरिटी जब ऐसे आतंक मचाएगी, तो बहुसंख्यक समाज आत्मरक्षा में जवाब देगा ही। हिंसा हर रूप में गलत है, लेकिन हिंसा शुरु करने वाले को आप छोड़ देते हैं, और चूँकि आपके मतलब की बात दूसरे पक्ष में दिखती है तो आपको माफ़ी चाहिए।

क्यों? कोई माफ़ी नहीं मिलेगी क्योंकि आज तक इसी समाज ने हिन्दुओं से कभी माफ़ी नहीं माँगी जिनके चार हजार मंदिर ज़मींदोज़ हुए, जिनके गाँव और विश्वविद्यालय जलाए गए, जिनके परिवारों का ज़बरन मत-परिवर्तन कराया गया। जब दो समुदाय दंगा करते हैं, तो दोनों दोषी होते हैं। माफ़ी दोनों ओर से आनी चाहिए। चूँकि एक दंगे में मारे गए लोग समुदाय विशेष से थे, तो हर हिन्दू उसकी माफ़ी माँगता फिरे, यह सोच गलत और वाहियात है।

मोदी ने जितना मजहब विशेष के लिए किया है, उस पर टाइम मैग्जीन वालों को कवर स्टोरी में झूठ और प्रपंच का पुलिंदा छापने से पहले एक सर्वे करा लेना चाहिए था। मोदी पहला प्रधानमंत्री है जो तुष्टिकरण से परे, हर योजना में जाति, मज़हब, धर्म, राज्य आदि देखे बिना, सौ प्रतिशत कवरेज चाहता है। उसकी चाहत भारत के हर घर में बिजली की थी, जो पूरी हुई। उसकी चाहत हर गरीब के घर में शौचालय की थी, जो पूरी हुई। उसकी चाहत हर गरीब के सर पर छत की है, जो बेहतरीन रफ़्तार से आगे बढ़ रही है। इसमें मजहब कौनसा है कौनसा नहीं। यहाँ नागरिक हैं, और सबको लाभ मिल रहा है। अगर आँकड़ों की ही बात करें तो उत्तर प्रदेश में 17% मुस्लिम आबादी है, जबकि सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों में एक तिहाई भागीदारी मजहब विशेष की है। तो यह प्रपंच कि हिन्दू-मुस्लिम हो रहा है, ध्वस्त हो जाता है।

फिर फ़ेवरेट टॉपिक आता है गौरक्षकों का जो कि वैसी ही बकवास बात है जैसी जुनैद वाली लिंचिंग थी। आपके “टैसिट सपोर्ट” लिख देने से सराकरों की भागीदारी उनमें नहीं हो जाती। कुछ लोगों के सामाजिक अपराध को राजनैतिक रंग आप दे रहे हैं, न कि मोदी। ‘समुदाय विशेष को लिंच कर दिया गया’ से ज़्यादा भार इस बात पर होना चाहिए कि गौतस्करों और गौरक्षकों के दो समूहों में झड़प हुई और कुछ लोग मारे गए, कुछ घायल हुए। ये आतिश जैसे चम्पक पत्रकार यह भूल जाते हैं कि इन्हीं गाय चोरों ने कई बार पुलिस के ऊपर ट्रक चढ़ाए हैं भागने की कोशिश में। सीधी सी बात है कि गाय चुराना, गाय काटना अपराध है। उसमें कोई मनमानी करेगा तो सरकार और पुलिस अपना काम करेगी। जहाँ तक गौरक्षकों का सवाल है, टाइम मैग्जीन ने यह पता करने की कोशिश की होती कि क्या उन हत्याओं पर मुक़दमों नहीं चल रहे, तो सच्चाई सामने आ जाती। लेकिन डिजिटल ऐज में इतनी मेहनत कौन करता है!

उसके बाद आज कल का घिसा हुआ राग छेड़ा गया कि योगी को सीएम बना दिया, आतंक आरोपित प्रज्ञा को प्रत्याशी बना दिया। यहाँ पर ये लोग अपने आप को बाबा मान लेते हैं। इनको लगता है कि भीमराव अंबेडकर की आत्मा इनमें आ गई है और भारत का संविधान से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक यही लम्पटाधीश हैं। अगर योगी पर, या साध्वी प्रज्ञा पर, संविधान या कोर्ट को आपत्ति होती तो हमारे यहाँ के छद्म लिबरल गिरोह के सदस्य अपराध साबित करा चुके होते क्योंकि यहाँ चार बजे भोर में आतंकवादियों के लिए कोर्ट खुलती है।

‘अल्पसंख्यकों में डर फैल रहा है’ की नौटंकी तो अब बंद हो जानी चाहिए। पहली बात तो यही है कि भारत की दूसरी सबसे बड़ी बहुसंख्यक आबादी को अल्पसंख्यक कहना बंद किया जाए। दूसरी बात, ये किसने सर्वे कराया है? जब आप यही सवाल हिन्दुओं से पूछेंगे तो वो भी कहेगा कि वो दूसरे ख़ास समुदाय से डर कर रहता है। ‘टाइम’ मैग्जीन को यह सर्वे कराना चाहिए। जब जवाब आएगा कि हिन्दुओं ने माना है कि उन्हें डर लगता है, तो उन हिन्दुओं को ‘बिगट’, ‘कम्यूनल’, ‘इस्लामोफोबिक’ कहा जाएगा।

लेकिन समुदाय विशेष में वैसे हिन्दुओं से डर, जिन्होंने दीवाली, शादी और क्रिकेट मैचों को छोड़ कर कभी पटाखे तक न फोड़े हों, यह बताता है कि बहुसंख्यक जनता इनको डराती है! किस बात का डर है? क्या तुम्हारे लाउडस्पीकर उतार लिए गए? क्या तुम्हारे पैगम्बरों के बारे में बोलने वाले लोग जेलों में नहीं हैं? क्या समुदाय विशेष के लोग हँसी-खुशी हिन्दू देवी-देवताओं का उपहास नहीं करते? ये तर्क इतना खोला है कि इस पर कुछ भी कहना बेकार है। लेकिन कहना पड़ता है क्योंकि ये लाइन किसी ने कह दी है, हम इसे सत्य मान कर चल रहे हैं।

मोदी सरकार के आने के बाद कितने बड़े दंगे हुए हैं, इस पर टाइम मैग्जीन के चम्पक लेखक ने कुछ नहीं लिखा। योगी के उत्तर प्रदेश में कितने दंगे हुए हैं, इस पर चिंटू पत्रकार ने नहीं लिखा, ‘हिन्दू टेरर’ का नैरेटिव किसने गढ़ा था, इस पर चमन जर्नलिस्ट ने प्रकाश नहीं डाला। मोदी और योगी सरकार के आने के बाद इस देश के राज्यों और दिलों में जो शांति दिखी है, वो पहले कभी नहीं थी। कॉन्ग्रेस और तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने दंगे स्पॉन्सर किए हैं ताकि साम्प्रदायिकता का खेल चलता रहे। दंगे आयोजित कराए गए ताकि एक समुदाय को लगे कि फ़लाँ सरकार ही उसकी रक्षक बन सकती है।

चूँकि, यह बात फैला दी गई कि भाजपा साम्प्रदायिक है, तो भाजपा साम्प्रदायिक नहीं हो जाती। देश के तमाम बड़े दंगे, या तो कट्टरपंथियों ने शुरु किए, या फिर वो कॉन्ग्रेस (और समर्थित पार्टियों) के कार्यकाल में हुए हैं। दंगे रोकना राज्य सरकारों का काम है, और हर ऐसे दंगे पर नैरेटिव यह दिया जाता है कि मोदी के आने के बाद हिन्दुओं में कानून का ख़ौफ़ कम हो गया है, वो दंगे कर रहे हैं। अरे भाई, तो पकड़ो और जेल में डालो ऐसे मनचलों को। क्या मोदी ने सपा की पुलिस के हाथ बाँध रखे थे कि दंगाइयों पर कार्रवाई मत करो? पूरा इतिहास पड़ा है दंगों का और उस समय की सरकारों का। इसलिए ये बकवास नैरेटिव रखो अपने पास!

मोदी सरकार हर फ़्रंट पर नाकाम रही है

ये वैसे ही बेमतलब की बात है जैसे बिहार में चलने वाली बसों के पीछे ‘दुल्हन ही दहेज है’ वाला नारा। हमारे भाई-बंधु दुल्हन भी लेते हैं, दहेज भी। लेकिन कहा खूब जा रहा है। मोदी सरकार पर भी यही कहा जाता है। जीडीपी बेहतर हो रही हो, तो कहते हैं कि लोग गरीब हैं। रॉकेट छोड़ दो तो कहते हैं कि लोग भूखे हैं। सड़कें बना दो तो कहते हैं कि बैलगाड़ी वालों का रोजगार चला गया। पुल बना दो कहेंगे कि नाविक अब क्या करेंगे। रोजगार के मौक़े जो तो कहेंगे कि सबको सरकारी नौकरी क्यों नहीं मिल रही।

भारत विश्व की पाँचवी सबसे बड़ी इकॉनमी बनने वाली है, और सरकार हर फ़्रंट पर फेल है! विश्व का सबसे बड़ा वित्तीय समावेशन हर गरीब को बैंक खाता और डायरेक्ट बेनेफिट टार्न्सफर के ज़रिए हुआ, लेकिन सरकार बेकार है। सबसे ज्यादा घरों में बिजली पहुँची, सबसे ज्यादा गति से शौचालय बने, सबसे तेज गति से सड़कें और रेलमार्ग बने, करोड़ों लोग आज सरकारी मदद से बने पक्के मकानों में रह रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार हर फ़्रंट पर फेल है।

पिछले पाँच सालों में, अलग-अलग सर्वेक्षणों से, लगभग सात से दस करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर मिले, लेकिन ये चम्पक लोग यही कहते हैं कि रोजगार को मुद्दों पर सरकार नाकाम रही है। इन्फ्लेशन कंट्रोल में है, वैश्विक सूचकांकों में भारत ने बेहतरी ही की है, व्यवसाय करने में सुलभता आई है, लेकिन सरकार तो नाकाम है।

सरकार नाकाम इसलिए है क्योंकि ये सरकार इनके हिसाब की नहीं है। सरकार नाकाम इसलिए हो जाती है क्योंकि ये ऐसा मानते हैं। ये हर उस आँकड़े को झूठा बता देंगे जिसके बल पर पाँच साल पहले ये छाती ठोका करते थे। ये वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ़, यूएन से लेकर आर्थिक रेटिंग एजेंसियों को संघी बता देंगे क्योंकि उन्होंने कहा है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था बेहतरी कर रही है। ये दम्भ है जो एक लिमिटेड सोच रखने वाले गिरोह के लोगों में व्याप्त है। इसलिए, आप चाहे इनके दाँतों पर सोना मढ़वा दीजिए, ये कहेंगे कि मेरे लिप्स का क्या।

अभिजात्य घमंड में हमारी पीढ़ी पर हमला

एलीट माइंडसेट, या अभिजात्य मानसिकता, एक उन्माद की अवस्था होती है। इसमें आदमी लगभग पागल हो चुका होता है क्योंकि उसे लगता है कि वो जो मानता है, वही सही है। ‘टाइम’ मैग्जीन को अमेरिकी होने का, और इस चम्पक आतिश तासीर को ‘टाइम’ में लिख पाने का घमंड है। यही घमंड इसे यह लिखने को मजबूर करता है कि आज की भारतीय पीढ़ी जो लिख रही है, जो न्यूयॉर्क टाइम्स के कार्टूनों पर उन्हें घेर रही है, वो मूर्ख है।

नहीं लल्लू लाल, तुम्हें भले ही अमेरिकियों से डर लगता हो कि तुम्हें कहीं भगा न दे, लेकिन भारतीय आबादी के साथ ऐसा डर नहीं है। वो इस्लामी आतंकियों और अत्याचारियों के शासनकाल या ब्रिटिश ग़ुलामी में मजबूर रह कर जीने वाली आबादी नहीं है। सत्य यह है कि उसी ब्रिटेन का सबसे बड़ा रोजगारदाता आज भारत का टाटा है। सत्य यह है कि उसी ब्रिटेन को आने वाले कुछ ही सप्ताह में हम पीछे छोड़कर उससे बड़ी इकॉनमी बन जाएँगे।

हमें गर्व है कि इस्लामी लुटेरे आतंकियों और ब्रिटिश हुकूमत के आने से पहले हम दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थे, और हम दोबारा उसी तरफ बढ़ रहे हैं। इस बात का गर्व हमें ट्विटर और फेसबुक पर न्यू यॉर्क टाइम्स के नस्लवाद पर उसे घेरने की हिम्मत देता है। तुम अपने श्वेत मालिकों की ग़ुलामी करो, भारत की आज की युवा पीढ़ी उनसे परे एक नए गौरव के साथ आगे बढ़ रही है। हम उन्हें बताएँगे कि हम गाय भी पालते हैं, और रॉकेट छोड़ने से पहले देवताओं का आह्वान भी करते हैं, और आधी आबादी की गरीबी (जो इस्लामी आक्रांताओं और ब्रिटिश चोरों की लूट के बाद वैसी हुई) के बावजूद पहली ही बार में मंगलयान छोड़ देते हैं।

इन्हें दुःख है कि आज का भारतीय युवा ‘सिकुलर’, ‘लिब्टार्ड’ आदि लिखता है। इन्हें दुःख है कि आज का हिन्दू यह मानने लगा है कि एक नैरेटिव में हिन्दू प्रतीकों का अपमान उनमें व्याप्त ‘हिन्दूफोबिया’ के कारण है। मतलब, अब ‘फोबिया’ भी सिर्फ एक मजहब विशेष में हो? तुम्हारा गिरोह हर हिन्दू परम्परा को अपने अज्ञान में रेग्रेसिव कहे, देवी-देवता की पूजा के ढकोसला कहे, एक अपराध को धर्म से जोड़ दे, और यहाँ का हिन्दू युवा वर्ग उसे ‘हिन्दूफोबिया’ भी न कहे!

जब तुम जैसों को जवाब मिलने लगे, तो ‘टाइम’ जैसे श्वेत संस्थाओं को लगता है कि ‘अरे! ये तो हमारे ग़ुलाम थे… ये डार्क स्किन वाले हिन्दू! ये हमें जवाब कैसे देने लगे!’ जवाब तो मिलेगा ही, वो भी तुम्हारे ज़हरीले सवाल से दोगुना इंटेसिटी में। क्योंकि बोलना तो हमें इतना आता है कि हमारे यहाँ कितनी भाषाएँ खो गईं, उसकी भी गिनती हमने नहीं की। बोलना, लिखना और परफ़ॉर्म करना तो हमारे गाँवों की परम्परा है। तुम्हारे बाप-दादाओं ने उसे खूब बर्बाद किया, हमारे बाप-दादाओं ने हमें भूलने नहीं दिया।

इसलिए, जब हम कहते हैं कि हमें प्लास्टिक सर्जरी आती है तो हम महर्षि सुश्रुत को याद करते हैं जिन्होंने दो सौ से ज्यादा सर्जिकल टूल्स उस समय बनाए थे जब तुम्हारे श्वेत दादाओं के दादाओं ने बोलना भी नहीं सीखा था, और भाले-तलवारों और पत्थरों से लड़ा करते थे। जब हम कहते हैं कि हमारा इतिहास गौरवशाली रहा है तो हम तुम्हें यह बताते हैं कि फिबोनाची सिक्वेंस फिबोनाची से बहुत पहले हमने ढूँढ रखा था, पायथागोरस का प्रमेय हमारी देन है।

ध्यान रहे श्वेत चमड़ी को धारण करने वाले अभिजात्य घमंड में चूर संस्था के पूर्वग्रह से ग्रस्त पत्रकार, तुम्हारा इतिहास भले ही रेनेसाँ के बाद शुरु हुआ हो, जिसके बाद तुमने दुनिया भर में आतंक मचाया। लेकिन हमारी सभ्यता तुमसे पहले भी थी, और तुम्हारे व्हाइट मेन्स बर्डन का शिकार हुए करोड़ों लोगों को हिंसा से तुमने ज़रूर दबाया हो, पर वो उठ रहे हैं।

इसलिए, मोदी को भारत दोबारा बर्दाश्त करेगी या नहीं, ये अमेरिका के नस्लभेदी लोग चिंता का विषय न बनाएँ। तुम ट्रम्प को देखो, और खूब लेख छापो। मोदी को चुनने या नकारने की क्षमता यहाँ का चुनाव आयोग हर भारतीय को देता है। तुम डरो मत, हिन्दू किसी पर हमला नहीं करता। हिन्दुओं ने हर तरह के हमले झेले हैं, ‘टाइम’ का यह प्रपंच भी झेल लेंगे।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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