दिवंगत रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) के कारण भारतीय राजनीति में एक शब्द खासा लोकप्रिय हुआ। यह शब्द है- मौसम वैज्ञानिक। पासवान उन नेताओं में थे जो चुनाव से पहले ही हवा को भाँप लेते थे। उस हिसाब से तय करते थे कि अबकी बार किस पाले में खड़ा होना है। यही कारण है कि केंद्र में सरकारें बदलती रहीं, पर कुछेक मौकों को छोड़ ज्यादातर समय वे मंत्री बने रहे। बिहार की राजनीति में जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) की यात्रा भी ऐसी ही है।
वैसे राजनीतिक असर के लिहाज से रामविलास पासवान के आगे जीतनराम मांझी कहीं नहीं टिकते। 90 के दशक में ही रामविलास पासवान ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी। पर 2014 में नीतीश कुमार ने जब इस्तीफा देकर मांझी को सीएम बनाया उससे पहले वे बिहार की राजनीति के भी उन चेहरों में नहीं थे जिनसे पूरा प्रदेश परिचित हो। इसके उलट रामविलास पासवान अपने जीवन के अंतिम क्षण तक लालू यादव और नीतीश कुमार के साथ बिहार की राजनीति के तीसरे कोण बने रहे।
लेकिन जीतनराम मांझी सियासत के उस हुनर का नाम है, जिसमें बिना शोर किए सब कुछ हासिल कर लिया जाता है। 2014 के लोकसभा चुनावों में जदयू की करारी शिकस्त के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। जदयू में उनकी जगह लेने के कई दावेदार थे। लेकिन कुर्सी मिली उस जीतनराम मांझी को जो उस लोकसभा चुनाव में गया से तीसरे नंबर पर रहे थे।
बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने की जीतनराम मांझी की इस यात्रा की शुरुआत 80 के दशक में डाक विभाग की नौकरी छोड़कर राजनीति में आने से हुई थी। उनकी यात्रा कॉन्ग्रेस से शुरू हुई। वे 1980 में पहली बार कॉन्ग्रेस के टिकट पर ही गया की फतेहपुर सीट से विधायक चुने गए थे। 1983 में चंद्रशेखर सिंह की कॉन्ग्रेस सरकार में वे पहली बार राज्यमंत्री बने। इसके बाद के करीब चार दशक के राजनीतिक सफर में मांझी ने तीन पार्टियों से होते हुए अपनी पार्टी बनाने का सफर पूरा किया है। इस दौरान बिहार में मुख्यमंत्री बदलते गए, लेकिन कुछ मौकों को छोड़ दे तो ज्यादातर की सरकार में मांझी मंत्री बने रहे।
मांझी की सियासी एंट्री के बाद 1990 तक बिहार में कॉन्ग्रेस की सत्ता रही। दशक भर में कॉन्ग्रेस ने 5 मुख्यमंत्री बदले। इनके नेतृत्व में 6 बार सरकार का गठन हुआ। लेकिन मांझी हर कैबिनेट में टिके रहे। 1990 में बिहार में कॉन्ग्रेस का सितारा डूब गया। मांझी भी चुनाव हार गए। बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लालू यादव का उदय हुआ। मांझी चुनावी पराजय के कुछ ही दिनों बाद लालू यादव की जनता दल के साथ चले गए। इसके बाद भी वे 1995 का विधानसभा चुनाव हार गए। 1996 में जब लालू यादव ने राजद बनाई तो मांझी उसमें चले गए। उसी साल राजद के टिकट पर उपचुनाव में जीते और राबड़ी देवी की सरकार में मंत्री हो गए।
2005 में फरवरी में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए। राजद सरकार नहीं बना पाई। राष्ट्रपति शासन लगा। उसी साल अक्टूबर में फिर से विधानसभा के चुनाव कराए गए। मांझी अबकी बार नीतीश कुमार के पाले में थे। उस चुनाव में बाराचट्टी से जीते और नीतीश सरकार में मंत्री बने। एक घोटाले की वजह से इस्तीफा भी फटाफट हो गया। उस मामले में बरी होते ही 2008 में नीतीश की कैबिनेट में वापसी भी हो गई। 2010 के चुनाव में जहानाबाद की मखदुमपुर सीट से जीतकर वे फिर से मंत्री बने।
फिर आया मई 2014 जब वे अचानक से मुख्यमंत्री ही बन गए। फरवरी 2015 में सीएम पद पर नीतीश की वापसी के बाद मांझी को इस्तीफा देना पड़ा। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा नाम से उन्होंने अपनी पार्टी बनाई। लेकिन सियासत में उनका भाव कम नहीं हुआ। महागठबंधन हो या एनडीए वे सबके प्रिय रहे। हर कोई उन्हें अपने पाले में खड़े करने के प्रयास करता रहा।
ऐसा नहीं है कि मांझी जिसके साथ गए उसकी ही जीत हुई। 2015 के विधानसभा चुनाव में वे बीजेपी के साथ थे। बीजेपी को हार मिली। मांझी की पार्टी को केवल एक सीट। लेकिन चुनाव बाद महागठबंधन ने उन्हें हाथों हाथ साथ ले लिया। यानी मांझी बिहार की सत्ता में बने रहे। 2019 के लोकसभा चुनाव में वे महागठबंधन के साथ थे। उनकी पार्टी को तीन सीट मिली। एक पर भी जीत नहीं मिली। खुद मांझी चुनाव हार गए। 2020 के विधानसभा चुनावों से पहले वे एक बार फिर एनडीए के साथ आ गए। पार्टी को चार सीटों पर जीत मिली। 2022 में जब नीतीश एनडीए को छोड़ गए तो मांझी उनके साथ चले गए। महागठबंधन की सरकार में बेटे संतोष कुमार सुमन मंत्री बने।
अब 2024 का आम चुनाव आने को है। मांझी के बेटे ने नीतीश कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है। पर मांझी ने पत्ते पूरे तरह से नहीं खोले हैं। न तो महागठबंधन छोड़ने का ऐलान किया है और न एनडीए के साथ जाने का। कंफ्यूज करने की यही राजनीति असल में जीतनराम मांझी की पहचान है। वे अपने फैसलों से शोर कम मचाते हैं, मोलभाव की ताकत अधिक बना लेते हैं। सियासी यू टर्न लेने का मौका बनाए रखते हैं।
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सीमित राजनीतिक प्रभाव रखने वाले मांझी 2024 के लिए कितना कमा पाते हैं। यही कमाई यह भी तय करेगी कि 2025 के विधानसभा चुनावों मे वे प्रासंगिक बने रहेंगे या नहीं।