1 नवम्बर 1984 का वो दिन, जब हजारों सिख परिवारों को एक योजनाबद्ध तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया, जब सत्ता के नशे में चूर एक राजनीतिक पार्टी के इशारे पर सिखों का कत्लेआम मचा दिया गया। अगले दिन सुबह केवल दिल्ली ही नहीं भारत के कई राज्यों में सिखों का नरसंहार आरंभ होता है। निर्दोष सिखों का बर्बरता से नरसंहार किया गया, सरेआम गले में टायर डालकर उन्हें जलाया गया, सामूहिक कत्ल किए गए, बलात्कार किए गए, लूट की गई और गुरुद्वारों को तोड़ दिया गया।
इस घटनाक्रम में सरकारी आँकड़ों के अनुसार 3 दिनों में करीब 2800 सिख दिल्ली में और 3350 सिख भारत के दूसरे राज्यों में मौत के घाट उतार दिए गए। लूट खसोट और नुकसान का तो कोई हिसाब ही नहीं।
इतिहास किसी भी राष्ट्र की स्मरणशक्ति है। किसी भी समाज के भविष्य की सुरक्षा इसी बात पर निर्भर करती है कि वह ऐतिहासिक तथ्यों का आकलन कितनी स्पष्टता के साथ करता है। 1984 के सिख कत्लेआम को याद करने की कोई एक वजह नहीं है। देश के इतिहास का यह एक ऐसा काला अध्याय है, जिसे पलट कर हम आतंकवाद, अतिवाद और लोकतंत्र में अधिनायकवाद से बच सकते हैं। बशर्ते, 1984 में हुए सिखों के नरसंहार को न सिर्फ स्मरण करना होगा बल्कि रक्तरंजित 72 घंटों को खौफनाक हालात पैदा करने वाली वजहों को भी पहचानना होगा।
इतिहास के पन्नों में 31 अक्टूबर 1984 को देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की दिल्ली स्थित उनके आवास पर हत्या कर दी गई। हत्या करने वाले कोई और नहीं बल्कि उन्हीं के अंगरक्षक सतवंत सिंह और बेअंत सिंह थे। यह दोनों सिख समुदाय से थे। इंदिरा की हत्या ऑपरेशन ब्लू स्टार की प्रतिक्रिया में की गई थी, जिसका आदेश उस समय इंदिरा गाँधी ने दिया था। ऑपरेशन ब्लू स्टार भारतीय सेना द्वारा 3 से 6 जून 1984 को अमृतसर स्थित हरिमंदिर साहिब परिसर को खालिस्तान समर्थक जनरैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों से मुक्त करवाने के लिए चलाया गया था। दरअसल पंजाब में उस वक्त भिंडरावाले के नेतृत्व में अलगाववादी ताकतें सिर उठा रहीं थी, जिन्हें पाकिस्तान से समर्थन मिल रहा था।
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिख दंगों के दौरान हालात कुछ इस कदर बेकाबू थे कि तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जब इंदिरा को देखने एम्स जा रहे थे, उस वक्त उनकी गाड़ी पर भी हमला हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा मेमोरिज ऑफ ज्ञानी जैल सिंह में लिखा है कि देश वापस आते ही उन्होंने अस्पताल जाने का निर्णय लिया। उन्होंने रास्ते में देखा कि लोग आगजनी कर रहे हैं। कुछ लोग हाथों में जलते हुए बाँस लेकर घूम रहे थे, लेकिन उन्होंने आगे होने वाली घटनाओं के बारे में नहीं सोच सके।
31 अक्टूबर को राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ले ली, लेकिन फिर देश भर में सिखों के विरुद्ध हिंसा का जो दौर शुरू हुआ, वह देश का रक्तरंजित इतिहास ही कहा जाएगा। 1 नवंबर 1984 को शुरू हुए कत्लेआम के चश्मदीदों के मुताबिक सिख बन्धुओं को जैसे चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा जा रहा था। दूर-दूर तक सड़कों में बच्चों और महिलाओं की सिर्फ चीख सुनाई देती थी। ऐसा लग रहा था जैसे जगदीश ही ‘जगतहंता’ और सज्जन ‘दुर्जन’ बन बैठे थे।
तत्कालीन राष्ट्रपति के मुताबिक वह स्वयं प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को बार-बार सिखों के खिलाफ हो रहे हिंसक घटनाओं को रोकने का मुद्दा संज्ञान में ला रहे थे। चश्मदीदों और पीड़ितों के मुताबिक यह कुछ नेताओं के शह पर हो रहा था। इसे राजनीतिक स्वार्थ के लिए भी अंजाम दिया गया। इतिहास के घटनाक्रम को जोड़कर देखें तो कॉन्गेस के दामन में जो दंगों के जो दाग लगें हैं, वह यूँ ही नहीं हैं।
सिख विरोधी दंगों के आरोपित नेताओं को कॉन्ग्रेस ने सांसद से लेकर मुख्यमंत्री तक बनाया। जगदीश टाइटलर कॉन्ग्रेस के लिए कितने जरूरी हैं, इसका अंदाजा हाल ही में उन्हें तमाम विरोध को दरकिनार कर दिल्ली प्रदेश कॉन्ग्रेस कमेटी में शामिल किए जाने से लगा सकते हैं। कुछ इसी तरह दंगों में आरोपित सज्जन कुमार भी कॉन्ग्रेस की टिकट पर संसद पहुँच चुके हैं।
देश में बड़ी संख्या में लोग ऐसा मानते हैं कि इंदिरा गाँधी देश से आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ते हुए आतंकवाद की ही शिकार हो गईं, लेकिन इंदिरा के बाद ऐसी कौन सी मजबूरी कॉन्ग्रेस के सामने आ गई कि कॉन्ग्रेस आतंकवाद की उन्हीं जड़ों को सींचने लगी जिसे इंदिरा हमेशा के लिए खत्म करना चाहती थीं।
अपने शौर्य और पराक्रम की गाथाओं के लिए पहचाने जाने वाले सिखों के कत्लेआम को अभी कुछ दिन बीते भी नहीं थे कि उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने दिल्ली के वोट क्लब में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि जब कोई बड़ा और भारी भरकम पेड़ गिरता है तो आसपास की धरती हिलती तो है ही। क्या ऐसा कहकर राजीव गाँधी ने सिखों के जनसंहार को न्यायसंगत नहीं ठहरा दिया?
इंदिरा के बाद की कॉन्ग्रेस कभी सिख विरोध तो कभी तुष्टिकरण की राजनीतिक पैरोकार क्यों बनती दिखती है। यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि जिस आतंकवाद को समाप्त करने के लिए इंदिरा ने शहादत दे दी। वही कॉन्ग्रेस राजीव गाँधी की हत्या में शामिल आतंकवादियों को माफी दे देती है।
राहुल गाँधी अक्सर कहते हैं कि वह बलिदानी परिवार से आते हैं, लेकिन दूसरी ओर महबूबा मुफ्ती के आतंकवाद समर्थक बयानों के साथ खड़े नजर आते हैं। आज कथित किसान आंदोलनकर्ताओं के खालिस्तानी समर्थकों के साथ रिश्ते उजागर हो चुके हैं, बावजूद इसके कॉन्ग्रेस राजनीतिक स्वार्थ के लिए देशविरोधी ताकतों को समर्थन देने और लेने से गुरेज नहीं करती।
इंदिरा गाँधी को को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दुर्गा करार दिया था। उस दौर में इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता कुछ इस कदर थी कि कि उनकी मृत्यू के बाद सहानुभूति के रथ में सवार राजीव गाँधी चार सौ से अधिक सीटें जीतने में कामयाब हुए। यह बात सच है कि भारतीय लोकतंत्र के शैशवाकाल में ही आपातकाल लगा कर इंदिरा ने लोकतंत्र की हत्या की थी। लेकिन बाद के समय में इंदिरा के नेतृत्व में ही एक बार फिर लोगों ने लोकतंत्र के रास्ते पर कदम बढ़ाना शुरू किया था।
दुर्भाग्य से देश की सबसे पुरानी पार्टी ने अपनी गलतियों से कभी सबक लेना उचित नहीं समझा। सिखों के सरेआम हुए कत्लेआम का इतिहास आने वाली कई पीढ़ियाँ पढ़ेंगी। देश की रक्षा के लिए अपना ही नहीं अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले सिख अपने शौर्य और पराक्रम के लिए पहचाने जाते हैं। देश में दो समुदायों के बीच अविश्वास की भावना पैदा करने के लिए हुए इस सुनियोजित नरसंहार की कटु स्मृतियाँ हमें इसलिए भी सहेजनी होंगी, जिससे भविष्य में देश की एकता और अखंडता के साथ ऐसी सोची समझी साजिश को अंजाम न दिया जा सके।
नोट: यह लेख लवी चौधरी (स्वतंत्र स्तम्भकार) ने लिखा है।