तृणमूल कॉन्ग्रेस अपना विस्तार कर रही है। शायद नाम की महिमा है कि पार्टी अधिकतर चुक गए कॉन्ग्रेसी नेताओं को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। माइग्रेशन की सबसे ताजा घटना में बिहार कॉन्ग्रेस के नेता कीर्ति आज़ाद तृणमूल कॉन्ग्रेस में शामिल हुए। इसी प्रक्रिया में पूर्व में गोवा और असम जैसे राज्यों के कॉन्ग्रेसी नेताओं ने तृणमूल कॉन्ग्रेस ज्वाइन किया था।
गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री और कॉन्ग्रेसी नेता फलेरिओ ने ममता बनर्जी की पार्टी में शामिल होकर उन्हें गोवा में राजनीतिक जमीन तलाशने का रास्ता दिखाया था। इसके पहले महिला कॉन्ग्रेस की पूर्व अध्यक्षा और असम में सिलचर की पूर्व सांसद सुष्मिता देव पार्टी में शामिल हुई थी और पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा भेजा था। मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के भी कॉन्ग्रेस छोड़कर तृणमूल कॉन्ग्रेस में जाने की चर्चा लंबे समय से चल रही है।
शायद कॉन्ग्रेस पार्टी के नेताओं के इसी मॉस माइग्रेशन का असर है जो पश्चिम बंगाल में कॉन्ग्रेस के सबसे धाकड़ नेता अधीर रंजन चौधरी ने तृणमूल कॉन्ग्रेस पर यह आरोप लगाया कि तृणमूल कॉन्ग्रेस ने पश्चिम बंगाल में लूटकर जो पैसे इकठ्ठा किए हैं अब उसी से दिल्ली में राजनीतिक व्यापार कर रही है।
After looting WB, CM Mamata doing political trade in Delhi: Adhir Chowdhury#AdhirChowdhury #MamataBanerjee #TMC #Congress
— ANI Multimedia (@ANI_multimedia) November 23, 2021
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हालाँकि, चौधरी के इस वक्तव्य के जवाब में तृणमूल कॉन्ग्रेस की ओर से अभी तक प्रतिक्रिया नहीं आई है पर यह लग रहा है कि कॉन्ग्रेस पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में ममता बनर्जी की महत्वकांक्षा को लेकर सहज नहीं दिखती। ममता बनर्जी द्वारा राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए बड़ी भूमिका की तलाश को कॉन्ग्रेस पार्टी ही नहीं, दस जनपथ में भी सहजता से स्वीकार नहीं किया गया है।
ऐसा नहीं कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में तृणमूल कॉन्ग्रेस केवल कॉन्ग्रेस के नेताओं को ही आकर्षित कर रही है। भाजपा से पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा पहले ही पार्टी में शामिल होकर उपाध्यक्ष बन चुके हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद बाबुल सुप्रियो ने भी हाल ही में टी एम सी में शामिल हुए थे। जे डी यू के पूर्व राज्यसभा सांसद पवन वर्मा भी ममता बनर्जी से मुलाकात कर पार्टी में शामिल हो चुके हैं।
विशेषज्ञ कह सकते हैं कि पार्टी में में पवन वर्मा के शामिल होने का असर अन्य बुद्धिजीवी नेताओं पर भी दिखाई दे सकता है। पार्टी के प्रति इसी आकर्षण का असर है कि अब डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी और ममता बनर्जी के बीच मुलाक़ात हुई और डॉक्टर स्वामी के अनुसार वे पहले से ही ममता बनर्जी के साथ थे इसलिए उनका टी एम सी में शामिल होना आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद सबकी नज़रें सुब्रमण्यम स्वामी पर रहेंगी क्योंकि वे केवल मंत्रीपद नहीं बल्कि पार्टी की भी तलाश में हैं और टीएमसी कम से कम उनकी एक तलाश ख़त्म कर सकती है।
इन नेताओं द्वारा तृणमूल में माइग्रेशन पार्टी और उसकी सुप्रीमो की राष्ट्रीय राजनीति में विस्तार की महत्वाकांक्षा को कितनी हवा दे सकते हैं, यह देखना दिलचस्प रहेगा।
जो नेता टी एम सी में शामिल हो रहे हैं, उनमें से अधिकतर के चुनावी राजनीति में प्रभाव को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं। एक पार्टी छोड़ दूसरी में शामिल होने के उनके रिकॉर्ड का ही असर है कि तृणमूल कॉन्ग्रेस में शामिल होते हुए कीर्ति आज़ाद को यह विश्वास दिलाना पड़ा कि वे अब राजनीति से रिटायर होने तक तृणमूल कॉन्ग्रेस में ही रहेंगे। पवन वर्मा ने ममता बनर्जी की पार्टी में शामिल होते हुए अपने कदम के पीछे विपक्ष को मजबूती प्रदान करना मुख्य कारण बताया। वे और प्रशांत किशोर एक साथ जे डी यू से निकाले गए थे लिहाजा मज़बूत विपक्ष की आवश्यकता ने उन्हें एक पार्टी दिला दिया। पूर्व कॉन्ग्रेसी नफीसा अली ने भी ममता बनर्जी की पार्टी में शामिल होकर उसे मजबूती प्रदान की थी।
राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका के विस्तार की महत्वाकांक्षा हर राजनीतिक दल और नेता के लिए सामान्य बात है पर प्रश्न यह है कि तृणमूल कॉन्ग्रेस की महत्वाकांक्षा के साथ विस्तार की इस मंशा को आने वाले समय में अन्य विपक्षी दल कैसे देखते हैं। अधीर रंजन की प्रतिक्रिया से यह साफ़ है कि कॉन्ग्रेस पार्टी इसे सहजता से स्वीकार नहीं कर सकेगी क्योंकि यह स्थिति सोनिया और राहुल गाँधी की अपनी महत्वाकांक्षा के आड़े आएगी।
राष्ट्रीय राजनीति में सीधे बीजेपी या PM मोदी को टक्कर देने के लिए जिस भूमिका की तलाश में ममता बनर्जी हैं, उसे पहले से ही अस्तित्व के संकट से दो-चार हो रहे अन्य दलों के चुक गए नेताओं के सहारे पाना बड़ी चुनौती होगी। इन सबके ऊपर विपक्ष की एकता अभी तक ऐसा छलावा साबित हुई है जिसकी परछाई तो कभी-कभी नजर आती है पर वो नज़र नहीं आती। ऐसे में उस परछाई के पीछे जाकर विपक्ष की एकता को अपने पक्ष में लेना ममता बनर्जी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।