Sunday, December 22, 2024
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4.5 साल में 2 सीएम देने वाली शिव सेना माँग रही 2.5 साल, उसकी गलती से ही भाजपा ने भोगा 15 साल का वनवास

रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाने की बाल ठाकरे की शैली को महाराष्ट्र की जनता ने सिरे से 1999 में नकार दिया था। जबकि उस सरकार में भाजपा के कोटे से नितिन गडकरी जैसे मंत्री भी थे जिनके कार्यों की चर्चा आज भी मिसाल दी जाती है। शिव सेना के नायाब प्रशासन का एक नमूना बीएमसी भी है।

शिव सेना की घुड़की भाजपा के लिए नई नहीं है। 2014 में भी जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए थे तो बहुमत से दूर भाजपा के साथ आने में शिव सेना शुरू में तीन तेरह ही कर रही थी। भाजपा ने अल्पमत की सरकार बनाई और बाद में थक-हार शिव सेना भी सरकार में शामिल हो गई। हालॉंकि उस चुनाव में दोनों दल अलग-अलग लड़े थे। इसलिए, इस बार जब दोनों दल साथ-साथ विधानसभा चुनाव लड़ने मैदान में उतरे तो लगा कि शायद शिवसेना का खटराग न सुनाई पड़े।

लेकिन, 2014 के मुकाबले भाजपा की कुछ सीटें क्या गिरी शिव सेना को पुराने ढर्रे पर लौटने में वक्त नहीं लगा। सो, वह कथित ‘50:50 (सत्ता में समान हिस्सेदारी) फॉर्मूले’ की बात करने लगी। अब वह चाहती है कि बीजेपी उसे इस संबंध में लिखित आश्वासन दे। शिव सेना की इच्छा है कि बिल्ली के भाग्य से छींका छूटे और उसे 2.5 साल के लिए सीएम का पद मिल जाए। हालॉंकि उसकी यह इच्छा पूरी होती नहीं दिख रही।

2.5 साल के सीएम कुर्सी के लिए भाजपा के दर पर चिरौरी कर रही शिव सेना को राज्य में पहले एक बार सरकार चलाने का मौका मिल चुका है। उस सरकार में भाजपा भी साझेदार थी। तब शिव सेना की कमान उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहेब के हाथों में थी। उस समय सरकार चलाने में शिव सेना की ओर से जो-जो नायाब प्रयोग किए गए थे, उसकी कीमत साझेदार होने के नाते भाजपा को भी चुकानी पड़ी थी। महाराष्ट्र की सत्ता में वापसी करने में फिर भाजपा को 15 साल लग गए, जबकि उस सरकार में भाजपा के कोटे से शामिल नितिन गडकरी जैसे मंत्रियों ने इतना शानदार काम किया था कि आज भी उसकी मिसाल दी जाती है।

1995 में बनी उस सरकार को बाल ठाकरे ने रिमोट कण्ट्रोल से चलाते थे। बाल ठाकरे को जब लगा कि मुख्यमंत्री मनोहर जोशी उनके हिसाब से नहीं चल रहे हैं, तो उन्होंने मुख्यमंत्री बदलने में देर नहीं लगाई। उसके बाद नारायण राणे को जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद 1999 में समय से पहले ही लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया।

इसके लिए उस समय की स्थिति को समझते हैं। शरद पवार को कॉन्ग्रेस ने निकाल बाहर किया था। उन्होंने एनसीपी की स्थापना की। तो इस हिसाब से इस चुनाव में एक नई पार्टी हिस्सा ले रही थी। उधर, दिल्ली में भी राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार मात्र 1 वोट से गिर गई थी और संसद में दिया गया उनका ओजस्वी भाषण घर-घर तक पहुँचा था। बावजूद इन चीजों के शिव सेना और भाजपा ने 6 महीने पहले ही विधानसभा भंग कर चुनाव कराने का फ़ैसला किया। आख़िर साढ़े 4 साल सरकार चलाने के बावजूद समय-पूर्व चुनाव की नौबत ही क्यों आई?

दरअसल, शिवसेना जिस स्टाइल से सरकार चला रही थी वह लोगों को रास नहीं आ रहा था। बाल ठाकरे को इसका ख़ूब भान था। इसलिए, लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव कराने का फ़ैसला लिया गया। इस उम्मीद में कि वाजपेयी नैया पार लगा देंगे।

यह भी देखिए कि आज जो पवार सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाले गठबंधन का हिस्सा हैं, कभी गाँधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा कॉन्ग्रेस से बाहर निकले थे। पवार ने इसे भुनाया। उन्होंने जनता को यह बताने का प्रयास किया कि एक मराठा क्षत्रप के उभरने से कॉन्ग्रेस आलाकमान को दिक्कत है। अगर ध्यान से देखें तो शिव सेना, कॉन्ग्रेस और राजद जैसी वंशवादी पार्टियों से अलग नहीं है। बाल ठाकरे शायद अपनी राजनीतिक विरासत किसी और के हाथ जाने को लेकर कुछ ज्यादा ही आशंकित थे। अगर ऐसा न होते तो 2004 महाराष्ट्र चुनाव से ऐन पहले उन्होंने पार्टी में कार्यकारी अध्यक्ष का नया पद गठित कर इस पर अपने बेटे उद्धव को नहीं बैठाया होता।

यही कारण है कि चुनाव दर चुनाव जो शिव सेना महाराष्ट्र में राजग गठबंधन की मुख्य पार्टी होती थी, वह छोटा भाई बन कर रह गई। यह पार्टी की मज़बूरी ही थी कि उसे ऐसा करना पड़ा। भाजपा के विरोध के शिव सेना ने हिंदुत्व-विरोधी तरीके भी अपनाए, जिससे पार्टी की हिंदुत्ववादी छवि अवश्य ही कमज़ोर हुई और भाजपा बड़े भाई के रूप में उभरी। एक उदाहरण देखिए। जब 2015 में जब जैन त्योहार के दौरान सरकार ने एक दिन के लिए मीट प्रतिबंधित किया, तब शिव सेना ने उसका कड़ा विरोध किया। कई शिव सेना और मनसे समर्थक जैन मंदिरों से लेकर जैन सोसाइटियों के बाहर माँस का स्टॉल लगाने और चिकेन बनाते देखे गए। सामना में जैन समुदाय के ख़िलाफ़ ज़हर उगला गया। बाद में आदित्य ठाकरे को स्पष्टीकरण देना पड़ा। जैन साधुओं को मातोश्री जाकर उद्धव से मुलाक़ात करनी पड़ी।

उपर्युक्त कारणों जैसे कई अन्य कारणों से भी हिंदुत्व क्षेत्र में शिव सेना की साख पहले जैसी नहीं रही। जब उद्धव मुख्यमंत्री के साथ मंच साझा करना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझने लगे थे, तब देवेंद्र फडणवीस ने बाल ठाकरे की प्रतिमा स्थापित करने का ऐसा दाँव खेला कि उन्हें एक मंच पर आना ही पड़ा। कुल मिला कर देखें तो शिव सेना वो बादल है, जो गरजती ज्यादा है लेकिन बरसने के नाम पर एकाध बूँद भी आफत हो जाए। 1999 चुनाव में भी यही हुआ। लोकसभा चुनाव में वाजपेयी के नाम पर महाराष्ट्र की जनता ने भाजपा शिवसेना गठबंधन को 28 सीटें दी। उसी जनता ने गठबंधन को विधानसभा चुनाव में सत्ता से बेदखल कर दिया। एक साथ हुए चुनाव में दो विरोधाभासी परिणाम। जाहिर है सरकार चलाने की शिव सेना की शैली से लोग खुश नहीं थे।

1995 में जीत के बाद बाल ठाकरे, आडवाणी और मनोहर जोशी

शिव सेना की सरकार के दौरान मुख्यमंत्री तक पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप लगे। मनोहर जोशी ने एक प्रमुख सरकारी ज़मीन को अपने दामाद को दे दिया, ताकि हाउसिंग कॉम्प्लेक्स बनाया जा सके। इस मामले में 2011 में टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री जोशी, जो ख़ुद को एक शिक्षाविद भी बताते हैं, उन्होंने अपने दामाद के व्यक्तिगत फायदे के लिए उक्त ज़मीन पर स्कूल बनवाया। कोर्ट ने कहा था कि अगर उनके दामाद गिरीश व्यास ने उस 15 मंजिला इमारत से अपना मालिकाना हक़ नहीं छोड़ा तो उसे गिरा दिया जाएगा। साथ ही जोशी पर 15,000 रुपए का जुर्माना लगाया। जोशी ने ख़ुद इस डील को मुख्यमंत्री रहते स्वीकृति दी थी और उस समय इसे लेकर काफ़ी विवाद हुआ था। तो ऐसे चली थी शिव सेना की सरकार।

जब बाल ठाकरे के रहते शिव सेना न तो सरकार ठीक से चला पाई और न ही वाजपेयी के जादू से भी अपनी नाकामी को छिपा पाई, वह उद्ध्व के नेतृत्व में कोई कमाल कर दिखाएगी ऐसी उम्मीद तो शिव सैनिकों को भी न होगी। इतना ही नहीं बीएमसी का शिव सेना किस तरीके से नेतृत्व करती है इसका नमूना हर साल बारिश में मुंबई सहित देश भर के लोग देखते हैं।

उद्धव के नेतृत्व में सिकुड़ती शिव सेना जानती है कि आज भाजपा और मोदी के बिना उसके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो सकता है। कुछ क्षेत्र विशेष तक सीमित शिव सेना को हालिया वर्षों में जो राजनीतिक उभार मिला है उसके पीछे मोदी की ही लोकप्रियता है। वरना भाजपा से अलग होकर वह 2014 के विधानसभा और 2017 के बीएमसी चुनाव में नतीजे भुगत चुकी है। इसलिए देर सबेर शिव सेना का फिर उसी रास्ते पर लौटना तय है। तब तक उसके राजनीतिक फुफकार के मजे लीजिए!

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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