जब विनायक दामोदर ‘वीर’ सावरकर के भाई गणेश दामोदर सावरकर का निधन 16 मार्च, 1945 को हुआ, तो शोक संवेदनाओं वाले पत्रों में से एक पत्र महात्मा गाँधी का भी शामिल था। उन्होंने वह पत्र सेवाग्राम से 22 मार्च को वीर सावरकर को संबोधित करते हुए लिखा, “आपके भाई के निधन का समाचार सुनकर यह पत्र लिख रहा हूँ। उनकी रिहाई के बारे में मैंने कुछ किया था, तब से उनके बारे में मेरी रूचि बनी हुई है।”
महात्मा गाँधी का यह पहला और आखिरी पत्र नहीं था, जिसमें उन्होंने सावरकर बंधुओं की रिहाई में अपनी कोशिशों का जिक्र किया हो। इससे पहले, शंकरराव देव को 20 जुलाई, 1937 को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, “जब मैं यह कहूँगा कि मेरी ताकत में जो कुछ भी था, वह सब मैंने रिहाई के लिए अपने ढंग से किया तो शायद डॉ. सावरकर भी मेरी बात का अनुमोदन करेंगे।” इसी पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि “सावरकर बन्धु कम-से-कम यह तो जानते हैं कि हममें चाहे कुछ सिद्धांतों को लेकर जो भी मतभेद रहे हो, लेकिन मेरी कभी यह इच्छा नहीं हो सकती थी कि वे जेल में ही पड़े रहें।”
उपरोक्त दोनों पत्र महात्मा गाँधी के सम्पूर्ण वांग्मय में सार्वजानिक रूप से मौजूद है। जहाँ एक तरफ महात्मा गाँधी कई सालों बाद सावरकर बंधुओं की रिहाई के अपने प्रयासों का उल्लेख करते हैं तो दूसरी तरफ एक अन्य पत्र में वे उनकी रिहाई के लिए दया याचिका का मार्ग सुझाते हैं। लाहौर से 25 जनवरी 1920 को वीर सावरकर के भाई नारायण दामोदर सावरकर को लिखे एक पत्र में महात्मा गाँधी कहते हैं, “मेरा सुझाव है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें जिसमें तथ्यों को इस प्रकार प्रस्तुत करें ताकि यह बात बिलकुल स्पष्ट रुप से उभर आए कि आपके भाई ने जो अपराध किया था, उसका स्वरुप बिलकुल राजनीतिक था। मैं यह सुझाव इसलिए दे रहा हूँ कि तब जनता का ध्यान उस ओर केन्द्रित करना संभव हो जाएगा। इस बीच, जैसा कि मैं अपने एक पहले पत्र में आपसे कह चुका हूँ, मैं अपने ढंग से इस मामले में कदम उठा रहा हूँ।”
महात्मा गाँधी द्वारा वीर सावरकर को क्षमा/दया याचना लिखने का सुझाव नया नहीं था। उन्होंने अली बंधुओं – शौकत अली और मोहम्मद अली को भी ब्रिटिश सरकार से क्षमा याचना करने की राय दी थी। यही नहीं, उनकी रिहाई के लिए वे स्वयं वायसराय रीडिंग से भी मिले थे। हालाँकि, ‘यंग इंडिया’ में 27 जुलाई, 1921 को उन्होंने अपने ही प्रयास अथवा सुझाव को राजनीतिक दृष्टि से बहुत बड़ी भूल माना था।
इसी प्रकार, सावरकर बंधुओं के लिए उनके प्रयास ज्यादा सफल नहीं रहे क्योंकि वीर सावरकर की कालेपानी की सजा के दौरान असहयोग आन्दोलन अपने चरम पर था। इस आन्दोलन के चलते सावरकर बंधुओं की रिहाई में बाधा पैदा हुई थी। ‘यंग इंडिया’ में 18 मई, 1921 को गाँधी लिखते हैं, “अगर सहयोग आन्दोलन न होता तो दोनों सावरकर बंधु भी कालेपानी से बहुत पहले छूट कर आ जाते लेकिन अभी तो असहयोग बाधक है।” दरअसल, असहयोग आन्दोलन का स्वरुप ही ऐसा था कि पूर्ण स्वराज्य की माँग के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों में भरा जा रहा था और ऐसे में महात्मा गाँधी चाहते हुए भी उनकी रिहाई के प्रयासों को अधिक बल नहीं दे सकते थे।
असहयोग आन्दोलन 1922 में समाप्त हो गया और फिर एक बार फिर कॉन्ग्रेस में हलचल शुरू हो गई। इस बार महात्मा गाँधी के करीबी माने जाने वाले मौलाना मोहम्मद अली ने वीर सावरकर की रिहाई का खुल कर समर्थन किया। साल 1923 में मौलाना कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष बने तो उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण की शुरुआत ही ‘अल्लाह हू अकबर’ और ‘महात्मा गाँधी की जय’ के नारों से की थी। यह वही मौलाना थे जो खिलाफत आन्दोलन के सूत्रधार और मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। अपनी “सांप्रदायिक महत्वाकांक्षाओं” के बावजूद उन्होंने अधिवेशन के दौरान वीर सावरकर की रिहाई के लिए स्वयं एक प्रस्ताव पेश किया, जिसे पूरी कॉन्ग्रेस ने सर्वसम्मति से पारित किया था। उन्होंने कहा था, “विनायक दामोदर सावरकर को सर्वाधिक तिरस्कारपूर्वक जेल में रखा जा रहा है, जबकि वे रिहा होने के हकदार हैं।” इस प्रस्ताव का जिक्र ‘गाँधी और गाँधीवाद’ जैसी पुस्तक लिखने वाले पट्टाभि सीतारमैया ने साल 1935 में प्रकाशित अपनी अन्य पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द इंडियन नेशनल कॉन्ग्रेस’ के प्रथम खंड में किया है।
अभी तक तो महात्मा गाँधी द्वारा सावरकर बंधुओं की रिहाई के सन्दर्भों का जिक्र पढ़ने को मिलता है लेकिन एक अवसर ऐसा भी है जब वीर सावरकर ने महात्मा गाँधी की रिहाई की माँग की थी। 7 अक्टूबर, 1908 को दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गाँधी को गिरफ्तार कर लिया गया था। डीजी तेंदुलकर अपनी पुस्तक ‘महात्मा, लाइफ ऑफ मोहनदास करमचंद गाँधी’ के प्रथम खंड में बताते हैं कि 16 अक्तूबर को लन्दन में वीर सावरकर सहित लाला लाजपत राय, बिपिन चन्द्र पाल, आनंद के कुमारस्वामी, और जीएस खारपड़े ने महात्मा गाँधी के समर्थन में एक सभा का आयोजन किया था।
इस घटना के बाद, साल 1909 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दोनों महानायकों की पहली प्रत्यक्ष मुलाकात लन्दन में दशहरा के एक कार्यक्रम के दौरान हुई थी। वीर सावरकर की जीवनी लिखने वाले प्रख्यात लेखक धनंजय कीर के अनुसार महात्मा गाँधी ने उस दिन अपने भाषण में कहा कि उन्हें सावरकर के साथ बैठने का सम्मान मिलने पर बहुत गर्व है। कीर, सावरकर के साथ-साथ लोकमान्य तिलक, डॉ. भीमराव आंबेडकर और ज्योतिराव फुले के भी जीवनीकार हैं।
साल 1924 के बेलगाँव अधिवेशन में महात्मा गाँधी को कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया, तो वहाँ वीर सावरकर के भाई नारायण सावरकर ने महाराष्ट्र प्रदेश की तरफ से अधिवेशन में हिस्सा लिया था। साल 1927 में महात्मा गाँधी ने अपने रत्नागिरी प्रवास के दौरान वीर सावरकर से मुलाकात की थी।
दरअसल, महात्मा गाँधी की वीर सावरकर सहित उनके भाइयों से सालों पुरानी जान-पहचान थी और उन्होंने एक नहीं बल्कि कई मौकों पर एकसाथ मंच साझा किया और एक-दूसरे की रिहाई के लिए भी आगे आए। दोनों में आपसी मतभेद भी थे लेकिन यह कोई विवादित मुद्दा नहीं है। राजनीतिक विचारधारा को लेकर दोनों की अपनी-अपनी समझ थी लेकिन व्यक्तिगत रूप से कभी एक-दूसरे का अनादर नहीं किया।
जब वीर सावरकर रत्नागिरी में नजरबंद थे तो कुछ दिनों के लिए वहाँ के एक प्रसिद्ध परिवार – पटवर्धन के यहाँ रुके थे। धनंजय कीर इस सन्दर्भ में लिखते हैं कि इस परिवार के एक सदस्य अप्पासाहेब पटवर्धन जोकि गाँधी के अनुयायी थे लेकिन सावरकर को अपनी प्रेरणा मानते थे। वे आगे लिखते हैं कि गाँधी ने कभी अप्पासाहेब का सावरकर के साथ काम करने पर ऐतराज नहीं जताया।
वैसे भी, यह ध्यान में रखना चाहिए कि कई मौकों पर महात्मा गाँधी के कॉन्ग्रेस और उनके नेताओं के साथ ही मतभेद और विवाद रहे हैं। सबसे बड़ा उदाहरण तो भारत के विभाजन का है। उस दौरान महात्मा गाँधी का पूरी कॉन्ग्रेस से ही मतभेद हो गया था। मनु गाँधी को 1 जून, 1947 को लिखे एक पत्र में उन्होंने खुल कर अपने मन की बात करते हुए कहा, “आज मैं अपने को अकेला पाता हूँ। लोगों को लगता है कि मैं जो सोच रहा हूँ वह एक भूल है… भले ही मैं कॉन्ग्रेस का चवन्नी का सदस्य नहीं हूँ लेकिन वे सब लोग मुझे पूछते हैं, मेरी सलाह लेते हैं… आजादी के कदम उलटे पड़ रहे हैं, ऐसा मुझे लगता है। हो सकता है आज इसके परिणाम तत्काल दिखाई न दें, लेकिन हिन्दुस्तान का भविष्य मुझे अच्छा नहीं दिखाई देता… हिन्दुस्तान की भावी पीढ़ी की आह मुझे न लगे कि हिंदुस्तान के विभाजन में गाँधी ने भी साथ दिया था।”