Saturday, November 23, 2024
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सेक्युलर मुखौटे वाला खालिस्तानी आंदोलन, जहाँ भीड़तंत्र के सामने बेबस रही पुलिस: ‘ठेकेदारों’ से निपटने और कम्युनिकेशन पर सोचे केंद्र

आने वाले कानून के क्या फायदे हैं और इसके बिना क्या समस्याएँ आ रही हैं - इसे लोगों को समझाना दुष्कर कार्य नहीं है। बशर्ते, आपके संगठन के नेता इसमें लगाए जाएँ। पोस्टर-बैनर, बुकलेट और ऑनलाइन मैटेरियल्स पहले से छपवाए जाएँ। कार्यकर्ताओं को बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाए कि क्या होने जा रहा है और क्यों।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक से शुक्रवार (19 नवंबर, 2021) को सिखों के प्रथम गुरु नानक देव जी की जयंती पर तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। उनके इस फैसले ने पक्ष और विपक्ष, दोनों को हैरानी में डाल दिया। पिछले एक वर्ष से दिल्ली की सीमाओं को घेर कर बैठे किसान प्रदर्शनकारियों और उनके नेताओं को अपने करियर पर ग्रहण लगता नजर आया, तो विपक्ष के कुछ नेताओं को ऐसा लगा कि अचानक से पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका राजनीतिक आधार घिसक सा गया है।

राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “आज मैं आपको, पूरे देश को, ये बताने आया हूँ कि हमने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है। इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में, हम इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा कर देंगे। हमारी सरकार, किसानों के कल्याण के लिए, खासकर छोटे किसानों के कल्याण के लिए, देश के कृषि जगत के हित में, देश के हित में, गाँव गरीब के उज्जवल भविष्य के लिए, पूरी सत्य निष्ठा से, किसानों के प्रति समर्पण भाव से, नेक नीयत से ये कानून लेकर आई थी।”

उन्होंने कहा कि इन सबके बावजूद ‘इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से शुद्ध, किसानों के हित की बात’, हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “कृषि अर्थशास्त्रियों ने, वैज्ञानिकों ने, प्रगतिशील किसानों ने भी उन्हें कृषि कानूनों के महत्व को समझाने का भरपूर प्रयास किया। बरसों से ये माँग देश के किसान, देश के कृषि विशेषज्ञ, देश के किसान संगठन लगातार कर रहे थे। पहले भी कई सरकारों ने इस पर मंथन किया था।”

लेकिन, इस दौरान इस पर भी मंथन ज़रूरी है कि जिस तरह ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर 26 जनवरी, 2021 को दिल्ली में 300 पुलिसकर्मियों को घायल किया गया, लखबीर सिंह के हाथ-पाँव काट कर शव को टाँग दिया गया, मुकेश नामक किसान को ज़िंदा जला दिया गया और पश्चिम बंगाल की एक महिला का बलात्कार हुआ – क्या ये सब उस ‘आंदोलन’ का हिस्सा नहीं था? राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव, दर्शन पाल, गुरनाम सिंह चढूनी और हन्नान मोल्लाह क्या सच में ‘किसान नेता’ ही हैं?

खालिस्तानी ताकतों ने पहना सेक्युलर मुखौटा, ‘अलगाववाद’ का भय भी दिखा दिया

सबसे बड़ी बात तो ये है कि इस आंदोलन को जिस तरह से कृषि के नाम पर सिख कट्टरवाद और खालिस्तानी अलगाववाद से जोड़ा गया, वो एक बहुत बड़ी साजिश थी। अचानक से लंदन में सिखों के अलग मुल्क के ली रेफरेंडम होने लगा, प्रतिबंधित संगठन SFJ का पन्नू वीडियोज जारी करने लगा, कनाडा के नेताओं ने इस आंदोलन का समर्थन शुरू कर दिया और ISI ने पंजाब में इस आंदोलन को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी – इस बात ने ख़ुफ़िया एजेंसियों तक के कान खड़े कर दिए थे।

ये देखने वाली बात रही कि खालिस्तान समर्थक आंदोलन होने के बावजूद ये ‘सेक्युलर’ बना रहा। सिखों के गुरुओं पर प्रदर्शनी लगाई गई, जिसमें उनके बलिदान को दिखाया जा रहा था। मजे की बात तो ये कि मुस्लिम आंदोलनकारी भी उसमें शामिल हो रहे थे, ताकि सभी मजहबों की एकता दिखाई जा सके। सिख गुरुओं के साथ अत्याचार करने वाले मुस्लिम ही थे। लाल किला पर खालिस्तानी झंडा फहरा दिया गया, तलवार से पुलिसकर्मियों पर हमले हुए – लेकिन आंदोलन सेक्युलर बना रहा।

एक ऐसा ‘सेक्युलर’ आंदोलन, जिसमें सिखों के साथ-साथ ‘जाट प्राइड’ को भी आगे किया गया। 26 जनवरी की घटना के बाद आंदोलन लगभग ख़त्म सा हो गया था, लेकिन किसी तरह राकेश टिकैत ने रो-धो कर वीडियो वायरल करवाया और उसे पुनर्जीवित कर दिया। इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के बीच उनके जाति-समुदाय को लेकर मोदी सरकार के विरुद्ध घृणा फैलाई गई। इसे ‘सिख बनाम मोदी’ और ‘जाट बनाम मोदी’ कर दिया गया, लेकिन हाँ… ये ‘सेक्युलर’ बना रहा।

सरकार को लोगों तक पहुँचने में नाकामी मिली, क्या होना चाहिए था

आगे से कोई भी सुधारवादी कानून बनाए जाते हैं तो सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी अपने हर एक कार्यकर्ता को समझाए कि आखिर क्या होने जा रहा है और क्यों। इसके क्या फायदे हैं और इसके बिना क्या समस्याएँ आ रही हैं – इसे लोगों को समझाना दुष्कर कार्य नहीं है। बशर्ते, आपके संगठन के नेता इसमें लगाए जाएँ। पोस्टर-बैनर, बुकलेट और ऑनलाइन मैटेरियल्स पहले से छपवाए जाएँ। कार्यकर्ताओं को बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाए कि क्या होने जा रहा है।

इसके बाद दूसरा चरण आता है विरोध का। विरोध करने वाले निकलेंगे। GST-नोटबंदी के समय भी आए थे, CAA-NRC के लिए भी निकले थे और कृषि कानूनों पर हमने अभी देखा ही। जैसे ही विरोध शुरू हो, भाजपा को विरोध के हर के पॉइंट का जवाब देते हुए पुस्तिकाएँ और ऑनलाइन मैटेरियल्स छपवाने चाहिए और अपने कार्यकर्ताओं को लोगों को समझाने में लगाना चाहिए। ध्यान रहे, सब कुछ सरल-सपाट शब्दों में हो। भाजपा अपने नेताओं/प्रवक्ताओं को टीवी और अख़बारों के माध्यम से लगा कर जनता के मन में अपनी बात बिठा सकती है।

इस पर इसीलिए ध्यान देना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि भारत के सबसे लोकप्रिय नेता जिन्हें सुनने के लिए लाखों की भीड़ जुटती है और उनके सम्बोधन के लिए लोग टीवी खोल कर पहले से बैठे रहते हैं – उन्होंने इसे अपनी विफलता का कारण माना है। ‘किसानों को हम समझा नहीं पाए’ – उन्होंने स्पष्ट कहा है। समझाने के लिए मीडिया, इंटरनेट और जमीनी कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल करने के लिए पार्टी पहले से तैयार हो। सरकार के मंत्री, PIB-दूरदर्शन जैसी सरकारी मीडिया और रेडियो के जरिए गरीबों तक एक-एक बात पहले ही पहुँचाई जाए चाहिए थे। दिन में 10 बार ऐसा किया जाना चाहिए था।

ऐसे फैसलों से पहले भाजपा कम से कम उन क्षेत्रों के नेताओं/कार्यकर्ताओं की राय तो बृहद स्तर पर ले, जहाँ इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ना है। या फिर जहाँ इसका ज्यादा विरोध हो रहा हो। जब छोटे से छोटे कानून पर ये रणनीतियाँ अपनाई जाएँगी, तब विरोध करने वाले भी निकलने से पहले 10 बार सोचेंगे। विद्यालओं में शिक्षकों के माध्यम से छात्रों को समझाया जा सकता है, विश्वविद्यालयों में नाटिकाओं के जरिए ये कार्य ABVP वाले कर सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर देशहित के कार्य में RSS कार्यकर्ताओं की मदद भी ली जा सकती है।

हिंसक भीड़ से निपटने के लिए सुरक्षा व्यवस्था पहले से कड़ी की जाए

हरियाणा में भाजपा की सरकार है और दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत आती है। इसके बावजूद लाखों लोग पंजाब से हरियाणा को पार कर के दिल्ली सीमा पर आ जमते हैं। जिस उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, वहाँ से लगी दिल्ली की सीमाओं पर भी डेरा डाल दिया जाता है। पुलिस बैरिकेडिंग लगाती रह जाती है। 300 पुलिसकर्मी घायल होते हैं, उनके परिवार वाले प्रदर्शन करते हैं – लेकिन सड़कों पर कीलें ठोकने और तलवार से बचने के लिए उनके प्रशिक्षण को भी किसान नेता अत्याचार बता कर पेश करने में कामयाब हो जाते हैं। कैसे?

केंद्र सरकार को इस पर मंथन करने की ज़रूरत है कि आखिर दिल्ली की सीमाओं और सार्वजनिक सड़कों पर चल रहे ‘किसान आंदोलन’ के अस्थायी टेंट-तम्बुओं ने लाखों गाड़ियों का रास्ता बदल दिया और आसपास के गाँव वालों और रोजमर्रा के काम करने जाने वालों ने उनके विरोध में सामानांतर प्रदर्शन क्यों नहीं किया? ऐसा इसीलिए, क्योंकि उन्हें पता था कि जो दरियादिली पुलिस किसान आंदोलनकारियों के साथ दिखा रही है, वो उनके साथ बिलकुल नहीं दिखाएगी।

ये ढीठपन आखिर आया कहाँ से? कोरोना के सभी दिशानिर्देशों का पालन आम लोग करते रह गए, लेकिन किसान प्रदर्शनकारियों पर ऐसा लग रहा था कि देश का कोई कानून लागू ही नहीं होता है। लाल किला हिंसा के अनगिनत वीडियोज मौजूद थे, लेकिन दोषियों पर कार्रवाई नहीं हुई। कम से कम हिंसक भीड़ का नेतृत्व कर रहे लोगों पर तो कार्रवाई होती। सत्ता की हनक न सही, कानून का भय तो होना चाहिए न? या फिर इन आंदोलनकारियों का विरोध करने वालों को भी यही छूट दे दी जाती, ताकि वो भी सड़क पर उतर आएँ?

बात ये है कि भीड़तंत्र से निपटने के लिए पुलिस-प्रशासन मजबूत दिखे नहीं, मजबूत हो। एक कदम आगे बढ़ाने पर अगर कड़ी चेतावनी दी जाएगी और दूसरे कदम पर कार्रवाई होगी तो तीसरा कदम अधिकतर लोग नहीं बढ़ाएँगे और हिंसा की संभावना कम रहेगी। हिंसा करने वालों पर कड़ी कार्रवाई होगी तो आगे इस तरह के उदाहरण नहीं सेट होगा। वरना अगर जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 वापस बहाल करने के लिए आंदोलन खड़ा हो जाए तो क्या देश की सुरक्षा पर आफत खड़ा कर के कोई भी सरकार को ब्लैकमेल कर लेगा?

ठेकदारों के प्रति सरकार का नरम रुख उन्हें और ढीठ बनाता गया

8 बार सांसद रहे वामपंथी नेता हन्नान मोल्लाह को मीडिया ऐसे दिखाता रहा, जैसे वो कोई गरीब आदमी हों। राकेश टिकैत के भाई का स्टिंग होने के बावजूद वो अपनी शर्तों पर सरकार को नचाते रहे। लखीमपुर खीरी की घटना में उनकी मदद की ज़रूरत पड़ गई। योगेंद्र यादव आंदोलन के सूत्रधार बने रहे, जबकि गलत सूचनाएँ फैलाने का उनका लंबा इतिहास रहा है। दर्शन पाल हों या गुरनाम सिंह चढूनी, सब पर कई आरोप लगे लेकिन सरकार ने कार्रवाई नहीं की।

केंद्र सरकार में कई ऐसे नेता हैं, जो कृषि की पृष्ठभूमि से आए हैं और जिनकी जमीन पर अच्छी पकड़ है। इसके बावजूद ये ‘ठेकेदार’ किसानों में गलत सूचनाएँ फैलाने में कामयाब रहे और हिंसा भड़का-भड़का कर भी बचते रहे और विपक्ष के सभी दलों का समर्थन पाते रहे, तो इसमें यही कहा जाएगा कि शुरुआत में ही उन्हें खुला छोड़ कर गलती हुई। आखिर कुछ ही ‘ठेकेदार’ हर विरोध प्रदर्शन के समय क्यों निकलते हैं? योगेंद्र यादव तो CAA विरोधी आन्दोलनों के दौरान भी आगे-आगे थे।

हाँ, किसी को जबरदस्ती जेल में डाल कर जनता की नजर में ‘शहीद’ बनने का मौका नहीं दिया जा सकता, ताकि वो बाद में बाहर निकल कर अपनी राजनीति और चमकाए और फिर उससे भी बड़ा नेता बन बैठे। लेकिन हाँ, सरकार को कोई ऐसा तरीका ईजाद करना पड़ेगा कि इन ‘ठेकेदारों’ को उनके कृत्यों के लिए दोषी ठहराया जा सके और हिंसा भड़काने पर उनके खिलाफ कार्रवाई हो। वैसे भी राकेश टिकैत कह रहे हैं कि अब किसानों को MSP पर कानून चाहिए, वरना आंदोलन ख़त्म नहीं होगा।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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