लोकसभा में 17 नवंबर, 1972 को एक संविधान संशोधन विधेयक पर चर्चा हो रही थी। उस दिन अंडमान और निकोबार द्वीप का नाम बदलकर ‘शहीद और स्वराज द्वीप’ किया जाना प्रस्तावित था। चर्चा के दौरान कॉन्ग्रेस (आई) के सांसद राम गोपाल रेड्डी ने सुभाष चन्द्र बोस, श्री अरविन्द और विनायक दामोदर सावरकर को ‘आतंकवादी’ कहकर संबोधित किया। जब इसका विरोध हुआ तो रेड्डी ने कहा कि मुझे यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने शर्मसार करने वाले इस शब्द पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी। ऐसा लगता है कि क्रांतिकारियों के अपमान को उन्होंने अपनी मौन स्वीकृति दी थी।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ‘आतंकवादी’ बताने पर कॉन्ग्रेस की आलोचना होनी तय थी। अपने बचाव में सरकार ने 7 मार्च, 1973 को सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने का निर्णय लिया। यह ब्रिटिश सरकार से भारत की आज़ादी का 26वां और सावरकर के निधन का 7वां साल था। ऐसा भी नहीं है कि यह पहला और आखिरी मौका था जब सावरकर सहित अन्य सेनानियों को बेइज्जत किया गया हो। साल 1957 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने एक विधेयक पेश किया था, जिसमें सावरकर के साथ वीरेन्द्र कुमार घोष (श्री अरविन्द के भाई), डॉ. भूपेंद्र नाथ दत्ता (स्वामी विवेकानंद के भाई) के बलिदान को मान्यता दी जानी थी। चर्चा के आखिर में मतदान किया गया, चूँकि कॉन्ग्रेस बहुमत में थी तो विधेयक भी पारित न हो सका।
अगर सिर्फ सावरकर का अध्ययन करें तो पता चलता है कि उनका अनादर हर मौके पर किया गया। कई दफा तो उनके साथ जबरन अमानवीय सलूक किये गए। जैसे 1950 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नई दिल्ली के दौरे पर थे। सावरकर उस समय 1,400 किलोमीटर दूर मुंबई में थे। हालाँकि वे नेहरू-लियाकत पैक्ट का शांतिपूर्ण विरोध जरुर कर रहे थे, जो उनका लोकतांत्रिक अधिकार था। लियाकत अली खान की यात्रा को ध्यान में रखते हुए अचानक सावरकर को नज़रबंद कर दिया गया था।
भारत सरकार द्वारा इस कदर मनमर्जी वाला रवैया पूर्णतः अलोकतांत्रिक था। असल में सावरकर की राजनैतिक सूझबूझ, विचारों के प्रति सटीक नजरिया और लेखनी जनता में लोकप्रिय थी। इसलिए एक ज़माने में ब्रिटिश सरकार उन्हें जनता के बीच बोलने से रोकती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कॉन्ग्रेस सरकार अंग्रेजों के समान ही समान बर्ताव कर रही थी। सावरकर का कद इतना विशाल था कि जिन्ना भी उन्हें असाधारण व्यक्ति मानते थे। यह 1941 में मुस्लिम लीग के मद्रास अधिवेशन की बात है। जिन्ना ने अपने उस अध्यक्षीय भाषण में सावरकर को चार बार याद किया। वैसे जिन्ना का स्मरण किए जाने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं था, बस यह किस्सा स्पष्ट करता है कि सावरकर अपने विरोधियों में भी व्यापक रूप से असरदार थे।
उसी शहर में उसी साल नेशनल लिबरल फेडरेशन ऑफ इंडिया का 41वां अधिवेशन बुलाया गया था। आर.पी. परांजपे ने हिन्दू महासभा के संबंध में एक प्रस्ताव पेश किया। सावरकर की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा, “यहाँ मौजूद सभी उदारवादियों को विभिन्न सामाजिक प्रश्नों पर सावरकर के रुख का पूरी तरह से और अधिकतम समर्थन करना चाहिए।” परांजपे पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज के प्रिंसिपल रह चुके थे। उस समय उन्होंने ही सावरकर को उनके राष्ट्रवादी विचारों के चलते कॉलेज से निष्कासित किया था। अब एक समय ऐसा भी आया जब वे सावरकर की सराहना करने से अपने आप को रोक नहीं पाए।
सावरकर में इतनी कुशलता और क्षमताएँ होने के बावजूद उन्हें अपने जीवन में कोई ख़ास सम्मान नहीं मिला। उन्हें पहली और आखिरी प्रतिष्ठा फरवरी 2003 में मिली। एनडीए सरकार ने सावरकर की तस्वीर को संसद भवन में लगाने का निर्णय लिया और उसका लोकार्पण भारत के राष्ट्रपति ने किया। हालाँकि यह निर्णय इतना भी आसान नहीं था। इससे दो साल पहले वाजपेयी सरकार पोर्ट ब्लयेर एअरपोर्ट को सावरकर के नाम पर बदलने का प्रस्ताव लेकर आई। इस कदम का तीव्र विरोध कम्युनिस्ट दलों की तरफ से आया। वैसे 21वीं सदी के कम्युनिस्ट भूल गए कि पिछली सदी में सावरकर के समर्थकों में उन्हीं के सर्वोच्च नेता एच एन मुखर्जी शामिल थे।
सावरकर के देहांत के बाद एच एन मुखर्जी ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सरकार को याद दिलाया कि सावरकर पर शोक संवेदनाएँ प्रकट करनी चाहिए। कॉन्ग्रेस के कद्दावर नेता रहे और तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष हुकुम सिंह ने इस माँग को सिरे से ख़ारिज कर दिया। इससे पहले सावरकर जब बीमार हुए तो सरकार से माँग की गई कि उनके इलाज के लिए उन्हें भत्ता दिया जाना चाहिए। एक खानापूर्ति के तहत उन्हें मात्र 1,000 रुपए की सरकारी सहायता उपलब्ध कराई गई थी।
सावरकर का तिरस्कार यहाँ भी नहीं थमा। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद कॉन्ग्रेस सरकार ने भरोसा दिलाया कि उन पर स्मरणीय डाक टिकट जारी किया जायेगा। साल बीत जाने के बाद भी ऐसा नहीं किया गया। संसद में जब इस पर जवाब माँगा गया तो सरकार ने बेशर्मी से कह दिया कि पिछले साल से अब तक 8 डाक टिकट जारी किए गए हैं। सावरकर पर टिकट जारी न होने पर मंत्री आई के गुजराल ने बहाना कर दिया कि टिकट में लगने वाला कागज उपलब्ध नहीं है। आख़िरकार तीन साल के लंबे इंतज़ार के बाद 28 मई, 1970 को उन पर साधारण डाक टिकट जारी कर दिया गया।
एनडीए सरकार में पेट्रोलियम मंत्री राम नाइक ने सेल्युलर जेल में एक स्वतंत्रता ज्योति लगाए जाने का विचार पेश किया। इसमें सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, मदनलाल धींगरा सहित वीर सावरकर के विचारों को भी वहाँ लगाया जाना था। तभी दिल्ली की सत्ता में परिवर्तन हो गया और यूपीए ने अपनी सरकार बनाई। विवादास्पद नेता मणिशंकर अय्यर पेट्रोलियम मंत्री बनाए गए। मंत्री बनते ही उन्होंने सावरकार के उद्धरण को वहाँ से हटवा दिया। विरोध न हो इसके लिए अनूठा तरीका निकला गया। सावरकर के स्थान पर महात्मा गाँधी को शामिल कर दिया गया।
जबकि सावरकर और महात्मा गाँधी के विचारों को एक साथ वहाँ लगाया जा सकता था। इससे भी अधिक दुखद यह था कि अपनी इस हरकत पर सदन में अय्यर ने कभी एक शब्द नहीं बोला। पूरी यूपीए सरकार उनके बचाव में पीछे खड़ी हो गयी। उनका पक्ष लगातार प्रणब मुखर्जी लेते रहे। इस सरकार ने सत्ता के अपने अंतिम दिनों में भी सावरकर के साथ अन्याय किया। फ़्रांस के मर्सोलिस शहर के मेयर ने वहाँ सावरकर का स्मारक बनाए जाने का प्रस्ताव बनाया। इसी शहर के बंदरगाह पर सावरकर ने भूमध्यसागर में ऐतिहासिक छलांग लगाई थी। इस सन्दर्भ में मेयर ने तत्कालीन सरकार को एक पत्र लिखकर अनुमति भी माँगी। दुर्भाग्य से सरकार ने इस पर चुप्पी साध ली और कोई जवाब नहीं दिया।
यह एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी की दास्ताँ है, जिसे उसका वास्तविक हक कभी नहीं मिला। वर्तमान कॉन्ग्रेस को शायद जानकारी नहीं है। साल 1923-24 में कॉन्ग्रेस अधिवेशन की महात्मा गाँधी अध्यक्षता कर रहे थे, तो सावरकर के सम्मान में कविता पाठ किया गया था। डॉ अम्बेदकर के जीवनी लेखक धनजंय कीर ने सावरकर के जीवन पर पुस्तक लिखी है। वे लिखते हैं, “समाज को बेहतर बनाने में दो तरह के महान व्यक्तियों का योगदान होता है। पहले जो समाज की समृद्धि का चिंतन करते है, उनमें गाँधी थे। जबकि दूसरे प्रकार के लोग समाज में अनुशासन के जरिए उन्नति लाते हैं, जिनका प्रतिनिधित्व सावरकर करते हैं। जन समुदाय को प्रेरित करने की क्षमता, एक राजनेता की अंतर्दृष्टि और एक राजनीतिक भविष्यवक्ता की दूरदर्शिता सावरकर के पास थी।”