कल रविवार (सितम्बर 8, 2019) को फ़िरोज़ गाँधी की पुण्यतिथि थी। उनके पोते राहुल गाँधी और पोती प्रियंका गाँधी ने उन्हें याद तक न किया। बात-बात पर नेहरू, इंदिरा और राजीव का नाम लेने वाले कॉन्ग्रेस नेता उन्हें याद
तक नहीं करते। बहू सोनिया गाँधी ने सरनेम तो लिया लेकिन ससुर को भूला बैठीं। इसका कारण क्या है? इससे जानने के लिए हम 6 महीने पीछे चलते हैं और फिर नेहरू से लेकर इंदिरा काल में कॉन्ग्रेस की करतूतों को देख कर समझेंगे कि आखिर क्यों फ़िरोज़ को याद नहीं किया जाता?
आपको याद होगा जब प्रियंका गाँधी ने रविवार (मार्च 17, 2019) की रात स्वराज भवन में गुजारी थी। इस दौरान ‘भावुक’ प्रियंका ने अपनी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को भी याद किया था। उन्होंने बताया था कि उनकी दादी बचपन में उन्हें ‘जॉन ऑफ ओर्क’ की कहानी सुनाया करती थी। लेकिन, प्रियंका गाँधी ने अपने दादाजी को याद करना मुनासिब नहीं समझा। आनंद भवन से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित फ़िरोज़ गाँधी की कब्र को प्रियंका ने वैसे ही नज़रअंदाज़ किया, जैसे राहुल व सोनिया करते आए हैं।
ऐसे में प्रियंका गाँधी जब अपनी दादी की बात कर रही थी, लोगों द्वारा यह पूछना लाजिमी था कि वह अपने दादा को कब याद करेंगी? पारसी समुदाय से आने वाले फ़िरोज़ जहाँगीर गाँधी का निधन 8 सितंबर 1960 को हो गया था। फ़िरोज़ ने महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर अपना सरनेम ‘गैंडी’ से ‘गाँधी’ कर लिया था।
Priyanka Gandhi rides boat to test political waters in Uttar Pradesh
— Mohandas Pai (@TVMohandasPai) March 18, 2019
Very sad!our leaders talk to us about Joan of Arc,told by their grandmother,not Rani of Jhansi,Kittur Rani Chenamma,our own heroes!When will our leaders learn to respect Indian heroes? https://t.co/LtRQUz8W8n
प्रियंका गाँधी से पहले राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी भी फ़िरोज़ गाँधी के कब्र को नज़रअंदाज़ करते आए हैं। कॉन्ग्रेस के प्रथम परिवार सहित सभी बड़े नेता राजीव गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी की समाधि पर तो जाते रहे हैं, लेकिन फ़िरोज़ गाँधी की समाधि को कोई पूछता तक नहीं। फ़िरोज़ के अलावा गाँधी परिवार के अन्य पूर्वजों की जयंती या पुण्यतिथि के मौके पर सभी बड़े कॉन्ग्रेसी नेताओं का जमावड़ा लगता है, लेकिन फ़िरोज़ की जयंती और पुण्यतिथि कब आकर निकल जाती है, इसका पता भी नहीं चलता।
उनका कब्र यूँ ही सूना पड़ा होता है, सभी मौसम में, बारहो मास। चुनावी मौसम में भी कॉन्ग्रेस द्वारा इंदिरा, राजीव और नेहरू तो ख़ूब याद किए जाते हैं लेकिन उनकी ही पार्टी में फ़िरोज़ का नाम लेने वाला भी कोई मौजूद नहीं है।
ऐसा नहीं फ़िरोज़ गाँधी कॉन्ग्रेसी नहीं थे या राजनीति में उनकी हिस्सेदारी नहीं थी। गाँधी परिवार की परंपरागत सीट रायबरेली के पहले सांसद भी फ़िरोज़ गाँधी ही थे। 1952 में हुए स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव में उन्होंने यहाँ से जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1957 में भी उन्होंने यहाँ से जीत दर्ज की थी। राजनीति में सक्रिय रहने वाले फ़िरोज़ गाँधी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ भी काफ़ी मुखर थे।
आप जान कर चौंक जाएँगे कि उनके विरोध के कारण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था। उस दौरान कॉन्ग्रेस नेताओं के बड़े उद्योगपतियों के साथ अच्छे-ख़ासे सम्बन्ध बनने लगे थे, जिसका फ़िरोज़ ने भरपूर विरोध किया था।
क्या कॉन्ग्रेस इसलिए फ़िरोज़ गाँधी को याद नहीं करना चाहती क्योंकि उनका नाम आते ही उनका नेहरू सरकार की आलोचना करना फिर से प्रासंगिक हो जाएगा? क्या कॉन्ग्रेस इसलिए फ़िरोज़ को याद नहीं करना चाहती, क्योंकि उनका नाम आते ही उनके कारण नेहरू के मंत्री के इस्तीफा देने की बात फिर से छेड़ी जाएगी? क्या कॉन्ग्रेस फ़िरोज़ खान की बात इसलिए नहीं करना चाहती, क्योंकि बड़े कॉन्ग्रेस नेताओं व उद्योगपतियों के बीच संबंधों की बात फिर से चल निकलेगी?
जब उनका नाम आएगा, तो इतिहास में फिर से झाँका जाएगा। अगर उनका नाम आएगा तो उनके सुनसान कब्रगाह की बात आएगी, कॉन्ग्रेस नेताओं व गाँधी परिवार की थू-थू होगी। अब कॉन्ग्रेस चाह कर भी फ़िरोज़ गाँधी की प्रासंगिकता को ज़िंदा नहीं करना चाहेगी, क्योंकि उनसे सवाल पूछे जाएँगे।
आपको बता दें कि पारसी फ़िरोज़ गाँधी का अंतिम संस्कार पूरे हिन्दू रीती-रिवाजों के साथ किया गया था। बीबीसी के अनुसार, उन्होंने कई बार अंतिम संस्कार के पारसी रीति-रिवाजों से नाख़ुशी जताई थी। उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका क्रिया-कर्म हिन्दू तौर-तरीकों से ही किया जाए। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने राहुल गाँधी को उनके दादा की याद दिलाई। जनवरी 2019 में शर्मा ने राहुल गाँधी को कुम्भ में आने का आमंत्रण देते हुए उन्हें फ़िरोज़ गाँधी के कब्रगाह पर मोमबत्ती जलाने की सलाह दी थी। शर्मा ने कहा था कि राहुल के ऐसा करने से दिवंगत आत्मा को शांति मिलेगी, फ़िरोज़ गाँधी की कब्रगाह भी प्रयागराज में ही है।
पारसी कब्रगाह के एक कोने में फ़िरोज़ गाँधी की कब्र अभी भी आगुन्तकों की बाट जोह रही है। राहुल गाँधी शायद एक-दो बार वहाँ जा चुके हैं, लेकिन पिछले 8 वर्षों से शायद ही गाँधी परिवार का कोई व्यक्ति वहाँ गया हो। पिछले एक दशक में प्रियंका गाँधी के वहाँ जाने के कोई रिकॉर्ड नहीं हैं। आलम यह है कि कब्रिस्तान की रखवाली के लिए एक चौकीदार है जिसके रहने के लिए दो कमरे बने हुए हैं। इसके अलावा कब्रिस्तान में एक कुआँ और एक मकान है। कब्र और कब्रिस्तान की स्थिति जर्जर हो चुकी है। अपने ही परिवार की उपेक्षा के कारण यह स्थिति हुई है। कहा जाता है कि 1980 में उनकी बहू मेनका गाँधी ने यहाँ का दौरा किया था। मेनका गाँधी अभी मोदी कैबिनेट में महिला एवं बाल विकास मंत्री हैं।
अगर कॉन्ग्रेस फ़िरोज़ गाँधी की बात करती है तो यह भी याद दिलाया जाएगा कि उन्ही की पत्नी इंदिरा गाँधी ने अपने पति के द्वारा बनवाए गए क़ानून को कचरे के डब्बे में फेंक दिया था। नेहरू काल में नियम था कि संसद के भीतर कुछ भी कहा जा सकता था, लेकिन अगर किसी पत्रकार ने इस बारे में कुछ लिखने या बोलने की कोशिश की तो उसे सज़ा तक मिल सकती थी। इसे हटाने के लिए फ़िरोज़ गाँधी ने संसद में प्राइवेट मेम्बरशिप बिल पेश किया। बाद में इस क़ानून को फ़िरोज़ गाँधी प्रेस लॉ के नाम से जाना गया। आपातकाल के दौरान इंदिरा ने अपने पति के नाम के इस क़ानून की धज्जियाँ उड़ा कर रख दी।
Because,
— Akshay Rao ?? (@akshaysrao) September 12, 2018
1. Feroze Gandhi fought corruption within Congress. His work forced a finance minister (TT Krishnamachari) to resign. From Dalmia case to Mundhra case, he fought corruption vehemently.
2. He fought for FoE and press freedom. He brought Press Law thru Pvt members bill.
क्या कॉन्ग्रेस को इस बात के चर्चा में आने का डर है? बाद में विरोधी जनता पार्टी की सरकार ने इस क़ानून को फिर से लागू किया। इस तरह से फ़िरोज़ गाँधी को अपनों ने ही दगा दिया, विरोधियों ने अपनाया।
क्या कारण है कि देश के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक परिवार के पूर्वज की कब्रगाह पर कचरों का ढेर लगा पड़ा है? दशकों तक केंद्र से लेकर यूपी तक कॉन्ग्रेस की सरकार रही, लेकिन फ़िरोज़ गाँधी उपेक्षित क्यों रहे? सवाल तो पूछे जाएँगे। प्रियंका से भी पूछे जाएँगे। दादी को याद कर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाली प्रियंका-राहुल को दादा को याद करने से शायद कोई राजनीतिक फ़ायदा न मिले। अफ़सोस कि भारत में एक ऐसा भी परिवार है जो अपने पुरखों को याद करने के मामले में भी सेलेक्टिव है।