‘अल्पसंख्यक’ शब्द का अनवरत दोहन और दुरुपयोग भारतीय राजनीति का कड़वा सच है। भारतीय संविधान में सन्दर्भ-विशेष में प्रयुक्त इस शब्द को आज तक अपरिभाषित छोड़ कर मनमानी की जाती रही है। इस मनमानी ने दो समुदायों – हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास, असंवाद और अलगाव का बीजारोपण किया है।
तथाकथित प्रगतिशील-पंथनिरपेक्ष दलों की स्वार्थ-नीति का शिकार यह शब्द उनके लिए वोटबैंक साधने का उपकरण रहा है। आज तुष्टिकरण की राजनीति की विदाई बेला में “वास्तविक अल्पसंख्यकों” की पहचान करते हुए उन्हें संरक्षण-प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। साथ ही, समस्त भारतीयों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करते हुए “समान नागरिक संहिता” भी लागू की जानी चाहिए।
वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करके राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 और अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अधिनियम-2005 को समाप्त करने की माँग की है। उन्होंने अपनी इसी याचिका में यह भी कहा है कि यदि इन आधारहीन, अनुचित, अतार्किक और असंवैधानिक अधिनियमों को समाप्त नहीं किया जा सकता है तो इन प्रावधानों का लाभ उन राज्यों में हिन्दुओं को भी मिलना चाहिए जहाँ कि वे ‘अल्पसंख्यक’ हैं।
इस याचिका में संविधान में एक विशिष्ट सन्दर्भ में प्रयुक्त अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित करने और उसकी सुस्पष्ट निर्देशिका/नियमावली बनाने की न्यायसंगत और समीचीन माँग की गई है। दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 29, 30 और 350 में अल्पसंख्यक शब्द प्रयुक्त हुआ है। लेकिन वहाँ इसकी व्याख्या नहीं की गई है। इसका फायदा उठाते हुए कॉन्ग्रेस सरकार ने सन् 1992 में अल्पसंख्यक आयोग के गठन के समय वोटबैंक की मनमानी राजनीति की।
अल्पसंख्यक और भाषाई अल्पसंख्यकों की प्रचलित परिभाषा पर सवाल उठाते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि प्रचलित परिभाषा के अनुसार तो आज देश में सैकड़ों धार्मिक अल्पसंख्यक समूह और हजारों भाषाई अल्पसंख्यक समूह होने चाहिए। लेकिन यह दर्जा मुट्ठीभर समुदायों को ही क्यों दिया गया है? क्या यह सांप्रदायिक तुष्टिकरण की राजनीति का नायाब उदाहरण नहीं है? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सेक्शन 2(सी) के तहत मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदायों को अल्पसंख्यक माना गया है। सन् 2014 में जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया था।
इस याचिका के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय में अपना शपथ-पत्र दायर करते हुए भारत सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि अल्पसंख्यक का दर्जा देने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को ही नहीं है; बल्कि राज्य सरकार भी किसी समुदाय को उसकी संख्या और सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर यह दर्जा दे सकती है।
अल्पसंख्यक मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू-कश्मीर, लक्ष्यद्वीप, पंजाब, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर,अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख जैसे राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों में हिन्दुओं की संख्या काफी कम है। अतः वे अल्पसंख्यक होने की पात्रता को पूरा करते हैं। सम्बंधित राज्य सरकार चाहें तो अपनी भौगोलिक सीमा में उन्हें अल्पसंख्यक घोषित करते हुए विशेषाधिकार और संरक्षण प्रदान कर सकती हैं। महाराष्ट्र सरकार ने यहूदियों को अपने राज्य में अल्पसंख्यक का दर्जा देकर इसकी शुरुआत भी कर दी है। इसी तरह गुजरात सरकार ने भी अपने यहाँ जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया है।
उपरोक्त पृष्ठभूमि में ‘अल्पसंख्यक’ की अधिक समावेशी और तर्कसंगत परिभाषा देते हुए व्यापक नियमावली बनाया जाना जरूरी है, ताकि केंद्र/राज्य अपनी मनमानी करते हुए इस प्रावधान का दुरुपयोग न कर सकें। अश्विनी उपाध्याय ने यह याचिका दायर करते हुए ‘टीएमए पाई फाउंडेशन बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया’ मामले में उच्चतम न्यायालय की 11 सदस्यीय संविधान पीठ के 2003 में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय को आधार बनाया है।
इस निर्णय में माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक का निर्धारण करने वाली इकाई केवल राज्य हो सकती है। यहाँ तक कि अल्पसंख्यकों से सम्बंधित केन्द्रीय कानून बनाने के लिए भी इकाई राज्य होंगे, न कि सम्पूर्ण देश होगा। इसलिए धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों का नाम-निर्धारण राज्यों की जनसंख्या के आधार पर अर्थात् राज्य विशेष को इकाई मानकर उसके आधार पर होना चाहिए। यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है।
यह रोचक किन्तु विचित्र ही है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों की संख्या (19.4 करोड़) पाकिस्तान (18.4) से अधिक है। फिर वे अल्पसंख्यक क्यों और कैसे हैं; यह विचारणीय प्रश्न है।
मई 2014 में अल्पसंख्यक मामले मंत्रालय का कार्यभार संभालते समय नजमा हेपतुल्ला द्वारा दिया गया बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने तब कहा था कि भारत में मुस्लिम इतनी बड़ी संख्या में हैं कि उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता है। इस सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दी गयी ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा उल्लेखनीय है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार-“ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो,उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा।” इसी प्रकार भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का उल्लेख करते समय विलुप्तप्रायः या संकटग्रस्त समुदायों को अपने धर्म और रीति-रिवाजों के पालन हेतु सुरक्षा और संरक्षण देने की बात की गई है।
संविधान में किसी भी समुदाय को कम या अधिक अधिकार देने की बात नहीं की गई है। उसमें स्पष्ट तौर पर सभी समुदायों को समान अधिकार देने की बात की गई है। लेकिन उपरोक्त दो अधिनियमों में संविधान की भावना से इतर मनमाने ढंग से समुदाय विशेष को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर विशेष सुविधाएँ, अधिकार और वरीयता देने की गलत परम्परा चल निकली है। गौरतलब यह है कि संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा और संविधान की भावना के अनुसार क्या मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक का दर्जा पाने का अधिकारी है?
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त तथ्यों का गंभीर संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 और अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अधिनियम-2005 के प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकने की अनिवार्य पहल करनी चाहिए। केंद्र सरकार का शपथ-पत्र इस दिशा में एक विकल्प प्रस्तावित करता है।
राज्य सरकारों द्वारा अपने राज्य की भौगोलिक सीमा में धार्मिक अल्पसंख्यकों की पहचान और नाम-निर्धारण करके इस ऐतिहासिक अन्याय का शमन किया जा सकता है। अभी तक राज्य विशेष में संख्या की दृष्टि से जो बहुसंख्यक हैं, वे राज्य और केंद्र सरकारों की योजनाओं में अल्पसंख्यक रहे हैं। लेकिन समस्या के पूर्ण समाधान के लिए अल्पसंख्यक समुदायों को परिभाषित करने और उन्हें यह दर्जा देने और इसके प्रावधानों के तहत मिलने वाले विशेषाधिकारों और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय द्वारा एक औचित्यपूर्ण, तार्किक और स्पष्ट नियमावली और दिशा-निर्देशिका बनाया जाना जरूरी है।
कुछ लोगों द्वारा जिलों की जनसंख्या को आधार/इकाई बनाकर जिला स्तर पर पर अल्पसंख्यक का दर्जा देने की भी बात की जा रही है। इससे समस्या खत्म नहीं होगी; बल्कि काफी अराजकता और अव्यवस्था फ़ैल जाएगी।
भारत विविधतापूर्ण देश है। इसमें भाषिक विविधता तो बेहिसाब है। इसीलिए ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी’ कहा जाता है। इसलिए राज्य की जनसंख्या को आधार/इकाई बनाकर राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक का दर्जा देने का प्रस्ताव अधिक तार्किक और समीचीन है।
संख्या के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और शासन-प्रशासन में भागीदारी और उपस्थिति को भी आधार बनाया जाना चाहिए। लक्ष्यद्वीप (96.2%), असम (34.2%), पश्चिम बंगाल (27%), केरल (26.6%), उत्तर प्रदेश (19.3%) और बिहार (17%) आदि में मुस्लिम समुदाय की आबादी और भागीदारी/हिस्सेदारी जरा भी कमतर नहीं है। यहाँ के विधान मंडलों से लेकर नौकरशाही और सार्वजनिक जीवन के विविध क्षेत्रों में उनकी समुचित भागीदारी है।
असम, पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों में तो मुस्लिम तुष्टिकरण और संख्या से अधिक हिस्सेदारी होने के कारण गैर-मुस्लिम समुदाय भयभीत और असुरक्षित हैं। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि मुस्लिम राज्य में अल्पसंख्यक नहीं हैं क्योंकि उनकी संख्या बहुत अधिक है और वे ताकतवर भी हैं। उन्हें अस्तित्वसंकट भी नहीं है।
अल्पसंख्यक की परिभाषा और नीति-निर्देशक सिद्धांत बनाते समय संविधान की मूल भावना का ध्यान रखा जाना अत्यंत आवश्यक है। ध्यातव्य है कि कम संख्या अल्पसंख्यक होने का एक आधार है, किन्तु एकमात्र आधार नहीं है। जिस प्रकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के निर्धारण में जाति विशेष की स्थिति अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हो जाती है, ठीक उसी प्रकार अल्पसंख्यकों के मामले में स्थिति-परिवर्तन क्यों नहीं होता?
माननीय उच्चतम न्यायालय को अपने निर्णय में इन सभी विसंगतियों और विडम्बनाओं का सटीक समाधान प्रस्तावित करने की आवश्यकता है, ताकि देश में सबका साथ और सबका विकास हो सके। साथ ही, संवैधानिक प्रावधानों का प्रयोग सम्बंधित समुदायों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हो, न कि समुदाय विशेष के तुष्टिकरण और वोटबैंक की राजनीति के लिए हो। निश्चय ही, जम्मू-कश्मीर इन प्रावधानों के दुरुपयोग का सर्वप्रमुख उदाहरण है।