हाई स्कूल याद है आपको? अब जरा उन निबंधों को याद करें, जिसका विषय होता था, “अगर मैं भारत का प्रधानमंत्री होता तो…” मौजूदा हालातों को देखकर ऐसा लगता है कि हमारे देश के ‘बुद्धिजीवियों’ और ‘अर्थशास्त्रियों’ ने 14 साल के बच्चों से प्रेरणा ली है और कोरोना वायरस महामारी की वजह से उत्पन्न हुए आर्थिक संकट से कैसे निपटा जाए, इसके लिए 7 सूत्रीय एजेंडे को लेकर आए हैं।
आम आदमी पार्टी (AAP) के पूर्व सदस्य योगेन्द्र यादव ने शुक्रवार (मई 22, 2020) को उस सूची को साझा किया। ये सुझाव ऐसा था, जिसे मेरे भतीजे का हाई स्कूल ग्रुप भी ला सकता था।
Leading economists, intellectuals and activists propose a 7-point Plan of Action to respond to the current crisis pic.twitter.com/YbEitn6XQw
— Yogendra Yadav (@_YogendraYadav) May 22, 2020
आइए हम इन 7 सुझाओं का एक-एक कर विश्लेषण करते हैं।
10 दिनों में प्रवासियों को वापस लाएँ
प्रवासियों को 10 दिनों में घर वापस लाने की माँग, इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे भारत के बुद्धिजीवियों और मेनस्ट्रीम मीडिया के अधिकतर पत्रकारों ने गणित और तर्क की भारी अवहेलना करते हुए उसे ताक पर रख दिया। वे इस 10 दिनों में कैसे पहुँचे यह एक रहस्य बना हुआ है।
उन्होंने एक पखवाड़ा (दो सप्ताह) जैसा भी कुछ नहीं कहा। उन्होंने सटीक 10 दिन कहा। क्या वे प्रवासियों की कुल संख्या जानते हैं और उन तक पहुँचने के लिए परिवहन संसाधनों की पर्याप्तता का आकलन किया? क्या कुछ सांख्यिकीय मॉडलिंग के कारण वायरस प्रसार की भविष्यवाणी में 10 दिनों का लक्ष्य निर्धारित किया गया? कोई नहीं जानता, सिवाय 10 दिनों के।
COVID मरीजों और फ्रंटलाइन वर्कर्स के साथ खड़े रहें
प्रतिभावान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले इसका आह्वान किया था, तब उनके इस अभियान का इन्हीं बुद्धिजीवियों ने मजाक उड़ाया था। पीपीई, वेंटिलेटर और इस तरह की महामारी से लड़ने के लिए अन्य आवश्यक वस्तुओं के निर्माण के मामले में सरकार ने आत्मनिर्भर बनने के लिए कई कदम उठाए हैं।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में चीनी कोरोना वायरस के कारण होने वाली आर्थिक मंदी से निपटने के लिए ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के तहत 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा की। ये बात सभी लोग मानते हैं कि फिलहाल देश के समक्ष बहुत सारी चुनौतियाँ हैं, लेकिन इसे जानने के लिए इन बुद्दिजीवियों की तो कतई आवश्यकता नहीं है।
कोई भी खाली पेट न रहे
यह संवेदनहीन लग सकता है मगर इस प्वाइंट से ऐसा लग रहा है जैसे पहले भारत यूटोपियन राज्य था, जहाँ लॉकडाउन से पहले कोई भी भूखा नहीं रहता था। भारत में यह समस्या आजादी के पहले से रही है और आजादी के बाद भी ढाँचागत समस्याओं के कारण यह बरकरार रही।
यह समस्या इतनी विकराल थी कि इंदिरा गाँधी ने 1971 के आम चुनाव में पहली बार ‘गरीबी हटाओ’ का चुनावी नारा दिया था और फिर 2019 के चुनावों के दौरान उनके पोते राहुल गाँधी ने भी इस नारे का इस्तेमाल किया। दुर्भाग्य से भारत में गरीबी महज एक चुनावी मुद्दा बनकर रह गया है। बहरहाल, बुद्धिजीवी यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि भूख से जुड़ा हर मामला लॉकडाउन की वजह से है।
लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने विभिन्न कदम उठाए ताकि गरीब और कमजोर वर्ग को नुकसान न हो। उन्हें राशि और भोजन प्रदान किया गया। केंद्रीय कैबिनेट ने हाल ही में आत्मनिर्भर भारत अभियान को मंजूरी दी, जिसमें फँसे प्रवासियों के लिए खाद्यान्न आवंटित किया गया था। इससे विभिन्न राज्यों में रहने वाले लगभग 8 करोड़ लोगों को लाभ होने की उम्मीद है।
सभी के लिए नौकरियाँ
केवल ‘बुद्धिजीवी’ ही इतने बुद्धिमान होते हैं कि वे अपना होमवर्क करने से पहले इस तरह के मिस इंडिया टाइप भाषण लिखते हैं। विभिन्न राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्र सरकार पहले से ही इस बारे में ब्योरा दे रही है कि रोजगार के अवसरों को कैसे आगे बढ़ाया जाएगा।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने पहले ही अधिकारियों को अगले 6 महीनों में 15 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए विवरण देने का निर्देश दिया है। केंद्र सरकार ने अपनी आत्मानिर्भर भारत अभियान आर्थिक पैकेज घोषणा में नौकरी के अवसर पैदा करने के लिए विभिन्न उपायों और वित्तीय प्रोत्साहन को लेकर जानकारी दी।
सभी के लिए आय
इतने बड़े राष्ट्र में कुछ भी पर्याप्त नहीं है। और क्या हमें सच में इन बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों के साथ आने की जरूरत है? बिना किसी विवरण के आँकड़ों को पेश कर दिया गया है। वो कैसे पहुँचेंगे या फिर धन कहाँ से आएगा, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है। दरअसल ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के आत्मनिर्भर भारत अभियान की घोषणा के बाद ‘बुद्धिजीवियों’ ने कुछ नोटों की स्क्रूटनी की और जो कुछ भी पहले ही घोषित किया गया था, उन्होंने उसमें से सारांश लिया और फिर मनमाने ढंग से अपने अनुरूप उन्हें पेश किया।
उदाहरण के लिए, योगेंद्र यादव के बुद्धिजीवियों के गिरोह ने हॉकर्स, विक्रेताओं, छोटे दुकानदारों को अपने कारोबार को फिर से शुरू करने के लिए 10,000 रुपए की एकमुश्त सब्सिडी देने की बात की। पिछले हफ्ते, सीतारमण ने 50 लाख स्ट्रीट वेंडर्स को समर्थन देने के लिए राहत उपायों की घोषणा की। स्ट्रीट वेंडर्स के लिए, सरकार ने 10,000 रुपए की शुरुआती पूँजी के साथ 5000 करोड़ रुपए की विशेष क्रेडिट सुविधा की घोषणा की है।
इसके साथ ही मोदी सरकार ने यह भी घोषणा की कि वह एक महीने के भीतर एक विशेष योजना की शुरुआत करेंगे, जिससे स्ट्रीट वेंडर आसानी से ऋण ले सकेंगे। इसका उद्देश्य 5,000 करोड़ रुपए का नकद प्रदान करना है।
अर्थव्यवस्था सुधरने तक कोई ब्याज नहीं
यह आश्चर्यजनक है कि कैसे योगेंद्र यादव के गिरोह के अर्थशास्त्रियों का अर्थशास्त्र के साथ एक मुश्किल भरा रिश्ता है। NPA, कृषि ऋण माफी आदि के कारण बैंक पहले से ही तनावग्रस्त हैं। लगभग सभी बैंक परिसंपत्तियों पर कोई ब्याज नहीं – ऋण उनके लिए संपत्ति है – इसका मतलब है कि बैंक आगे भी दबाव में आएँगे।
बैंक अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। जब यादव और उनके मित्रों ने यह व्यापक सुझाव दिया, तो उन्होंने इसका एक भी समाधान नहीं दिया किया बिना ब्याज के बैंक कैसे चलेंगे। इसका एक ही उपाय हो सकता है कि RBI द्वारा करेंसी छापकर मुफ्त में लोगों में बाँट दिया जाए, ताकि वो अपनी आवश्यकतानुसार उसे खर्च कर सकेंं। उफ! क्या मैंने आगे अम्फान के बाद 11 सूत्रीय एजेंडे के साथ आगे आने के लिए एक सुझाव दे दिया?
नागरिकों के पास मौजूद सभी संसाधनों को राष्ट्रीय संसाधन माना जाए
अब निबंध “अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो…” के बारे में याद कीजिए, जिसके बारे में हमने पहले बातें की थी। इस पर निबंध लिखने वाले जिस बच्चे को A+ मिलता था, वो इसलिए मिलता था क्योंकि उसने अपने लेख में सभी ‘दिल छू लेने वाली और आदर्शवादी’ बातें लिखा था। लेकिन असल जिंदगी में वो बातें अव्यवहारिक ही होती थी।
ये बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री चाहते हैं कि आपके पास जो भी चीज हो, वो राष्ट्रीय संपत्ति हो, फिर वो आपका अंडरविअर ही क्यों न हो।
To all the leading economists, intellectuals and activists- I propose a one point response pic.twitter.com/MLcqvvDKrD
— Srishti Rajiv Sharma (@SrishtiRajiv) May 22, 2020
अब मैं नेटिजन्स के माध्यम से यह समझाने का प्रयास करती हूँ कि कोई भी तार्किक, सामान्य और समझदार इंसान इसके बारे में कैसा महसूस करेगा। खैर, सरकार को सभी तरफ से आने वाली सहायता को मना कर देना चाहिए और जिन लोगों ने पत्र पर दस्तखत किए हैं, उनकी संपत्ति को सार्वजनिक संपत्ति मानकर इस्तेमाल करना चाहिए। जैसे एक बॉलीवुड फिल्म में विलेन कहता है, सब का सारा माल हड़प लो।