“अध्यक्ष जी, मैं तीसरी बार गोरखपुर से लोकसभा का सदस्य बना हूँ। पहली बार मैं 25000 वोटों से जीता था। दूसरी बार 50000 से जीता था और तीसरी बार मैं लगभग डेढ़ लाख मतों से गोरखपुर से चुन कर आया हूँ… मैं आपसे ये अनुरोध करने के लिए आया हूँ कि क्या मैं इस सदन का सदस्य हूँ कि नहीं हूँ? क्या ये सदन मुझे संरक्षण दे पाएगा कि नहीं दे पाएगा?”
फफक फफक कर रोते हुए रुँधे गले से योगी आदित्यनाथ ने जब तत्कालीन लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी से ये गुहार लगाई थी तभी से समझो राजनीतिक रूप से एक नए योगी का जन्म हुआ था। बात 12 मार्च 2007 की है। लोकसभा का सत्र चल रहा था। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी। जनवरी में मुहर्रम के दौरान गोरखपुर में दंगा हुआ था। शहर में कर्फ्यू लगाया गया था। पर मुहर्रम का जलूस निकालने के लिए कर्फ्यू में ढील दी गई थी। तब उत्तर प्रदेश की कॉन्ग्रेस इकाई ने भी आरोप लगाया था कि दंगा खुद समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम वोटों को लामबंद करने के लिए करवाया था।
खैर, दंगे के खिलाफ सांसद योगी ने धरने की घोषणा की थी। मगर उन्हें राज्य की समाजवादी सरकार ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। उन्हें गिरफ्तार तो शांति भंग करने की मामूली सी धारा में किया गया था, जिसमें अक्सर थाने में जाकर छोड़ दिया जाता है। पर उन्हें 11 दिनों तक जेल में बंद कर दिया गया। उनके अनेक समर्थकों को प्रताड़ित किया गया। उसी से व्यथित और आक्रोशित योगी आदित्यनाथ सदन में अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाए थे। उन्होंने संसद से पूछा था, “अगर ये सदन मुझे संरक्षण नहीं दे सकता है तो आज ही मैं इस सदन को छोड़ कर जाना चाहता हूँ।”
खुद ‘सरंक्षण’ की माँग करने वाले योगी इस घटना से समझ चुके थे कि उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी जरूरत गुंडागर्दी, जोर-जबरजस्ती, दंगे, रंगदारी, अपहरण और बदमाशी को खत्म करने की है। इसलिए 2017 में मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने आमलोगों को भय और गुंडागर्दी से मुक्ति देने को अपने शासन का सबसे पहला कर्तव्य बनाया। धाकड़ पुलिस अफसरों को कानून-व्यवस्था ठीक करने में खुली छूट दी। राज्य के नामी बदमाशों में दहशत पैदा की। मुख्यतः बहन-बेटियों को मिली इस सुरक्षा की भावना ने ही उन्हें सारे पूर्वानुमान तोड़कर दोबारा राज्य का मुख्यमंत्री बनाया है।
ये बात पश्चिमी उतर प्रदेश की जाट बेल्ट में हुए मतदान से बिलकुल साफ़ हो जाती है। किसान आंदोलन के बाद अधिकतर विश्लेषक कह रहे थे कि जाटों में गुस्सा है और वे बीजेपी को वोट नहीं देने वाले। इस आंदोलन में नारा ही दिया गया था कि कृषि कानून लगने के बाद किसानों की ज़मीन छिन जाएगी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक रसूखदार जाट नेता से चुनाव से पहले मैंने टोह लेने के लिए फोन किया था, तो उन्होंने कहा था, “बेशक जाटों में नाराज़गी है। जाट के लिए दो चीजें बहुत मायने रखतीं हैं – ज़मीन और इज़्ज़त। लेकिन अगर ज़मीन और इज़्ज़त में से एक को चुनना हो तो जाट इज़्ज़त को चुनेगा।” उन्होंने मुझसे साफ़ कहा था कि बहन बेटियों को जो सुरक्षा योगी प्रशासन ने दी है, उसके बाद लोग किसे वोट देंगे ये टीवी पर तो बहस का मुद्दा हो सकता है, पर लोगों के मन में बिल्कुल स्पष्ट है कि वोट किसे देना है।
किसान आंदोलन से पैदा किए गए जाट मिथक के साथ ही योगी ने एक और मिथक को तोड़ा, वो था ब्राह्मणों की कथित नाराज़गी का मिथक। प्रदेश चुनाव से कोई एक डेढ़ साल पहले से बाकायदा एक अभियान जैसा राज्य में चला। वो अभियान था, चूँकि योगी स्वयं एक ठाकुर हैं इसलिए वे ब्राह्मण विरोधी हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में ठाकुर बनाम ब्राह्मण का मुद्दा पहले से ही चलता रहा है। हिस्ट्रीशीटर बदमाश विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद इस मुद्दे को खूब उछाला गया। ऐसा पेश किया गया मानो राज्य के ब्राह्मणों ने उस अपराधी को अपनी नुमाइंदगी का ठेका दे दिया था।
वैसे हिंदू मान्यताओं के अनुसार संन्यासी की कोई जाति नहीं होती। पर राजनीति जो न कराए सो कम है। उत्तर प्रदेश में तकरीबन 14% ब्राह्मण मतदाता हैं जो लगभग 115 सीटों पर तो सीधे किसी को जिताने या हराने की ताकत रखते हैं। इन्हीं को ध्यान में रखकर ये अभियान चला। इस अभियान को चलाने वाले जानते थे कि अयोध्या में राममंदिर का निर्माण शुरू होने और वाराणसी में काशी कॉरिडोर बनने के बाद ब्राह्मणों के मन में यदि एक गाँठ पैदा नहीं की गई तो चुनाव एकतरफा हो जाएगा। इसका खासा असर भी हुआ। ब्राह्मणों की इस निर्मित नाराज़गी के इस माहौल को ठीक करने में भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों को एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा। पर ये मिथक भी तोड़ कर योगी ने ब्राह्मण और ठाकुर नहीं बल्कि सभी जातियों के वोट बहुतायत में हासिल किए।
इसी से जुड़ी एक बात और खूब चली। मुझे यूपी की नब्ज़ जानने वाले एक जानकार ने लखनऊ में कहा था, “योगी उत्तर प्रदेश से ज़्यादा प्रदेश के बाहर अधिक लोकप्रिय हैं।” ये बात जब मैंने भाजपा को नज़दीक से जानने वाले और उसके शुभचिंतक एक संपादक को चुनाव से पहले बताई तो उन्होंने हँसते हुए कहा था, “भाईसाहब ये बात आप ज़्यादा मत फैलाइए क्योंकि कई लोग इसी को हेडलाइन बनाकर ले उड़ेंगे।” योगी ने इस बात को भी गलत साबित किया और दोबारा मुख्यमंत्री बनकर जता दिया कि चाहे वे पैदा उत्तराखंड में हुए हों पर उत्तर प्रदेश की जनता उन पर भरोसा करती है।
उत्तर प्रदेश में प्रचलित कई अंधविश्वासों को भी गोरक्ष पीठ के अधीश्वर इस संन्यासी मुख्यमंत्री ने तोड़ दिया है। पहला ये कि जो मुख्यमंत्री नोएडा का दौरा करता है वह हार जाता है। इस कारण मायावती से लेकर अखिलेश यादव कुर्सी पर रहते हुए नोएडा नहीं आए। यहाँ तक कि जब 2013 में नोएडा में एशियाई विकास बैंक की बैठक हुई, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी उपस्थित थे, राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रोटोकॉल तोड़ते हुए इसमें शरीक नहीं हुए। दूसरा ये कि ताजनगरी आगरा के सर्किट हाउस में रात बिताने वाले मुख्यमंत्री की गद्दी चली जाती हैं। इस दकियानूसी अफवाह के कारण मुलायम सिंह सरीखे मुख्यमंत्री तक आगरा जाने पर सर्किट हाउस की जगह होटल में ठहरते रहे।
योगी ने ऐसी किसी दकियानूसी धारणा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने कई बार नोएडा का दौरा किया और आगरा के गेस्ट हाउस में भी ठहरे। इस नाते ये संन्यासी बाकी मुख्यमंत्रियों और नेताओं से कही अधिक तार्किक और आधुनिक साबित हुआ। योगी आदित्यनाथ जब पाँच साल पहले अप्रत्याशित रूप से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तो सबके मन में एक ही सवाल था- ये सन्यासी क्या पॉंच साल चल पाएगा?
सवाल लाजिमी था क्योंकि प्रदेश पर शासन करना हमेशा ही टेढ़ी खीर रहा है। पाकिस्तान से भी अधिक जनसंख्या वाले यूपी को हम उत्तर प्रदेश वाले कई बार मज़ाक में उल्टा प्रदेश भी कह जाते हैं। खाँटी राजनेताओं तक को इस प्रदेश की जनता पानी पिलाती रही है। योगी आदित्यनाथ को तो कोई प्रशासनिक अनुभव भी नहीं था। लोगों का कहना था कि प्रदेश की घुटी हुई नौकरशाही से पार पाना इस नए मुख्यमंत्री के लिए इतना आसान नहीं होगा।
उत्तर प्रदेश में शिक्षा का स्तर भले ही देश के औसत से कम हो, पर यहाँ राजनीति की घुट्टी हर नागरिक को जन्म लेते ही मिल जाती है। एक अनपढ़, निर्धन और गँवार सा दिखने वाला एक सामान्य देहाती भी आपको यहाँ वो राजनीतिक ज्ञान दे जाएगा जो दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में अपने लैपटॉप पर बैठे ‘ज्ञान देने वाले राजनीतिक विश्लेषक’ समझ ही नहीं पाते।
हमने मतदान से काफी पहले जनवरी में अपने लेख में लिखा था “इन दिनों टीवी पर और सोशल मीडिया पर जो राजनीतिक शोर चल रहा है उस पर मत जाइए, वह बंद कमरों में बैठे ज्ञानियों द्वारा मचाया जा रहा कोलाहल मात्र है। ये शोर कई बार प्रायोजित और बहुधा पूर्व निर्धारित होता है जो दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं के समक्ष तर्क की चाशनी में डुबोकर कर पेश किया जाता है।” कुल मिलाकर मेरा आकलन था कि अयोध्या/काशी के काम और उससे उत्पन्न ध्रुवीकरण इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा रहने वाला है। प्रदेश की महिलाएँ, युवा और नए मतदाता भी खूब इस मुद्दे की बात करते मिले। अगर ऐसा है तो फिर तमाम किन्तु परंतुओं के बीच गोरक्ष पीठ के इस औघड़ बाबा के सितारों को बुलंद ही समझना चाहिए।
अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दोबारा चुने जाने वाले योगी बाबा राज्य के पहले मुख्यमंत्री है। अफवाहों, अंधविश्वासों, आकलनों को झुठलाते हुए इस संन्यासी ने राज्य के कई राजनीतिक और अराजनीतिक मिथक तोड़ दिए है। ऐसा करते हुए योगी ने खुद ही एक नया मिथक भी कायम कर दिया है, ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा।