Sunday, April 28, 2024
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जाति वाली बसपा साफ, भ्रष्टाचार वाली सपा भी पीछे… UP चुनाव में CM योगी ही सबसे बड़ा मुद्दा

अगर कोई अप्रत्याशित घटना न हो जाए तो मतदाता कुछेक महीनों पहले ही मोटे तौर पर अपना मन बना लेते हैं कि किसे जिताना है और किसे विदा करना है। चुनाव घोषित हो जाने के बाद टिकट वितरण को देखकर अब जो राजनीतिक चलाचली हो रही है उसका कोई बहुत असर अंतिम परिणामों पर नहीं पड़ने वाला।

उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल में राजनीतिक पहलवानों और उनकी टोलियों ने ताल ठोकना शुरू कर दिया है। अचानक कुछ पहलवानों को उन अखाड़ों को बदलने की सूझ रही है जिनमें वे पाँच साल से दंड पेल रहे थे। प्रेस कॉन्फ्रेंस, सोशल मीडिया पर ट्रेंड, अदलाबदली और शाब्दिक जूतमपैजार का हल्ला जोरों पर है। ये सब हो रहा है प्रदेश के वोटरों को ललचाने, रिझाने या फिर अपने पाले में समेटने के लिए। इस मारामारी से अलग हमने इस लेख में जनता की नब्ज़ जानने और उसका आकलन करने की कोशिश की है।

योगी आदित्यनाथ जब पाँच साल पहले अप्रत्याशित रूप से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तो सबके मन में एक ही सवाल था। ‘ये सन्यासी क्या पॉंच साल चल पाएगा?’ सवाल लाजिमी था क्योंकि प्रदेश पर शासन करना हमेशा ही टेढ़ी खीर रहा है। पाकिस्तान से भी अधिक जनसंख्या वाले यूपी को हम उत्तर प्रदेश वाले कई बार मज़ाक में उल्टा प्रदेश भी कह जाते हैं। खाँटी राजनेताओं तक को इस प्रदेश की जनता पानी पिलाती रही है। योगी आदित्यनाथ को तो कोई प्रशासनिक अनुभव भी नहीं था। लोगों का कहना था कि प्रदेश की घुटी हुई नौकरशाही से पार पाना इस नए मुख्यमंत्री के लिए इतना आसान नहीं होगा।

उत्तर प्रदेश में शिक्षा का स्तर भले ही देश के औसत से कम हो, पर यहाँ राजनीति की घुट्टी हर नागरिक को जन्मते ही मिल जाती है। एक अनपढ़, निर्धन और गँवार सा दिखने वाला एक सामान्य देहाती भी आपको यहाँ वो राजनीतिक ज्ञान दे जाएगा जो दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में अपने लैपटॉप पर बैठे ‘राजनीतिक विश्लेषक’ समझ ही नहीं पाते। इसलिए इन दिनों टीवी पर और सोशल मीडिया पर जो राजनीतिक शोर चल रहा है उस पर मत जाइए, वह बंद कमरों में बैठे ज्ञानियों द्वारा मचाया जा रहा कोलाहल मात्र है। ये शोर कई बार प्रायोजित और बहुधा पूर्व निर्धारित होता है जो दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं के समक्ष तर्क की चाशनी में डुबोकर कर पेश किया जाता है।

यों भी चुनावों से एकदम पहले या उनके दौरान जो गहमागहमी, आवाजाही और बहसा-बहसी होती है उसका मतदाताओं पर आंशिक ही असर पड़ता है। मेरा मानना है कि अगर कोई अप्रत्याशित घटना न हो जाए तो मतदाता कुछेक महीनों पहले ही मोटे तौर पर अपना मन बना लेते हैं कि किसे जिताना है और किसे विदा करना है। चुनाव घोषित हो जाने के बाद टिकट वितरण को देखकर अब जो राजनीतिक चलाचली हो रही है उसका कोई बहुत असर अंतिम परिणामों पर नहीं पड़ने वाला।

एक और बात, चुनाव में किसको कितनी सीटें मिलेंगी ये या तो कोई ज्योतिषी बता सकता है या फिर ऊपरवाला। सीटों की संख्या का अनुमान लगाना उफान पर आए समुद्र की लहरों को गिनने जैसा ही है। ऐसा करने वाले दस में से साढ़े नौ बार औंधे मुँह ही गिरते हैं। कुल मिलाकर ये घनघोर सट्टेबाज़ी जैसा काम हैं जिसमें पड़ना एकदम फालतू की कवायद है। चुनाव कवर करने के अपने कोई साढ़े तीन दशक के मेरे अनुभव का एक ही निचोड़ है कि आप पत्रकार होने के नाते बस एक अंदाजा लगा सकते हैं कि चुनाव में मुख्य मुद्दा क्या है? यानि वोटर के मन में क्या चल रहा है ये अगर मोटे तौर पर भी आप सूँघ पाएँ तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हवा किस ओर बहेगी। बाकी सब या तो खयाली पतंगबाज़ी है या फिर पूर्व नियोजित राजनीतिक पैतरेबाजी।

लोगों के मन में क्या चल रहा है ये जानने के लिए कुछ दिन पहले मेरा उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में जाना हुआ। मैं गया भी एक सामान्य यात्री के तौर पर न कि पत्रकार के नाते। पत्रकार बताते ही लोगों के कान खड़े हो जाते हैं और आम लोग अपने मन को नहीं खोलते। इस दौरान मैंने सामान्य लोगों की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की। इसके बाद मैंने उन कई लोगों से बातचीत भी की जो पत्रकारीय मकसद से उत्तर प्रदेश का दौरा करके आए हैं। मेरे एक पूर्व सहयोगी प्रवीण तिवारी तो एक अखबार के लिए प्रदेश के 271 चुनाव क्षेत्रों का दौरा करके लौटे हैं। उनके मुताबिक उन्होंने पिछले कुछ महीनों में प्रदेश की कोई 6000 किलोमीटर सड़कों की धूल चाटी है। ऐसे ही कई और भी लोगों से बातचीत हुई जो टीवी स्टूडियो या दफ्तरों से बाहर लोगों के बीच लगातार जाकर राजनीतिक मौसम भाँपने की कोशिश करते रहे हैं।

इसके आधार पर एक बात तो साफ़ निकलती है वो है कि इस बार चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा स्वयं मुख्यमंत्री योगी ही हैं। इसका मतलब है कि उन्होंने जिस तरह राज्य में शासन चलाया है वो लोगों के मन में वोट देने का सबसे बड़ा मानक होने जा रहा है। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि अन्य कोई मुद्दे राज्य में नहीं हैं। चुनाव एक जटिल और बहुस्तरीय प्रक्रिया है। इसमें कई चीजों का घालमेल होता है। जब भी कोई चुनाव होता है तो बेरोज़गारी और महँगाई तो ऐसे सदाबहार मुद्दे होते है जैसे बंबईया कटिंग मसाला चाय में चायपत्ती। चाय में पत्ती को तो होना ही है। इसलिए जब चैनल, अखबार और विश्लेषक इनकी चर्चा करें तो इन्हें चुनावी तराज़ू के पासंग जैसा ही मानना चाहिए।

आश्चर्यजनक रूप से इस बार भ्रष्टाचार की चर्चा उस तरह से किसी ने नहीं की जिस तरह पिछली सरकारों के समय उत्तर प्रदेश में होती रही है। बीएसपी की सुश्री मायावती रही हों या फिर सपा के श्री अखिलेश यादव के समय के चुनाव – सरकारी भ्रष्टाचार हमेशा उत्तर प्रदेश में बड़ा मुद्दा रहा है। मौजूदा मुख्यमंत्री पर इस तरह का कोई बड़ा आरोप नहीं लगना और इसकी कोई गंभीर चर्चा न होना एक बड़ा संकेत है। उत्तर प्रदेश का शासन धमक से ही चलता है। योगी आदित्यनाथ ने जिस कड़ाई से नौकरशाही को हाँककर काम करवाया इसकी तारीफ आमतौर से सबने की। इस सिलसिले में लोगों ने घर-घर में बने शौचालयों और स्वच्छता अभियान का जिक्र किया।

योगी का व्यक्तित्व उत्तर प्रदेश में मुख्य मुद्दा है तो अखिलेश उनके सबसे प्रबल प्रतिद्वंदी है, ये बात भी उत्तर प्रदेश के गली नुक्क्ड़ों की गपशप में साफ़ नज़र आई। प्रियंका गाँधी की तमाम कोशिशों के बावजूद काँग्रेस अब भी खेल से बाहर ही दिखाई देती है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मायावती की बीएसपी अब गंभीर प्रतिद्वंदी नहीं रह गई है, ये भी लोग सीधे-सीधे कहते मिले। महत्वपूर्ण है कि समाजवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाले एक मित्र ने कहा, “अखिलेश ने प्रदेश में देर से शुरुआत की है। अगर वे कुछ महीनों पहले सक्रिय हो गए होते तो बहुत अच्छा होता।”

जो लोग ब्राह्मण-ठाकुर, पिछड़ा-अगड़ा और जातिवाद के मुद्दों को सबसे प्रमुख रूप में प्रचारित कर रहे है वे भी आंशिक रूप से ही सही हैं। असलियत तो ये है कि देश का कोई चुनाव ऐसा नहीं है जिसमें जाति की भूमिका नहीं होती। जाति को कुछ लोग तलवार के रूप में तो कुछ ढाल के रूप में इस्तेमाल करते है। जो अपने देश में हमेशा होगा ही। मगर ये प्रदेश के आगामी चुनावों का सबसे बड़ा कारक नहीं होने जा रहा। अगर जातिगत गणित ही मुख्य होता तो मूलतः जातपाँत के खम्बो पर ही टिकी बीएसपी को आज प्रमुख प्रतिद्वंदी के तौर पर होना चाहिए था। पर ऐसा अभी तक तो लगता नहीं है।

चुनाव किस मुद्दे पर लड़ा जा रहा है इसकी बानगी मुझे लखनऊ और अयोध्या में मिली। जब मैं तीन हफ्ते पहले राजधानी लखनऊ शहर की पर्यटन यात्रा पर था तो मेरे चालक और गाइड नूर मोहम्मद ने जो बात कही थी वो प्रदेश के आने वाले चुनावों के प्रमुख मुद्दे को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है। हुसैनाबाद इलाके में घंटाघर के पास अच्छी साफ-सफाई और व्यवस्था पर नूर ने मुझसे कहा था, “ये सब अखिलेश ने करवाया था, उनके जाते ही रुक गया।”

मगर अयोध्या में ये तस्वीर बिल्कुल पलट जाती है। अयोध्या में मेरे साथ चल रहे देवेश वहाँ योगी-मोदी की जोड़ी द्वारा कराए गए कामों के बारे में बताते हुए थकते ही नहीं थे। चाहे फैज़ाबाद में गुप्तार घाट का विस्तार हो; अयोध्या में सरयू की पैड़ी पर जल के लगातार प्रवाह की व्यवस्था हो या दीपदान का कार्यक्रम- उनके मुताबिक जो काम योगी सरकार ने करवाया, वैसा कभी नहीं हुआ। वाराणसी में काशी कॉरिडोर के उद्घाटन और रामजन्मभूमि मंदिर के निर्माण कार्य की भी उन्होंने खूब चर्चा की।

अयोध्या और काशी के कामों की बात उत्तर प्रदेश चुनाव की हर चर्चा में प्रखरता से उठी। कुल मिलाकर मेरा आकलन है कि अयोध्या/काशी के काम और उससे उत्पन्न ध्रुवीकरण इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा रहने वाला है। प्रदेश की महिलाएँ, युवा और नए मतदाता भी खूब इस मुद्दे की बात करते मिले। अगर ऐसा है तो फिर तमाम किन्तु परंतुओं के बीच गोरक्ष पीठ के इस औघड़ बाबा के सितारों को बुलंद ही समझना चाहिए।

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