कुछ समय पहले किसी के नाचने पर बवाल हुआ था, मैंने सोचा बेकार का विवाद है, नहीं लिखा। फिर अली-मौला पर मुरारी बापू (Morari Bapu) की एक क्लिप देखी, जाने दिया। आज फिर वो एक क्लिप देखा जिसमें वो कह रहे हैं कि त्रिपुंडधारियों और बाबाओं को उमर खैय्याम और रूमी पढ़ना चाहिए, तब पता लगेगा बंदगी क्या है!
सवाल यह है कि क्या ऐसा कहना या मानना गलत है? बिलकुल नहीं। तो फिर मैं इस पर लिख-बोल क्यों रहा हूँ? वो इसलिए क्योंकि मेरे हिसाब से क्रिकेट की पिच पर फुटबॉल खेलना, खेल और देखने आए दर्शक, दोनों का ही, अपमान है। जैसा कि हजारों बार हम सबने सुना है कि व्यक्ति को समय, जगह, परिस्थिति और पात्र देख कर बोलना चाहिए। संतों को तो इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
मुरारी बापू ने जो कहा, वो किसी महफिल में, मुशायरे में करते तो बड़ा अच्छा लगता। जिस शराब और सौंदर्य की उपमाएँ दे रहे हैं, वो अगर किसी प्राइवेट पार्टी में पीते वक्त भी देते, तो भी अच्छा रहता। लेकिन, हिन्दू श्रद्धालुओं की भरी सभा में, जब आप अली-मौला करने लगते हैं, या करवाने लगते हैं, तो आप मानें या न मानें, सेकुलरिज्म की बयार में नाक घुसाना चाह रहे हैं।
अपने कार्यक्रमों में गजल गायक को जगह देना, मनोरंजन के लिए गीत-गजल सुनना अलग बात है। लम्बी कथा हो, तो बीच-बीच में संगीत का सहारा लेना उचित लगता है। लेकिन, समस्या तब हो जाती है जब, आप उन गजलों की व्याख्या करते हुए उसमें हिन्दू और राम खींच लाते हैं। समस्या तब होती है जब आपके लिए ईश्वर और अल्लाह एक हो जाता है, भक्ति और बंदगी एक हो जाती है।
जबकि ऐसा है नहीं। मेरी बात मत मानिए, अल्लाह को मानने वाले से ही पूछ लीजिए कि क्या ईश्वर और अल्लाह एक है, समान है, जवाब आपको मिल जाएगा। अल्लाह को मानने वाला और कुछ मानता ही नहीं, वो यह गाता है ‘मोहम्मद का सानी, मोहम्मद का हमसर, न पहले था कोई, न अब है, न होगा’। फिर आप किस हिसाब से दोनों को बराबर करना चाह रहे हैं?
आवश्यकता क्या आन पड़ी है कि आपको प्रवचन और सत्संग में अली-मौला और अल्लाह की बंदगी की याद आ रही है? एक तरफ एक मजहब है, जो कि अपने मूल रूप में प्रसारवादी, राजनैतिक और ऐतिहासिक तौर पर हिंसक और लूट-पाट से लेकर आतंक का शासन स्थापित करने पर तुला हुआ है, और दूसरी तरफ उसी की प्रसारवादी नीतियों को झेल कर हर बार खड़ा होने वाला धर्म!
दोनों एक हैं ही नहीं, आप क्यों इसको मिलाने पर तुले हुए हैं? आखिर, आवश्यकता क्या है? क्या भजन खत्म हो गए? क्या वेदवाणी का लोप हो गया? क्या उपनिषदों के सूक्तिवाक्य गायब हो गए? क्या पुराणों के सुभाषित पन्नों से उड़ गए? क्या सनातनियों के अनगिनत ग्रंथों के अनगिनत श्लोकों की कमी पड़ गई कि राम कथा के लिए जाने वाला प्रवचनकर्ता अली मौला पर न सिर्फ नाच रहा है, बल्कि उस नाच को सही भी कह रहा है?
वस्तुतः धर्म एक व्यक्तिगत विषय है, हर व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण से उसे देखने की स्वतंत्रता है, परन्तु हर व्यक्ति की समझ का स्तर उतना ऊँचा या व्यापक नहीं होता कि वो स्वयं ही इसे समझ सके। इसी कारण कथावाचक हुए, प्रवचन करने वाले हुए, सत्संग का आयोजन होता है। ये एक सामान्य व्यक्ति को धर्म की जानकारी देने, एक बेहतर जीवन जीने का तरीका बताने का मार्ग है।
किसी अनभिज्ञ व्यक्ति को अपने टेंट में बिठा कर अली-मौला और अल्लाह की बंदगी बताना यह बताता है कि कथा का ज्ञान होना अलग बात है, और प्रवचन के नाम पर तत्कालीन राजनैतिक विषयों में रुचि लेते हुए, धार्मिकता के नाम पर सोशल मीडिया ट्रेंड का हिस्सा बनना अलग। मुरारी बापू को रामकथा कहनी चाहिए क्योंकि मंच का पूरा प्रयोजन ही वही है।
रामकथा में न तो अल्लाह आते हैं, न आने का कोई औचित्य है। कोई अल्लाह को रामकथा में ला रहा है तो इससे राम वालों को भी समस्या होनी चाहिए, और अल्लाह वालों को भी। भक्ति में श्रद्धा है, बंदगी में गुलामी है जो तथाकथित नेक बंदों से आइसिस जैसे प्रतिष्ठान बनवाती है। दोनों एक नहीं हैं, दोनों में पारिभाषिक तौर पर बुनियादी अंतर है, और वो बना रहना आवश्यक है।
आप बॉब मार्ले को सुनिए बापू जी, अरियाना ग्रांडे को सुनिए, एकॉन की धुन पर नाचिए… आपका समय, आपका घर, आपका म्यूजिक सिस्टम… लेकिन हाँ, ये काम अपने व्यक्तिगत दायरे से बाहर मत कीजिए क्योंकि आप एक व्यक्ति मात्र नहीं हैं, न ही आप एक व्यक्ति के रूप में कहीं बुलाए जाते हैं, या आपका कहीं आयोजन होता है। आपके नाम के पहले ‘राम कथावाचक’ जैसे विशेषण लगते हैं।
आपको अली-मौला में भी रुचि है तो टेंट लगवाइए और बड़े-बड़े बैनर पोस्टर पर ‘अल्लाह कथावाचक मुरारी बापू’ लिखवाइए, वहाँ गाइए और लोगों को बंदगी के मायने समझाइए। रूमी ने बहुत अच्छी बातें कही हैं, उमर खैय्याम की रुबाइयाँ भी कमाल की हैं, लेकिन कमाल का तो शकीरा का ‘हिप्स डोन्ट लाय’ भी है, कमाल तो ट्वर्किंग भी है… कीजिए! कर पाएँगे?
गाँधी बाबा वाला रोग मत फैलाइए, उसके कम्यूनिटी ट्रांसमिशन से भारत उबर नहीं पाया है। गाँधी ने दिल्ली के बंगाली कॉलोनी के एक मंदिर में कुरान पाठ करवाया था। बात यह नहीं है कि उससे क्या हो गया, बात यह है कि आवश्यकता क्या है इस दिखावे की? और हाँ, यहाँ यह सवाल भी बिलकुल जायज है कि क्या किसी मस्जिद में भारत का कट्टरपंथी रामलीला होने देगा? क्या किसी मस्जिद के लाउडस्पीकर से गीता पाठ संभव है?
और एक बात, अगर किसी समानांतर ब्रह्मांड की भारतभूमि पर बने किसी मस्जिद में अगर मजहब विशेष वाले गीता-पाठ कर भी दे, तो भी सवाल वही है कि हम क्यों अली-मौला करें! उसको गीता पढ़ना है, उसका सरदर्द है, उसको रामलीला करना है, वो करे। वो कहीं हनुमान का रोल कर रहा है, बिलकुल करे… करे क्या, हिन्दू ही बन जाए, हमें कोई समस्या नहीं। लेकिन, हिन्दुओं की रामकथा के बीच में ये रूमी और खैय्याम की बकैती नहीं होनी चाहिए।
आप ने न सिर्फ जगह और आयोजन की सीमाओं का उल्लंघन किया, बल्कि आप उससे और आगे जा कर त्रिपुंड लगाने वाले और बाकी धर्मगुरुओं पर ताना भी मार रहे हो कि उन्होंने जलालुद्दीन रूमी को नहीं पढ़ा! पढ़ा तो आपने भी बहुत कुछ नहीं होगा, लेकिन मतलब उससे नहीं है। मतलब इससे है कि जो पढ़ा है, उसे अच्छे से समझते हैं या नहीं? समझते हैं तो दूसरों में इस ज्ञान का प्रसार कीजिए।
समझने में कहीं दिक़्क़त रह गई हो, तो दोबारा पढ़िए कि किस जगह पर अल्लाह और बंदगी की बात लिखी हुई है या उस पर चर्चा करने किस श्रद्धालु ने बोला? क्या आपसे किसी ने कहा कि दोनों के अंतर गिनाएँ, या समानता बताएँ? अगर संदर्भ वह रहा हो, तो आपकी बातें ठीक लगेंगी, लेकिन संदर्भ वो नहीं था।
मेरी न तो समझ उतनी है, न ही ज्ञान का वृत्त उतना वृहद की मुरारी बापू को निर्देश दे सकूँ। एक सामान्य हिन्दू के तौर पर, पहले विवाद की उपेक्षा के बाद, दोबारा जब स्वयं का बचाव करते हुए, दूसरे धर्माचार्यों पर ताने मारने और उन्हें अज्ञानी कहने की जो धृष्टता उन्होंने की, तो मेरा भी एक लेख तो उचित ही लगता है।
आप ज्ञानी हैं, बने रहें। आपको अली-मौला करना है तो टोपी पहन लें, और भरी सभा में नमाज ही पढ़ लें, हमें समस्या नहीं है। आप अपने पैसों से दो-चार मस्जिद बनवा दें, वो भी ठीक है। लेकिन, इन सब में पारदर्शिता होनी चाहिए। रामकथा सुनने के लिए बुला कर, बिना किसी संदर्भ के अल्लाह की बंदगी के रस में डूबने की बातें कहना श्रद्धालुओं को ठगने जैसा है।