“स्वतंत्र: कर्ता” अर्थात् कर्म करने में जो स्वतंत्र है वह कर्ता कहलाता है। स्वतंत्रता नैसर्गिक है। भारत का संविधान इस स्वतंत्रता का सम्मान करता है। व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के प्रति बहुत सचेत रहता है परंतु साथ ही उसे दूसरे की स्वतंत्रता का भी ध्यान रखना चाहिए। सब को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र हैं। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता राष्ट्रीय स्वतंत्रता की मर्यादाओं में बँधी हुई है।
जिन स्वतंत्रताओं से राज्य की प्रभुता, अखंडता, सुरक्षा और लोक व्यवस्था को हानि पहुँचे, भारतीय संविधान में उन स्वतंत्रताओं के लिए प्रतिबंध भी लगाया गया है। इस प्रकार जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पूरी छूट स्वतंत्र भारत में दी गई है, उसके साथ ही देश की स्वतंत्रता को हानि पहुँचाने वाले प्रतिबंधों से उसे मर्यादित भी कर दिया गया है। सच बात तो यह है कि इन अमर्यादित स्वतंत्रताओं से राज्यव्यवस्था भी व्यर्थ हो जाती है। राज्य व्यवस्था है ही इसलिए कि वह जनता को मर्यादित स्वतंत्रता का उद्घोष करने की छूट दे और जो लोग इस प्रकार की मर्यादाओं का उल्लंघन करने की आदी हो, उनको प्रशासन की ओर से दंड दिया जाए। जिससे अन्य नागरिकों का जीवन व्यवस्थित और सुरक्षित रह सके।
भारत बहुभाषी, बहुपंथी और बहुजातीय देश है। यदि यहाँ की जनता के बहुसंख्यक वर्ग में सांप्रदायिक सहिष्णुता की भावना न होती तो इस देश में शांति, व्यक्ति स्वतंत्रता और व्यवस्था स्थापित करना कठिन हो जाता। भारत इस सहिष्णुता का विश्व में प्रथम और अनूठा उदाहरण रहा है। इसलिए दावे के साथ कहा जा सकता है कि सांप्रदायिक सहिष्णुता में विश्वास रखने वाला 85 प्रतिशत हिंदू समाज जब तक यहाँ बहुमत में है तभी तक यहाँ लोकतंत्र भी है, सम्प्रदाय निरपेक्षता भी है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है और जन जीवन की सुरक्षा भी है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बहुत बड़ा प्रश्न है इस देश की आत्मा तथा चिंतन की स्वतंत्रता को जान कर उसमें आस्था रखने का। कहा जा सकता है कि आज प्रश्न है भारतीयता और अभारतीयता का। जैसे श्रीराम को भारत की आत्मा और जन जीवन से कभी अलग नहीं किया जा सकता और बाबर को कभी भारत की आत्मा और जन जीवन से जोड़ा नहीं जा सकता। जिस आक्रमणकारी बाबर के समकालीन संत प्रवर गुरु नानक ने स्वयं अपनी आँखों से देखे उसके अत्याचारों का ऐसा दर्दनाक वर्णन किया है कि आज भी उसको पढ़ कर किसी का भी दिल पसीजे बिना नहीं रह सकता। उस अत्याचारी विदेशी और अभारतीय बादशाह की जामिया मिलिया जैसे राष्ट्रीय संस्था में 500वीं जयंती मनाई गई थी। इससे बढ़कर अभारतीय मानसिक विकृति का और क्या परिचय हो सकता है?
वास्तव में भारतीयता इतने अरसे बाद आँखें मलकर उठने का प्रयत्न कर रह रही है, यही इसका अपराध है। अन्यथा स्वराज्य प्राप्ति के साथ ही बाबरी मस्जिद और राम मंदिर जन्मभूमि विवाद का निपटारा हो जाना चाहिए था। केवल इसी का नहीं बल्कि जितने भी अत्याचारी विदेशी हमलावर हुए हैं उन सब के प्रतीकों और स्मारकों का उनकी मूर्तियों का और उनके नाम से बनी इमारतों तथा सड़कों का निपटारा अब से कई वर्ष पूर्व होना चाहिए था। दूसरा, धर्म के आधार पर हुए विभाजन के नाम पर जब इस्लामिक देशों का गठन हो चुका है, तब वहीं के नागरिकों के लिए भारतीयता को ठेस नहीं पहुँचना चाहिए था। सबको समझना चाहिए कि वर्तमान नगरिकता संशोधन कानून वहाँ के मुस्लिम के लिए पुनः कोई प्रावधान नहीं करता है क्योंकि मुस्लिम न तो अपने इस्लामिक देशों में अल्पसंख्यक हैं और न ही धार्मिक आधार पर उन्हें वहाँ अपने ही देश में उत्पीड़ना का सामना करना पड़ रहा है।
इस कानून से किसी भी भारतीय अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों की नागरिकता किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं हो रही है। यह कानून किसी की नागरिकता का हनन नहीं कर रहा बल्कि वंचितों को कानूनन अधिकार दे रहा है। यह अधिनियम किसी को बुलाकर भी नागरिकता नहीं दे रहा है बल्कि जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 की निर्णायक तारीख तक भारत में प्रवेश कर लिया है, वे भारतीय नागरिकता के लिए सरकार के पास आवेदन कर सकेंगे। इन इस्लामिक देशों के इस्लाम मतावलंबी नागरिक भारतीय नागरिकता के लिए ‘आवेदन द्वारा नागरिकता’ इस पर्याय के अंतर्गत आवेदन कर सकते हैं। यह पर्याय किसी भी विदेशी व्यक्ति के लिए लागू है। भारत सरकार ऐसे आवेदनों के ऊपर विचार करने के बाद नागरिकता प्रदान करती है। जैसे पाकिस्तानी गायक/कलाकार अदनान सामी को 1 जनवरी, 2016 को भारतीय नागरिकता दी गई है। यह संशोधन केवल तीन देशों के 6 अल्पसंख्यकों के प्रवासियों को निर्धारित मानदंडों को पूर्ण करने पर ही प्राथमिकता प्रदान करता है ।
पंथ निरपेक्षता के सिद्धांत के कारण देश में अल्पसंख्यकों ने धर्म के नाम पर विशेषाधिकार प्राप्त करने और बहुसंख्यकों को उन्हें मानने के लिए बाधित करने के आंदोलन भी समय समय पर कम नहीं किए हैं। अल्पसंख्यक अपनी मनमानी के लिए धर्म के नाम पर प्रशासन को बाधित करते रहे हैं और यह सिद्ध करने का प्रयत्न भी करते रहे हैं कि उनके धार्मिक नियम सर्वोपरि हैं। उनके ऊपर राष्ट्र का कोई कानून लागू नहीं होता अर्थात वे देश के कानूनों से ऊपर हैं।
प्रत्येक नागरिक का अपने अधिकारों और संविधान के प्रति जागरूक होना आवश्यक है। परन्तु इस कानून को लेकर विरोध करने से पहले उसकी वस्तुस्थिति जाननी उससे भी ज्यादा आवश्यक है। क्योंकि अपने राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध न होने से कुछ राजनेताओं की यह समस्या बन चुकी है कि वे यथार्थ जानते हुए भी मुस्लिमों को गुमराह कर रहे हैं और मुस्लिम समाज को भेड़चाल के लिए विवश कर रहे हैं। वे बिना सोचे-समझे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विरोध कर रहे हैं। सार्वजनिक संपत्ति और भारतीय संविधान तथा साम्प्रदायिक सद्भाव को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
लेखिका: डॉ सोनिया