Tuesday, November 19, 2024
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सिर्फ अल्लाह का नाम नहीं रहेगा, न ही ताज/तख्त उछाल पाओगे: वाजिद हो या खान… सिर्फ भारत के नागरिक बन कर रहो, किताब नहीं संविधान से चलो

घटना बांग्लादेश में होती है। इस्लामी पत्रकार भारत के लोगों को भड़काता है। अल्लाह के नाम पर। ऐसे लोगों के लिए एक ही सलाह - सिर्फ भारत के नागरिक बन कर रहो, कायदे में रहोगे। संविधान को ही आखिरी किताब मानो, फायदे में रहोगे।

बांग्लादेश। पड़ोसी मुल्क। बड़ी मुश्किल में। कारण है इस्लामी मानसिकता। प्रधानमंत्री को भागना पड़ गया। उनका ब्रा-साड़ी सब लूट लिया। नहीं भागतीं तो न जाने क्या होता। सब अल्लाह-हू-अकबर वाली भीड़ ने किया। वही भीड़, जिसकी आग में इंग्लैंड-यूरोप जल रहा।

(a) तानाशाही की हार (b) लोकतंत्र जीत गया (c) जनता की लड़ाई – इस तरह के शब्द या वाक्य बांग्लादेश की तबाही के बाद सुन-पढ़-देख रहे हैं तो समझिए वो किसी कट्टर इस्लामी (देश-दुनिया में चाहे जहाँ भी हैं) और वामपंथी भेड़िए के हैं। शांति/विकास/उन्नति/तरक्की आदि इनकी समझ से बाहर है। तबाही, बर्बादी, जुल्म, कत्ले-आम से इस कौम (इस्लामी-वामी) को मोहब्बत है।

भूमिका खत्म। बात मुद्दे की। वाजिद खान नाम का एक इस्लामी आदमी है, खुद को पत्रकार भी लिखता है। इस्लामी मतलब कट्टर। उसके लिए अल्लाह ही आखिरी है। अल्लाह उसके लिए आखिरी हो, इसमें कोई दिक्कत नहीं। दिक्कत तब है, जब वो कहता है कि अल्लाह के नाम के अलावे और कुछ बचेगा ही नहीं। इतनी बड़ी हिम्मत? औकात से बढ़कर बातें क्यों? और क्यों नहीं बचेगा अल्लाह के नाम के अलावे कुछ भी? चीन में तो नामोनिशान मिटा दिया जा रहा है!

ट्विटर पर खुद को अमेरिका में रहने वाला बताता है वाजिद खान। बांग्लादेश पर इस्लामी कब्जे की खुशी में ट्विटर पर ही फैज की नज्म लिख डालता है। फैज को ढंग से जान लेता वाजिद तो बेऔकात बातें नहीं लिखता। इस्लामी मुल्कों की हकीकत पढ़ लेता वाजिद तो ‘अल्लाह के नाम के अलावे और कुछ बचेगा ही नहीं’ के रोमांस भरे गाने नहीं गुनगुनाता। इस्लामी मानसिकता के कारण इस्लामी मुल्क से ही भागे मुस्लिमों को शरण देने वाले देशों में इनके प्रति कितना गुस्सा भरा पड़ा है, यह समझ लेता वाजिद तो घर-वापसी कर चुका होता।

तो आखिर था क्या फैज? फैज एक फट्टू कवि था। कट्टर इस्लामी भी। वामपंथ की चादर ओढ़े हुए। इस्लामी सरकार के टुकड़ों पर पलने वाला, दुम हिलाने वाला कवि था फैज। कैसे?

  • जब भारत का बँटवारा हुआ, फैज अहमद फैज ने मजहब के आधार पर बने देश को चुना। असली वामपंथी होता तो इस्लामी मुल्क क्यों जाता?
  • जब पाकिस्तान चला ही गया तो वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों पर चुप्पी क्यों साधे रखा? वामपंथी तो अपने आप को ‘सेकुलर’ कहते हैं, कहाँ घुसा ली थी अपने अंदर की क्रांति वाली आवाज?
  • ‘सब दरगाह उछाले जाएँगे, सब मस्जिद गिराए जाएँगे… बस नाम रहेगा भगवान राम का’ – ऐसी पंक्तियों की रचना क्यों नहीं कर पाया फैज? वामपंथी होकर भी ‘अल्लाह’ के नाम को लेकर झूलता क्यों रह गया?
  • जिस पाकिस्तानी सरकार ने अहमदियों को मुस्लिम मानने तक से इनकार कर दिया, उसी इस्लामी सरकार में मंत्री बन कर मलाई क्यों चापते रहा फैज? अहमदियों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ नज्म लिखने में क्या अल्लाह ने उसके हाथ बाँध रखे थे?

फैज एक फट्टू कवि था। जगह-जगह फैज की नज्म चेपने और खुद को क्रांति का सिपाही कहने वाले लोग भी फट्टू हैं। इसलिए वाजिद खान जैसे फट्टुओं को औकात में रह कर बात करनी चाहिए। औकात यह है कि चाहे कयामत की रात आए या बरसात की… वो रात कभी नहीं आने वाली, जब सिर्फ और सिर्फ नाम रहेगा अल्लाह का।

खुद अमेरिका में रह कर (शायद 100% झूठ ही हो यह) जो बांग्लादेश में शरिया के सपने देख रहा है, उससे बड़ा फट्टू और कौन होगा? सीरिया में रहो, इस्लाम को बुलंद करो। फिलिस्तीन जाके अपने मरते भाईजानों को पानी पिलाओ, ब्रदरहुड के दूध का कर्ज और कैसे उतारोगे बे? अमेरिका में रह कर ट्वीट करते हुए! लानत है तेरे जैसे इस्लाम के सिपाही पर! फट्टू! अल्लाह के अलावे बहुत सारे सुंदर नाम हैं। अपने और भाईजानों की तरह घरवापसी कर लो। दुनिया सुंदर दिखेगी। छाती में बम बाँध के फटने से 72 हूर नहीं मिलते मूर्ख।

घटना बांग्लादेश में होती है। इस्लामी पत्रकार रहता अमेरिका में है। काम अलजजीरा (मतलब अंग्रेजी खबरें) के लिए करता है… लेकिन ट्वीट हिंदी में। न उर्दू-फारसी-अरबी-बांग्ला, न ही अंग्रेजी में। इसका मतलब क्या हुआ? भारत में रह रहे लोगों को भड़काना। कैसे लोगों को? भारत में रह रहे ऐसे लोग, जो इस देश को अपना देश नहीं मानते। मजहब उनके लिए सर्वोपरि है। संविधान से ऊपर वो एक किताब को रखते हैं। यहीं पर चूक जाता है वाजिद खान जैसा लोग। ऐसे लोगों के लिए एक ही सलाह – वाजिद हो या खान… सिर्फ भारत के नागरिक बन कर रहो, कायदे में रहोगे। संविधान को ही आखिरी किताब मानो, फायदे में रहोगे।

और हाँ! एक बात और बेऔकात इस्लामी वाजिद खान। “एक दिन फ़िलिस्तीन भी आज़ाद होगा” तेरा ख्वाब है। ख्वाब देखने पर पाबंदी भी नहीं। लेकिन इजरायल जब मार-मार के फलावर बना देता है, तब अपने फिलिस्तीनी इस्लामी आतंकियों की लाशों के साथ रोया मत करो। सोशल मीडिया पर सूअरों की लाश का तमाशा अच्छा नहीं लगता। सनातन में घरवापसी करने में कोई समस्या (हमारी ओर से कोई पाबंदी नहीं) है तो इजरायल भी जा सकते हो या चीन भी। बस मजहब छोड़ना होगा, वरना वो लोग तो ऐसे भी छुड़वा देंगे।

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चंदन कुमार
चंदन कुमारhttps://hindi.opindia.com/
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