हैदराबाद में फलों के ठेले वाले ने भगवा ध्वज लगाया, समुदाय विशेष को दिक्कत हुई, पुलिस को ट्विटर पर बुला लिया, पुलिस भी आई और कहा कार्रवाई होगी। नालंदा में भगवा ध्वज लगाने वाले पाँच लोगों पर पुलिसिया केस बनाया गया कि साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश हो रही है। जमशेदपुर में दुकान के आगे भगवा पोस्टर पर राम-शिव के चित्रों समेत ‘हिन्दू फल की दुकान’ लिखने पर केस दर्ज हुआ क्योंकि किसी मजहब को दिक्कत हो गई।
ये चंद उदाहरण हैं, जो अब बढ़ते ही जा रहे हैं। एक पूरा गिरोह व्यवस्थित तरीके से हिन्दुओं के प्रतीकों पर उनके सिर्फ हिन्दू होने के कारण आक्रमण कर रहा है। क्योंकि इस देश में बलात्कारी और फसादी मुग़ल शासकों के समय से ले कर गाँधी के दौर तक में जजिया कर देने और ‘अब्दुल भाई को छोड़ दो‘ के नाम पर हत्यारे को बचाने की कोशिशें हुई हैं।
इसलिए, हिन्दुओं में हमेशा अपनी ही श्रद्धा प्रदर्शित करने में एक हीनभावना का दिखना आम है। आप अपने कार्यालय ललाट पर तिलक लगा कर जाइए तो आपको ‘मिलिटेंट हिन्दू’ कहा जा सकता है। जबकि तिलक से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, अपनी आत्मशांति के लिए लगाया जाता है। आपके हाथ के कलावे से दिक्कत हो जाती है, और आपको शायद मैनेजमेंट कह देगा कि ‘ये सब डेकोरम के खिलाफ है’।
आपको भी लगेगा नौकरी करना है, ये सब छोड़ा जा सकता है। आप अपने दस भाई-बिरादर को नहीं लाते कि हमारे मजहब पर हमला हो गया। ये विक्टिम कार्ड खेलना हिन्दुओं में न के बराबर दिखता है। जब तक वाकई परेशान ही न कर दिया जाए, हिन्दू बोलता तक नहीं। जब तक दो साधु और एक ड्राइवर भीड़ हत्या का शिकार नहीं हुए, हिन्दू मुखर नहीं हुआ। समुदाय विशेष का चोर भी मरता है तो वो अंतरराष्ट्रीय खबर बनती है।
गूगल पर ‘मौलवी रेप‘ टाइप कर लीजिए आपको दिख जाएगा कि कितनी खबरें हैं, कहाँ-कहाँ से हैं, लेकिन न्याय सिर्फ कठुआ की बच्ची के लिए माँगा जाता है, और उसके दरिंदे बलात्कारियों के हिन्दू होने मात्र से वो एक धार्मिक अपराध बना दिया जाता है। पूरे हिन्दू धर्म पर पाप का बोझ डालने के लिए अपराध में एक हिन्दू का होना मात्र काफी होता है, उसकी मंशा नहीं देखी जाती कि क्या अपराध धर्म के कारण हुआ है, या मर्द होने के कारण।
ख़ैर, ऐसे गिनाता रहूँ तो बहुत समय व्यर्थ होगा। पिछले साल जून-जुलाई में समुदाय विशेष से ‘जय श्री राम’ कहलवा कर मारने-पीटने की सारी घटनाएँ झूठी निकलीं, लेकिन कवरेज याद कीजिए कि कैसा था। जुलाई के बाद आए अगस्त में काँवड़ यात्रा पर ‘मजहबी’ इलाके में कितना पथराव हुआ, उसकी खबरें भी सर्च कर लीजिए, और उसकी कवरेज याद कीजिए। बहाने बनाए गए कि वो तो डीजे बजा रहे थे जैसे कि डीजे बजाने पर समुदाय विशेष द्वारा पत्थर मारना जायज हो जाता है!
आज कल नई नौटंकी चली है: भगवा झंडा लगा रहे हैं हिन्दू, ये गुंडागर्दी है,समुदाय विशेष को चिह्नित करना चाह रहे हैं, उनका व्यवसाय बर्बाद करना चाह रहे हैं। आप सोचिए कि किसी मुस्लिम को आप टोपी लगाने पर ‘गुंडा’ कह सकते हैं क्या? सोचिए कि जब कोई नमाज पढ़ कर आ रहा हो, आपने फोटो खींची और लिख दिया कि कट्टरपंथी गुंडा हिन्दुओं को डरा रहा है!
भगवा झंडे को ले कर बिलकुल वही हो रहा है। बेगूसराय को दलित सब्जीवाले ने अपने ठेले पर लगाया झंडा। उसने बोला कि ‘हिन्दू हूँ, लगाऊँगा’। थूकने वाले कांड के कारण समाज के कई हिस्से में लोग सब्जीवालों को शक की निगाह से देखने लगे हैं। अतः, वो नाम आदि पूछते हैं। इस कारण उस लड़के ने भगवा झंडा लगाया ताकि उसे बार-बार बताना न पड़े।
इस पर समुदाय विशेष की गली में उसे भला-बुरा कहा गया। आप इस बात को पलट दीजिए। समुदाय विशेष का सब्जी वाला टोपी लगाए सामान बेच रहा है, उसे हिन्दुओं को मुहल्ले में उसकी टोपी के कारण लोग गाली देने लगें, धमकाने लगें और उसका वीडियो सामने आ जाए। एक मानव के तौर पर आपको निराशा होगी कि हमारा समाज कहाँ आ गया है। लेकिन क्या बेगूसराय के उस लड़के के लिए वो निराशा आपको मीडिया में दिखी?
इन सारी बातों से साबित यही होता है कि दूसरा विशेष मजहब बस उँगली कर दे कि उसे दिक्कत है इस बात से, और जहाँ उसके तुष्टीकरण में लगी सरकार है, वो हिन्दू पर कार्रवाई करेगी। और, समुदाय विशेष इस बात का फायदा खूब ले रहा है। राँची में रहने वाले एक पत्रकार मित्र बताते हैं कि झारखंड में समुदाय विशेष ने इस बात का खूब फायदा उठाया है। वो किसी भी बात की तस्वीर ले कर पुलिस को टैग कर देते हैं, और पुलिस को आदेश आता है कि इस पर कार्रवाई करो। जमशेदपुर फल वाला उसी कारण से केस का हिस्सा बना था।
भगवा झंडे से परेशानी: अल्पसंख्यक कौन है?
लम्बे समय तक जमे रहने वाले सत्ताधीशों को जब यह समझ में आ गया कि एकमुश्त वोट पाने के लिए इस्लामी उम्मा की बातों पर ध्यान देना आवश्यक है, तो उन्होंने न सिर्फ समुदाय विशेष का तुष्टीकरण किया, बल्कि ये भी सुनिश्चित किया कि समुदाय विशेष को ‘मोर इक्वल’ ट्रीटमेंट मिले। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘अल्पसंख्यक’ शब्द सुनते ही हमेशा एक ही मजहब के लोगों की ही बात होती दिखती है।
‘अल्पसंख्यकों पर हमला’, ‘अल्पसंख्यकों के लिए योजनाएँ’ आदि आप जब सुनेंगे तो आपको विशेष मजहब वाला ही दिखेगा। जबकि, यह मजहब इस देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। हिन्दू इस देश के करीब आठ राज्यों में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन उस पर सुप्रीम कोर्ट में कभी-कभी केस पहुँचता है, जिसे नकार दिया जाता है। जैन, बौद्ध, पारसी, सिख आदि असली अल्पसंख्यक समुदाय को आप शायद ही कभी अपने अल्पसंख्यक होने का विक्टिम कार्ड फेंकते देखेंगे।
सबसे पहले लोकतंत्र की स्थापना करने वाले जनपद-महाजनपद वाले इस राष्ट्र में दोबारा लोकतंत्र बहाल हुआ तो, पश्चिमी देशों से आयातित विचाराधारा के नेताओं के कारण ये भी मान लिया गया कि क्रूसेड लड़ने वाले ईसाई मुल्कों की तरह भारत में भी ‘मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होगा’। जबकि, उन्होंने न तो निकट का इतिहास देखा, न पुरातन क्योंकि हिन्दू न कभी आक्रांता बना है, न ही अपने ऊपर आक्रमण करने वाले को भी भगाया।
मुस्लिमों और अंग्रेजों को ने इस देश पर हमला बोला, तबाही मचाई, अर्थव्यवस्था बर्बाद की, लेकिन हिन्दू आज भी उनके साथ रह रहा है। इसके उलट, बाकी मुस्लि राष्ट्रों में हिन्दुओं की गिरती जनसंख्या इस बात का सबूत है कि इस्लामी मुल्क इस्लाम के अलावा और कुछ देखना ही नहीं चाहते। अगर संयुक्त राष्ट्र या मानवाधिकारों जैसी हास्यास्पद चुटकुलेबाज संस्थाएँ हट जाएँ, तो दस दिन नहीं लगेंगे इस्लामी मुल्कों को अपने देशों से वहाँ के अल्पसंख्यकों के सामूहिक नरसंहार करने में।
हिन्दुओं ने कभी भी किसी भी तरह का धार्मिक अत्याचार किसी भी दूसरे मजहब पर कभी नहीं किया। उसके उलट, मध्ययुगीन इस्लामी बलात्कारी लुटेरों ने मजहबी अत्याचार के अलावा कभी कुछ किया ही नहीं। फिर भी आज तक हिन्दू जबरन पाँच बार अजान सुनता ही है, सड़कों पर होते नमाज को देख कर गाड़ी रोकता ही है, दुर्गा के विसर्जन की तारीख बदलता ही है।
इन सबके बावजूद, हमारे संविधान निर्माताओं को ये लगा कि हिन्दू सर्वसमावेशी नहीं है, वो दुसरे मजहब के आदमी को मार-काट देगा, अत्याचार करेगा, और अल्पसंख्यक आयोग की नौटंकी कर दी। नौटंकी इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे आयोग की स्थापना में ही एक अनकही अवधारणा होती है कि बहुसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यकों पर अत्याचार ही करेगा।
हिन्दू ने कहाँ अत्याचार किया, किसी इस्लामी राष्ट्र को तो छोड़िए, टोले-मुहल्ले से विशेष मजहब को भागने पर मजबूर किया, ये बात दे कोई। उसके उलट इसी देश में कट्टरपंथियों ने कश्मीर की 100% हिन्दू जनसंख्या को कुछ सौ सालों में चार प्रतिशत में समेट दिया। आपको क्या लगता है कि हिन्दुओं ने बच्चे पैदा करना बंद कर दिए कश्मीर में या वहाँ से वो भाग गए? जी नहीं, सामूहिक नरसंहार हुए हिन्दुओं के और 1989-90 वाला तो अंतिम था…
कैराना, मेरठ आदि के गाँवों से हिन्दू पलायन कर रहे हैं, ‘ये घर बिकाऊ है’ लिख कर। यहाँ मुस्लिम रहते हैं और उन्होंने हिन्दुओं का जीना हराम कर रखा है। उनकी बहू-बेटियों पर फब्तियाँ कसते हैं। ऐसी ही खबर दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों में आई थी कि हिन्दुओं की बच्चियों के सामने मजहब विशेष के लड़के न सिर्फ नंगे हो कर इशारे से उन्हें बुलाते हैं, बल्कि उन्होंने उनके कपड़े तक उतार लिए थे।
और आपने बनाया अल्पसंख्यक आयोग… पहले ही ये सोच लिया कि बहुसंख्यक है तो अत्याचार करेगा ही क्योंकि अमेरिका में श्वेत बहुसंख्यक वही कर रहा था और पूरे यूरोप में ईसाई लोग यहूदी और मजहब विशेष से सदियों से सतत युद्ध की स्थिति में थे ही। उन्हें लगा कि सभ्य समाज में ‘सेकुलर होने की जरूरत है’। हिन्दू को कभी सेकुलर होने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि उसने कभी ‘नॉन-सेकुलर’ दुष्कृत्य किए ही नहीं। ये काम इस्लामी और ईसाई आक्रांताओं का विशेषाधिकार रहा है।
अल्पसंख्यकों का प्रपंची विलाप: भगवा झंडे से हमें परेशानी है
कायदे से देश को हिन्दुओं को सुरक्षित करने के लिए ‘बहुसंख्यक आयोग’ की स्थापना करनी चाहिए थी ताकि उसकी पीड़ा को विशेष ध्यान दे कर समझा जा सके। ये मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कोई भी राजनैतिक नीति बनाने से पहले आपके समक्ष ऐसे उदाहरण होने चाहिए जिससे साबित हो कि उस नीति की आवश्यकता है। विभाजन के समय की मार-काट में तो दोनों ही तरफ के लोग थे, फिर ये क्यों मान लिया गया कि हिन्दू ही अत्याचार करेगा?
उससे पहले जब अंग्रेजों ने दंगे करवाए, तब भी दोनों तरफ के लोग अपराधी थे, फिर ये क्यों माना गया कि हिन्दू ही अत्याचार करेगा? क्या कहीं पर भी हिन्दुओं ने किसी ट्रेन की बॉगी में जा रहे 59 मौलवियों को आग से जलाया? क्या किसी हिन्दू ने किसी मस्जिद को तोड़ कर मंदिर खड़ी की? क्या किसी हिन्दू ने भारत से बाहर आक्रमण करके, देश पर कब्जा करने के बाद पूरी आबादी को जबरन हिन्दू बनाया?
जब इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं था तो फिर स्वतः संज्ञान लेने की ऐसी जल्दी क्या थी कि मजहब विशेष के लिए एक आयोग बनाना पड़ा। मजाक की सीमा तो यह है कि कश्मीर में भी चार प्रतिशत में सिमटा हिन्दू अल्पसंख्यक नहीं माना जाता, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर वो बहुसंख्यक है।
कॉन्ग्रेस ने राजनैतिक दूरदर्शिता दिखाते हुए एक आबादी को अपने वोटों के लिए न सिर्फ इस्तेमाल किया बल्कि ‘मोर इक्वल’ ट्रीटमेंट देते हुए उन्हें इस स्तर पर पहुँचा दिया कि इस राष्ट्र में हिन्दू दूसरे दर्जे का नागरिक है। सत्तर साल के इसी स्पेशल ट्रीटमेंट ने उन्हें इतना बलशाली बना दिया है कि उनके पास राजनैतिक प्रतिनिधित्व हो या न हो, वो सड़कों पर अपना प्रतिनिधित्व स्वयं करने लगते हैं और उसका जोड़ किसी के पास नहीं।
इनके नेता सौ करोड़ हिन्दुओं को पंद्रह मिनट में निपटाने की बात कर देते हैं और उस पर कुछ नहीं होती। ऐसे बयान बार-बार आते रहते हैं, लेकिन मीडिया को ऐसा नहीं लगता कि ये धमकी है, उकसाना है। शायद मीडिया भी समझती है कि उकसना भी समुदाय विशेष का ही विशेषाधिकार है, हिन्दू को तो कुछ भी कर लो, सड़क पर वो आने से रहा। आहत होना भी समुदाय विशेष का ही विशेषाधिकार है, और वो दोनों ही सूरतों में इसका प्रयोग कर लेता है: उसके मजहब पर टिप्पणी करो तब भी, अपने धर्म के प्रतीकों का इस्तेमाल करो तब भी।
समुदाय विशेष के आहत होने का कोई ओर-अंत नहीं। दिल्ली के दंगे भी वही करता है, तैयारी के साथ करता है, और फिर विचित्र तरीके से रोता भी है कि समुदाय विशेष के सफाए की बात हो रही थी, नरसंहार हो गया! फैसल फारूख के स्कूल की छत हो, या आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन के घर की छत… हर पंद्रह घर की छत पर गुलेल, पेट्रोल बम, एसिड की बोतलें… मस्जिद की छत पर पत्थरों का ढेर… फिर भी, समुदाय विशेष रो रहा है कि हिन्दुओं ने दंगा किया! सोशल मीडिया का दौर न होता तो ये भी गोधरा की तरह हिन्दुओं के सर पर डाल दिया जाता भले ही 59 कारसेवकों को जलाने का घिनौना काम समुदाय विशेष ने किया।
समुदाय विशेष की यही दिल को दीवाना बना देने वाली अदा आज हमें जमशेदपुर, नालंदा, बेगूसराय से ले कर हैदराबाद तक दिख रही है कि वो भगवा झंडा देखते ही परेशान हो जाते हैं। आप भला सोचिए कि झंडे से किसी को परेशानी क्यों होगी? चूँकि उम्माह की भाषा और राह पर चलने वाले समुदाय विशेष की अधिकता है दुनिया में, जो खुल कर कहते हैं कि राष्ट्र और इस्लाम में चुनना पड़ा तो इस्लाम चुनूँगा, वैसे में हिन्दू इनके गजवा-ए-हिन्द की राह में तो मोहम्मद बिन कासिम के समय से बैठा हुआ है, तो समस्या तो होगी ही।
इसलिए, भगवान हनुमान का स्टिकर ‘मिलिटेंट हिन्दुइज्म’ हो जाता है। राम के हाथ का धनुष कभी इन्हें हिंसा को बढ़ावा देने वाला लगेगा। फिर कहेंगे कि दुर्गा के हाथों से शस्त्रास्त्रों को हटा कर फूल-पत्तियाँ दे दो, चाँद-तारा दे दो तो और भी अच्छा, हिजाब पहना दो तो और बेहतर… बुर्के में दिखा दो तो गाल पर गीली पप्पियाँ ही ले लेगा कट्टरपंथी!
कमाल की बात देखिए कि यहाँ मूर्तियों के हाथों में अस्त्र है, चित्रों को चेहरे पर के रौद्र भाव से वो ‘मिलिटेंट’ प्रवृत्ति का हो जाता है, लेकिन इन्हीं कट्टरपंथियों को दुनिया के हर शहर में पूरे देह पर बम बाँध कर फटने वाले कट्टरपंथियों को आतंकी कहने में अभी तक दर्द होता है। चित्र में चेहरे के भाव और जमीन पर लाशों के ढेर पर टुकड़ों में बिखरा कट्टरपंथी… ज्ञानी लोगों के लिए चेहरे का भाव ज्यादा खतरनाक है।
ये मजाक नहीं है। इन्होंने अंग्रेज़ी के हिन्दुइज्म को सही माना है और उसके हिन्दी अनुवाद ‘हिन्दुत्व’ को आतंकी कह दिया है। ये मूर्खता है या धूर्तता, ये समझनें में समय लग जाएगा। ईद में सेवई की खीर माँगता हिन्दू असली हिन्दू है, उसने घर पर भगवा झंडा लगा लिया तो वो मिलिटेंट माना जाएगा। दीवाली पर पटाखे से होने वाली आवाज से जानवरों को हो रही परेशानी पर यही समुदाय विशेष और उसके हिमायती लम्बे ज्ञानवर्धक पोस्ट लिखते हैं, बकरीद पर कटते जानवरों सो कोई समस्या नहीं। अरे! वो तो मर ही गया, अब कष्ट कैसा! असली कष्ट तो जिंदा हो कर पटाखे सुनने में है!
भगवा झंडा: हिन्दुओं की गरिमा, सम्मान और परिभाषा का अंश
बात भगवा झंडे या रंग की नहीं, बात यह है कि सामाजिक बहुसंख्यक होने की परिणति जब दो बार राजनैतिक बहुसंख्यक होने में दिखी है, और कुछ लोगों को लग रहा है कि उनके ‘साड़कीय शक्ति प्रदर्शन’ का युग हाथों से चला जाएगा कुछ सालों में, तो कम होते तेल वाले दीये की फड़फड़ाती लौ की तरह वो अब और मुखर हो चले हैं। अब लक्ष्य स्वयं की शक्ति को दिखाने भर का नहीं, अब हिन्दुओं पर वैचारिक धावा बोलने का है कि तुम्हारा अस्तित्व मात्र ही इस दुनिया के लिए हानिकारक है।
वैसे, हम सब जानते हैं कि वो मजहब कौन सा है जिसके आतंक का ताप हर देश का हर शहर झेल चुका है जहाँ ये हैं, या नहीं हैं। यही कारण है कि इनकी मुखरता अपनी टोपी कस कर पहनने और सड़कों के नमाज से आगे, लॉकडाउन में भी मस्जिदों को आबाद करने से ले कर, अब हिन्दुओं के दुकानों के नाम, उनके ठेले के झंडे तक पहुँच चुकी है। ये अभी कुछ दिन चलेगा क्योंकि दुर्भाग्य से तुष्टीकरण कुछ जगहों पर चल ही रहा है, वहाँ के हिन्दू अभी भी राजनैतिक रूप से सो ही रहे हैं।
बात भगवा झंडे की नहीं, बात अनुच्छेद 370 से शुरु हो कर, अयोध्या विवाद और चोर-लुक्कर घुसपैठिया समुदाय विशेष को यहाँ से निकालने वाले NRC और CAA तक पहुँच चुकी है। यही तो कारण है कि कानूनी रूप से जितने कट्टरपंथी यहाँ हैं, उससे कहीं ज्यादा होने का क्लेम इनके नेता कर देते हैं। दो करोड़ बांग्लादेशी मुस्लिम हैं इस देश में, और वो दीमक हैं, उनको कीटनाशक जाल कर बाहर निकालना चाहिए और फिर अपने देश वापस भेदने की तैयारी होनी चाहिए।
इसलिए, पाकिस्तानियों के लिए जासूसी करने से ले कर, भारत में बम फोड़ने वालों को बाहर निकालने के लिए कानून आया, तो आतंक के हिमायतियों की सुलगने लगी है। वो परेशान हैं कि गजवा-ए-हिन्द की राह में ये लोकतंत्र कैसे आ गया, अभी तक तो बलात्कारियों और लुटेरों को ताजमहल निर्माता बता कर भारत की रक्षा करने वाला बता कर, मुग़ल सल्तनत पढ़ाते रहे, कुछ दिनों में कश्मीर से संस्कृत को गायब कर उर्दू पहुँचाने की तरह भारत में भी वही होने वाला था, लेकिन ये CAA से तो गड़बड़ हो गई!
इसीलिए, दोनों तरफ से संवैधानिक तरीके से चुनी हुई सरकार और उसके समर्थकों पर नाजायज हमले हो रहे हैं। भगवा रंग से आपत्ति हो रही है, ट्विटर पर पुलिस संज्ञान ले रही है और कोई भी वीडियो बना कर बता रहा है कि उस हिन्दू ठेले वाले के हिन्दू प्रतीक ध्वज के इस्तेमाल से उसकी भावनाएँ आहत हो रही हैं। हिन्दू इस तरह से हीनभाव में जीता रहा है कि एक बार उसे भी लगने लगता है कि ‘यार! क्यों लगा दिया भगवा झंडा?’
हिन्दू स्वतः बैकफुट पर आ जाता है कि जरूर हमने ही गलती की होगी। चार-पाँच सौ सालों का आतंकी सेकुलरिज्म यही तो है कि जिस धरती के लोगों ने लुटेरों, समुदाय विशेष के आतंकियों, अंग्रेज चोरों को बसने दिया, वो अब हिन्दुओं को इसलिए सजा दे रहा है कि तुम्हारे पास मौका था तो तुमने समुदाय विशेष के आक्रांताओं की तरह सत्ता हासिल करते ही कत्लेआम क्यों नहीं मचाया!
अरे भाई! हिन्दू गाय पालने और मंदिर में पूजा की घंटी बजाने से आगे गया ही कब? हमारे अखाड़ों की शस्त्र परंपरा को पानी कर ही दिया गया, गुरुकुल तबाह कर दिए, संस्कृति पर सतत हमले किए, विश्वविद्यालयों को आग लगाया ही… हिन्दू तो बाबर का बेटा हुमायूँ और हुमायूँ का अकबर रटने में व्यस्त रहा और अपने आराध्य को टेंट से निकालने में उसे सात दशक लग गए। हम कहाँ जा कर हमला करते? कभी किया ही नहीं।
जबकि ईसाइयों और मुगलों का पूरा इतिहास रक्तरंजित रहा है, मजहब की आड़ में एक प्रसारवादी, साम्राज्यवादी सोच के साथ इनके लुटेरों की फौजें हजार सालों से योजनाबद्ध तरीके से उपनिवेश बनाने से लेकर पूरे राष्ट्रों को मजहब बदलने पर मजबूर किया है। हिन्दू प्राचीन भारत की सीमाओं से बाहर गया ही नहीं। कहीं भी धर्म-परिवर्तन का जिक्र नहीं, किसी राजा ने जीते हुए साम्राज्य के पवित्र स्थलों को तोड़ा हो, ऐसी भी नहीं दिखता। राजाओं ने जीते हुए क्षेत्रों पर राज किया, प्रजा के इतिहास को मिटाने की कोशिश नहीं की, उनकी बच्चियों का बलात्कार नहीं किया।
इसलिए, वो अपने ही धर्म का अनुयायी होने पर, उसी के प्रतीकों के इस्तेमाल पर स्वयं पर संदेह करने लगता है कि पूजा करना गलत तो नहीं, कलावा लगाना गलत तो नहीं, रोली-चंदन और अक्षत को ललाट पर धारण करना गलत तो नहीं?
भगवा झंडा और हिन्दू
यज्ञ की अग्नि की ऊपरी लौ का रंग भगवा होता है, बीच का पीला, नीचे लाल। यज्ञ में आहुतियाँ दी जाती हैं, त्याग किया जाता है। अग्नि स्वयं तो पवित्र है ही, बल्कि अपने संपर्क में आने वाली वस्तुओं को भी पवित्र करती है। अग्नि ऊर्जा है। हर पवित्र, मंगलकारी कार्य की जड़ में अग्नि किसी न किसी रूप में स्थित होती है।
भगवा रंग उसी अग्नि के रूप का परिचायक है। भगवा उसी त्याग का प्रतीक है जो यज्ञ कुंड की आहुति होती है। भगवा वस्त्र वहीं धारण करता है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो। कुछ साधु जो शिष्यादि हैं, वो पीला वस्त्र पहनते हैं। भगवा वही धारण करते हैं जिन्होंने सांसारिकता का त्याग कर दिया है, और सिर्फ समाज-राष्ट्र कल्याण के लिए समर्पित हैं।
भगवा झंडा उसी पवित्रता का प्रतीक है। भगवा रंग अग्नि के उसी भाव का प्रतीक है, इसलिए सनातन आस्था से जुड़े हर धर्म में (सिक्ख, बौद्ध, जैन आदि) में इस रंग का स्थान सर्वोच्च है। ध्वज का होना हिन्दुओं को अपने संतों की याद दिलाता है, जिन्होंने सहस्त्रों वर्षों से इस भारतभूमि और सनातन परंपरा को बताए रखा। जो हमारे आज के लिए पूर्व में स्वयं को बलिदान कर गए।
इसलिए, यह रंग किसी की आँखों को चुभता है तो समस्या उसकी है। ये उसकी दुष्टता और नीचता है कि उसे हमारे धर्म के प्रतीक चिह्नों से घृणा है। वो अत्यंत ही अधम श्रेणी का जीव है जिसे दूसरे मानव की आस्था से समस्या है। इन्हें आम जनता ही जवाब देगी, वही प्रतिकार भी करेगी, वही इन्हें इनके अपराधों की याद भी दिलाएगी।
हिन्दू हमेशा थोड़ा लम्बा रास्ता लेता है। कुछ लोग दंगों के छोटे रास्ते से चलते हैं। वो भले ही बाबरी मस्जिद में कुछ साल नमाज पढ़ लें, लेकिन रामलला तो अपने ही जन्मस्थान में जाएँगे। लोकतंत्र का ही प्रयोग कर अगर पुलिस आज भगवा झंडे लगाने पर केस दर्ज कर रही है, तो यही पुलिस उसे वापस भी लेगी क्योंकि उसके हाथों को बाँधने वाले नेता अनंतकाल के लिए नहीं आते। यही भ्रम चोरों के एक खानदान को भी था, वो आज कल क्षेत्रीय पार्टियों के साथ किसी भी तरह गठबंधन कर के केन्द्रीय सत्ता में आने का स्वप्न कुछ ऐसे ही देख रही है जैसे गीदड़-गीदड़ी का जोड़ा पंचतंत्र की एक कहानी में एक साँड़ के पीछे इस लालच में चल रहा था कि उसके मांसल अंडकोश कभी तो जमीन पर गिरेंगे और वो कभी तो उन्हें खा पाएँगे। गीदड़-गीदड़ी भूख से मर गए।