अमेरिका के एक गोरे पुलिस ऑफिसर डेरेक शाविन ने 46 वर्षीय अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या कर दी और अमेरिका #BlackLivesMatter की माँग के साथ भड़क उठा। विरोध की आग इतनी भड़की कि कोलंबस और वास्कोडिगामा की मूर्तियों को भी इस आधार पर ध्वस्त किया गया कि इनकी खोजों की वजह से ही दास व्यापार का रास्ता खुला।
इसी की तर्ज पर भारत की जाति व्यवस्था के लिए महर्षि मनु को दोषी ठहराकर उनका बहिष्कार करने और उनकी मूर्तियों को भंग करने की अपील की जाने लगी।
कोलंबस और वास्कोडिगामा को दास व्यापार के लिए और मनु को जाति व्यवस्था के लिए दोषी ठहराना ऐसा ही है, जैसे आइंस्टाइन को हिरोशिमा-नागासाकी पर बम बरसाने के लिए उत्तरदायी ठहराना। सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके खोजे फॉर्मूला का इस्तेमाल करके इसे बनाया गया।
हम सब जानते हैं कि आइंस्टाइन परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के सख्त विरोधी थे। इसलिए परमाणु हमलों की तोहमत उनके सर नहीं मढ़ी जाती और इसलिए भी कि वो अपना दृष्टिकोण रखने के लिए उस समय जीवित थे। काश महर्षि मनु के साथ भी ऐसा ही होता।
यद्यपि महर्षि मनु हर रचनाकार की तरह अपनी मनुस्मृति के माध्यम से जीवित हैं, किंतु दुर्भाग्य से रामायण-महाभारत-पुराण आदि की तरह मनुस्मृति भी बेशुमार प्रक्षेपों का शिकार हुई है। इन प्रक्षेपों की पहचान होती है इन्हीं ग्रंथों के अंत:साक्ष्यों से। जैसे भारत के संविधान में कोई भी संशोधन संविधान की मूल भावना को दरकिनार करके नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होता है तो उसकी न्यायिक पुनरीक्षा होगी। वैसे ही किसी भी ग्रंथ में यदि ऐसा परिवर्तन होता है तो उसकी समीक्षा होनी चाहिए। ये समीक्षा दुराग्रह रहित विषय विशेषज्ञों की अदालत ही कर सकती है।
मनुस्मृति पर इस तरह का काम हुआ भी है। गुरुकल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. सुरेन्द्र कुमार एवं संस्कृत शास्त्रों के उद्भट विद्वान आचार्य राजवीर शास्त्री के गहन शोध से विशुद्ध मनुस्मृति का प्रकाशन हुआ। इस लेख में सभी उद्धरण मनुस्मृति के इसी संस्करण से लिए गए हैं।
इन प्रक्षेपों के लिए कौन उत्तरदायी है? निश्चित रूप से वही जिसको इससे लाभ हो। भ्रष्ट आचरण बड़ी सहजता से हर जगह अपनी पैठ बना लेते हैं। मनुस्मृति जब दंड व्यवस्था का आधार बनने लगी तो प्रभावशाली लोगों ने उसके पर कतरने शुरू कर दिए और इच्छानुरूप मिलावटें शुरू हो गईं। कानून का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों संभव हैं।
क्या वह मनु ब्राह्मण के लिए आडंबरयुक्त जीवन शैली का उपदेश कर सकता है जिस मनु ने ब्राह्मण के लिए यह नीति वचन लिखा-
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा।। (मनु.-२.१६२)
अर्थात् ब्राह्मण को सम्मान से वैसे ही परहेज करना चाहिए जैसे कोई विष से परहेज करता है। इसके विपरीत अपनी अवमानना की कामना इतनी उत्सुकता से करनी चाहिए मानो कोई अमृत मिलने वाला हो। ये उसकी मन:साधना के उपाय के रूप में निर्देशित किया गया है। इसे इससे अधिक सख्त तरीके से नहीं कहा जा सकता था। अब आप इस निर्देश को कालांतर में हुए दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तनों से तोल कर देखें और सोचें कि क्या मनु ब्राह्मण समाज के उस आडंबरपूर्ण आचरण के प्रवर्तक हो सकते हैं?
जहाँ तक वर्णों के बीच भेदभाव पूर्ण आचरण की बात है, मनुस्मृति के इस विधान को देखें-
अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम्।
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च।। (मनु.-८.३३७)
ब्राह्मणस्य चतु:षष्टि: पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतु:षष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि स: ।। (मनु.-८.३३८)
इसका अर्थ है कि चोरी करने पर शूद्र को चोरी से आठ गुणा, वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा, ब्राह्मण को चौंसठ गुणा, सौ गुणा या एक सौ अट्ठाईस गुणा दंड हो। यानी जिसका जितना ज्ञान और जितनी अधिक प्रतिष्ठा हो, उसको उतना ही अधिक दंड होना चाहिए। क्या यह विशेषाधिकार की कोटि में आएगा?
इसके बावजूद वर्तमान जाति व्यवस्था के लिए मनु को जिम्मेदार ठहराया जाता है। पहली बात तो यह कि मनुस्मृति में जाति नहीं वर्ण का जिक्र है और उनका मूल वेद हैं, मनुस्मृति मूल नहीं है।
मनु स्वयं कहते हैं- ‘स महाद्युति: पृथक्कर्माण्यकल्पयत्’ अर्थात् उस महातेजस्वी परमात्मा ने वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म बनाए। इसलिए मनु वर्ण व्यवस्था के प्रवर्तक नहीं हैं। उन्होंने तो बस वेद की बात को आगे बढ़ाया। अपने मन से कुछ नहीं कहा।
ऐसे में जातिप्रथा का आरोप मनु पर लगाना उतना ही हास्यास्पद है, जितना साइबर अपराधों के लिए चार्ल्स बैबेज को जिम्मेदार ठहराना (बशर्ते कोई इतनी बेवकूफी करे)।
मनु ने शूद्रों से पढ़ने का हक़ छीन लिया, यह एक व्यापक आरोप है। मनु ने उनका हक़ नहीं छीना बल्कि जो अवसर मिलने पर भी पढ़ नहीं पाए वो शूद्र कहलाए। मनु के कहने से नहीं, परंपरा से या वेद आधारित समाज व्यवस्था से। तैत्तिरीय ब्राह्मण का वचन है- ‘असतो वा एष संभूतो यत् शूद्र:’ अर्थात् (अनिच्छा या असामर्थ्य किसी भी वजह से) असत: यानी अज्ञान के कारण शूद्र इस स्थिति में है।
स्पष्ट है कि उसे इस दशा में रहने के लिए किसी ने मजबूर नहीं किया है। वो जब चाहे इससे बाहर आ सकता है, योग्यता अर्जित कर सकता है, अन्यों की सेवा करके आजीविका चलाना उसकी जन्मजात मजबूरी नहीं है। ये तो ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब…’ की लोकोक्ति से अलग कुछ है ही नहीं। रही बात शूद्रों के साथ भेदभाव भरे व्यवहार की तो वेद या मनुस्मृति में शूद्र का शोषण करने या उसे अस्पृश्य मानने का कोई आधार नहीं है। वेदों में शूद्र को यज्ञ करने का विधान है-
पञ्चजना: मम होत्रं जुषध्वम्। (ऋग्वेद-१०.५३.४-५)
निरुक्तकार के अनुसार- ‘पञ्चजना: – चत्वारो वर्णा:, निषाद: पंचम इति औपमन्यव:। (निरुक्त-३.२.७)’। इस प्रमाण से यहाँ ‘पञ्चजना:’ का अर्थ है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं निरामिषभोजी निषाद। यज्ञ करने का निर्देश इन सबको है। इसलिए वैदिकी व्यवस्था में भेदभाव या छुआछूत का कोई स्थान नहीं।
एक आरोप है कि मनु ने शूद्र और स्त्रियों को बोलने का अधिकार नहीं दिया। यदि किसी श्लोक में ऐसा वर्णित है तो वो उसके प्रक्षिप्त होने, यानी बाद में जोड़े जाने का स्पष्ट प्रमाण है, क्योंकि एक तो मनु जिन वेदों को प्रमाण मान कर प्रवृत्त हो रहे हैं वो स्वयं शूद्रों और अतिशूद्रों को भी वेद पढ़ने का अधिकार देते हैं। यानी वेद की दृष्टि में वेदाध्यन के लिए सिर्फ मनुष्य होना योग्यता है-
‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय..।। (यजु.-२६.२)
दूसरा स्वयं मनुस्मृति में भी शूद्र के लिए कहा गया है-
‘उत्कृष्टां जातिमश्नुते।‘ (मनु.-९.३३५)
वह उत्कृष्ट जन्म या द्विजत्व को पा लेता है। इस तरह शूद्र को उत्कृष्ट वर्ण की प्राप्ति का अधिकारी मानना ही यह दर्शाता है कि उसे वेदादि शास्त्र पढ़ने का अधिकार है, क्योंकि न पढ़ने के कारण ही वह शूद्रत्व को प्राप्त हुआ था।
एक आरोप है कि मनु ने स्त्रियों से बोलने और पढ़ने का अधिकार छीन लिया। चलिए देखते हैं मनुस्मृति क्या कहती है-
स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्म: शौचं सुभाषितम्।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वत: ।। (मनु.-२.२४०)
स्त्रियाँ नाना प्रकार के रत्न, विद्या, धर्म, पवित्रता, श्रेष्ठ भाषण और विविध शिल्पविद्या सब देश तथा सब मनुष्यों से ग्रहण करें। बोलने के अधिकार के बिना विद्या की प्राप्ति और सुभाषित जिसका अर्थ ही है बोलना, क्या संभव हैं?
इसके अतिरिक्त ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ जैसे कितने ही अन्य श्लोक हैं, जो स्त्रियों का महिमा मंडन करते हैं। जहाँ तक स्त्रियों को पुरुषों के संरक्षण में रखने की बात है, वो उनकी सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक है। यद्यपि बहुत सी नारियाँ बहुत वीरांगनाएँ हुई हैं और अभी भी हैं किंतु यह सामान्य बात नहीं है। महिलाओं में शारीरिक बल आमतौर पर पुरुषों से कम होता है, इसलिए अधिकाँश महिलाएँ अपनी सुरक्षा पूरी तरह से नहीं कर पाती। हम देखते हैं कि ये बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इसलिए इस विषय में मनुस्मृति की दृष्टि व्यावहारिक ही है। किंतु किसी भी प्रसंग में प्रक्षिप्त खंडों का कोई समर्थन नहीं है।
मनु ने शूद्र के अतिरिक्त तीनों वर्णों को द्विज कहा है और शूद्र को एकजाति। द्विज यानी जिसका दोबारा जन्म होता है, एक बार माता की कोख से और दूसरा विद्याध्ययन से परिष्कृत व्यक्तित्व का जन्म। इस दूसरे जन्म के लिए विद्यार्थी विद्याध्यन के लिए गुरुकुल में जाता था, जहाँ उसका उपनयन और वेदारम्भ संस्कार होता था और इसके साथ ही विद्याध्यन का शुभारम्भ हो जाता था।
मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय में उपनयन के समय का उल्लेख करते हुए मनु कहते हैं कि जो ब्रह्मवर्चसकाम हैं, यानी जिनको ईश्वर और विद्या की शीघ्र प्राप्ति की इच्छा है, ऐसे माता-पिता अपने बच्चे का उपनयन संस्कार पाँचवें वर्ष में करा लें। जो बलार्थी यानी बल की कामना वाले हैं, अपने बालक को क्षत्रिय बनाना चाहते हैं, वे छठे वर्ष में तथा जो अर्थी यानी धन की कामना वाले हैं, उन्हें आठवें वर्ष में बालक का उपनयन कराना चाहिए।
इस निर्धारित समय में जिनका उपनयन नहीं हो पाता उन्हें पढ़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है, बल्कि उपनयन की समय सीमा को पर्याप्त रूप से बढ़ाया गया है और सभी को जब जागे तभी सवेरा का बहुमूल्य अवसर प्रदान किया गया है। इस अंतिम समय सीमा के अनुसार ब्राह्मण वर्ण के इच्छुक अभ्यर्थी को सोलह वर्ष तक, क्षत्रियत्व की कामना वाले को बाइस वर्ष तथा वैश्यवर्ण के इच्छुक को चौबीस वर्ष की आयु तक भी उपनयन कराकर अध्ययन का अवसर प्रदान किया गया है।
इस तरह विद्या रुपी माता जब उन्हें दूसरा जन्म देती है तो वे द्विज बन जाते हैं। जिन्हें इनमें से किसी भी वर्ण की कामना नहीं है, उनका उपनयन संस्कार ही नहीं होता और इस तरह वो द्विज की बजाय एकजाति यानी एक बार जन्म वाले शूद्र कहलाते हैं। फिर चाहे वो ब्राह्मण के घर पैदा हुआ हो, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र किसी के भी।
एक बार द्विज बनने के बाद भी किसी का स्थान स्थायी रूप से पक्का नहीं है। जो अपने वर्ण के निर्धारित कर्मों को नहीं करते उनका वर्ण परिवर्तित भी हो जाता है और वो निचले वर्णों को प्राप्त हो जाते हैं। बस इतनी राहत की बात है कि साँप-सीढ़ी के इस खेल में पासे आपकी मर्जी से डलेंगे-
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वय: ।। (मनु.-२.१६८)
अर्थ यह कि जो द्विज वेदाध्ययन न करके अन्यत्र श्रम करते हैं, वे जीते-जागते अपने परिवार सहित शूद्रपन को प्राप्त हो जाते हैं। जब परिवार का मुखिया ही वेद विमुख है तो संतति से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें अध्ययन का अवसर मिलना भी मुश्किल है, क्योंकि अध्ययन के लिए उपनयन तो माता-पिता को ही कराना है। ऐसा ही एक दूसरा प्रसंग है, जहाँ कर्मानुसार वर्ण परिवर्तन की बात कही गई है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। (मनु.-१०.६५)
शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। गुण-कर्मानुसार ब्राह्मण या तो ब्राह्मण ही रह सकता है या फिर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के गुणों वाला हो तो वो क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हो जाता है। वैसे ही शूद्र भी यदि उत्तम गुणयुक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। ऐसा ही क्षत्रिय और वैश्य के विषय में है।
इसके उलट यदि मनु के नाम पर कुछ भी प्रचलित है तो वो झूठ है, क्योकि मनु ने स्वयं वेदों को प्रमाण माना है और इस विषय में वेद का मत हम पहले ही देख चुके हैं, जहाँ उन्हें यज्ञ अनुष्ठान करने और वेदों को पढ़ने का अधिकार दिया गया है। इसलिए शूद्रों और स्त्रियों को बोलने के अधिकार से वंचित रखने का आरोप बिल्कुल गलत है।
मनुस्मृति में शूद्र के कर्तव्य वर्णित हैं-
एकमेव तु शूद्राय प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। (मनु.-१.९१)
प्रभु ने शूद्र यानी जो अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है या जिसमें अध्ययन जन्य अन्य कुशलताओं का अभाव है, उसके लिए बाकी वर्णों की सेवा का कार्य निर्धारित किया है। अब इस बात में आपको याद रखना पड़ेगा कि इसमें कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य का बेटा भी हो सकता है, जो पढ़ नहीं पाया।
किंतु हमारे पूर्वाग्रहों का आलम यह है कि इस बात पर उन लोगों को भी आपत्ति होती है, जिनके कार्यालय में एक व्यक्ति अधिक पढ़ा-लिखा न होने की वजह से चपरासी या सफाई कर्मचारी का कार्य करता है। या कहीं वो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी कहाता है और हम सवाल उस मनु पर उठाते हैं, जिसने शूद्र को शुचि: अर्थात् पवित्र कहा, अछूत नहीं।
इसके अतिरिक्त आप व्हाइट से लेकर ब्लैक कॉलर जॉब्स तक सारा वर्गीकरण देख सकते हैं, जो किसी दुर्भावना से नहीं किया गया। इसलिए वर्गीकरण सदा आपत्तिजनक नहीं हैं। चारों वर्ण इसी प्रकार के विद्वेष रहित वर्गीकरण थे, जो कालांतर में दोषयुक्त हो गए। इसमें मनु का कोई दोष नहीं है।
मनुस्मृति के दूसरे अध्याय में व्यक्ति की प्रतिष्ठा का आधार गुणों को माना गया है, जन्म को नहीं-
वित्तं बन्धुर्वय: कर्म विद्या भवति पंचमी।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्।। (मनु.-२.१३६)
धन, बंधुत्व, आयु, कर्म, विद्या ये सभी प्रतिष्ठा के आधार हैं और उत्तरोत्तर अधिक वजनदार हैं।
वर्ण व्यवस्था को जन्म की बजाय कर्म पर आश्रित सिद्ध करने के लिए सीधे शब्द प्रमाणों के अलावा अन्य संकेत भी हैं। जैसे मनु ने वर्णों के विभाजन का कारण बताते हुए कहा- ‘लोकानां विवृद्ध्यर्थम् (मनु.-१.३१)’ समाज की वृद्धि के लिए और दूसरा वर्णों के कर्म-निर्धारण का कारण कारण बताते हुए कहा- ‘सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थम् (मनु.-१.१८७)’ इस समस्त जगत की सुरक्षा के लिए कर्मों का निर्धारण आवश्यक है।
इसके लिए व्यक्ति में उन कर्मों की योग्यता का होना आवश्यक है अन्यथा समाज की वृद्धि और संसार की रक्षा न तो सिर्फ उच्च कुल में पैदा होने मात्र से होगी न आरक्षण से। इन कर्तव्यों को करने के सामर्थ्य से ही होगी। यदि जन्म के आधार पर वर्ण होते तो कर्मों के निर्धारण की क्या आवश्यकता थी?
बाबा साहेब आंबेडकर ने किसी पुस्तक में आक्रोश में मनु और वेदों की भर्त्सना की। इसलिए हम भी वही मानेंगे, चाहे वो शास्त्र का भाव हो या न हो तो यह भी एक दुराग्रह है। अगर आप बाबा साहेब के वाक्य को ब्रह्म वाक्य मानते हैं, उससे टस से मस नहीं हो सकते तो कुछ लोग वेद और मनु को प्रमाण मानते हैं। फिर आपको आपत्ति क्या है?
अंबेडकर विधिवेत्ता थे, कानून के प्रामाणिक विद्वान थे। इसलिए संविधान के निर्माण में उनके महत्वपूर्ण योगदान को भूरिश: नमन। किंतु कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता। वेदों की व्याख्या के लिए या उसका अभिप्राय बताने के लिए शास्त्रीय योग्यता के अतिरिक्त व्याख्याता को सर्वहितकारी, निष्पक्ष ऋषितुल्य होना चाहिए।
इस योग्यता के बिना जब-जब वेदों का अर्थ किया गया है, अनर्थ ही हुआ है। एक प्रामाणिक व्याख्या के उदाहरण के रूप में आधुनिक युग के भाष्यकारों में महर्षि दयानंद एवं कुछ अन्य विद्वानों के भाष्य को देखा जा सकता है। सार्वभौम, शाश्वत और सनातन प्रगतिशीलता के द्योतक वेदों पर निराधार आरोप लगाना तो उल्टा आरोपकर्ता की समझ पर ही सवाल खड़े करता है।
गलत व्याख्या तो संविधान की भी की जा सकती है। ऐसी व्याख्या जो संविधान निर्माताओं की विवक्षा के खिलाफ हो, उन्हें अभीष्ट न हो, लेकिन हम सदा संविधान की मूल भावना को सामने रख कर की गई व्याख्या को ही सर्वोपरि और उचित मानते हैं। इसी तरह वेदों की भी सभी व्याख्याएँ स्वीकार्य नहीं हैं। ऊपर दिए गए वेदों के प्रमाणों में जब साफ़-साफ़ शब्दों में शूद्र को बोलने-पढ़ने का अधिकार दिया गया है तो उससे विपरीत व्याख्या कैसे स्वीकार हो सकती है?
तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करना तो चोरों और अपराधियों का काम है। इसलिए जिसने भी वेदों की विपरीत व्याख्या की या मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में प्रक्षेप किया, उन्होंने अपने शास्त्र विरुद्ध कारनामों को शास्त्र सम्मत ठहराने का षड्यंत्र किया। आंबेडकर ने ऐसे ही किसी अनर्थकारी व्याख्याता का अनुगमन किया होगा, वर्ना ये संभव नहीं था, क्योंकि आंबेडकर नि:संदेह विद्वान व्यक्ति थे और विद्वान कभी पूर्वाग्रही नहीं होता।
इसलिए हम सब भी मनु या वेदों के नाम पर हो रहे दुष्प्रचार को यूँ ही स्वीकार न करें। उनको निष्पक्षता और सत्य के आग्रह के साथ फिर से जाँचें। वेद ही सर्वप्रथम ऐसे ग्रंथ हैं, जिनकी शिक्षाएँ और विधान पूर्णत: धर्मनिरपेक्ष हैं और सम्पूर्ण मानवता को संबोधित करके कहे गए हैं।
चलिए मनुस्मृति के एक सुभाषित के साथ इस चर्चा को विराम दिया जाए-
फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।। (६.६७)
रीठा यद्यपि जल को शुद्ध करता है, फिर भी उसका नाम लेने मात्र से जल शुद्ध नहीं हो जाता। उसे पीस कर जल में डालने से ही उसकी शुद्धि होती है। वैसे ही व्यक्ति के नाम या उपाधियों के बाहरी दिखावे से ही श्रेष्ठ फल नहीं मिलता, अपितु तदनुकूल आचरण से मिलता है।