Thursday, November 21, 2024
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हम 1 साल में कितने तैयार हुए? सरकारों की नाकामी के बाद आखिर किस अवतार की बाट जोह रहे हम?

बिहार के बेगुसराय में एक ऑक्सीजन की फैक्ट्री थी। ये बिजली बिल न भरे जाने के कारण बंद हो गई थी। - यही व्यवस्था है और हम वाकिफ भी हैं। फिर क्यों हम किसी अवतार के आकर समस्याएँ सुलझाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?

भारत की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए “तैयारी” एक अनोखा शब्द होता है। बहुत से भारतीय “तैयारी” शब्द और उसके अर्थ से बिलकुल ही अनजान होते हैं। इसे आसानी से समझना हो तो कभी किसी बैंक में जाकर खड़े हो जाइए। वहाँ आने वाले लोगों में से कोई भी ऐसा नहीं होता, जो गलती से वहाँ चला आया हो। सभी घर, दफ्तर या दुकानों से बाकायदा बैंक जाने के लिए निकले लोग ही होते हैं। अब बैंक जाएँगे तो कोई फॉर्म भी भरना पड़ सकता है, ये भी तय होता है, किसी को अलग से बताने की जरूरत नहीं होती। फिर क्या वजह होती है कि बैंकों में लोग एक दूसरे से कलम माँगते नजर आते हैं?

इतनी मामूली सी तैयारी भी भारतीय लोगों के बस की नहीं? बिलकुल थी। उन्होंने ये तैयारी इसलिए नहीं की थी क्योंकि वो मानकर चले थे कि अगर जरूरत हुई तो वहीं बैंक में कर्मचारियों ने कोई कलम टाँग रखी होगी। अगर वो नहीं हुआ तो किसी और से माँग कर काम चला लेंगे, इस उम्मीद में वो बिना कलम के बैंक आते हैं। ये तो “तैयारी” नहीं करना है, वो ऐसे छोटे मामलों में ही नहीं दिखेगा। वो बड़े मामलों में भी दिख जाता है। जैसे कुछ वर्ष पहले लगातार आए भूकम्पों का दौर याद कीजिए। जल्दी से घर से भाग कर निकला जा सके, इसके लिए तैयारी रखने की सलाह दी जाती है। सोचिए आज किसी के घर से जरूरी दवा, बिस्कुट, पीने के पानी का तैयार इंतजाम मिलेगा? लेकर फ़ौरन घर से निकला जा सके ऐसा कोई डब्बा, कोई पैकेट है?

जब पहली बार कोरोना लहर आई तो लोगों ने करीब दो-तीन पीढ़ियों बाद देखा कि महामारी की स्थिति में क्या होता है। इससे पहले 1974 में स्मालपॉक्स और 1994 में प्लेग की महामारी के बाद 2009 में भारत सरकार ने स्वाइन फ्लू को भी महामारी घोषित किया था। इनसे निपटने के लिए हमारे पास ब्रिटिश दौर का एक कानून है, जिसे “एपिडेमिक एक्ट 1897” कहा जाता है। ये उस दौर में मुंबई (तब की बम्बई) में फैले ब्युबोनिक प्लेग से निपटने के लिए बनाया गया था। सवा सौ वर्ष पुराने कानून से आज के दौर की महामारियों से कैसे निपटा जाएगा, पता नहीं। हमारी तैयारी इतनी अच्छी है कि पिछले एक वर्ष में हमने इस कानून में जरूरी सुधारों-परिवर्तनों की बात भी नहीं की है।

जो सुधार हुआ है, वो बस इतने कि जिससे डॉक्टरों-स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला करने वाले (तथाकथित सिंगल सोर्स) को इस कानून के जरिए दण्डित करने के प्रावधान इस कानून में जोड़ दिए गए हैं। कई महामारियों के लिए माना जाता है कि वो सफाई की कमी के कारण फैलती हैं। भारत में पहले से ही “स्वच्छ भारत अभियान” चल रहा था। इसके बाद भी हमने सफाई के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए। गंदगी फ़ैलाने वालों के लिए भी इस कानून में अलग से प्रावधान होने चाहिए। इससे जब महामारी की स्थिति हो, उस समय गंदगी फ़ैलाने वालों को और कठोर दंड दिया जा सकेगा। महामारी के काल में नकली दवाएँ बनाने वालों, दवाओं की कालाबाजारी करने वालों के लिए भी इसमें आज के दौर के हिसाब से प्रावधान होने चाहिए।

समाजवादी सोच की ये समस्या है कि वो मुफ्त वाई-फाई, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी से आगे लोगों को सोचने लायक ही नहीं छोड़ती। दस वर्ष आगे, अगली पीढ़ी का क्या होगा, ऐसी बातें समाजवादी सोच ही नहीं सकता। समाजवाद भविष्य की तैयारियाँ करने के बदले सरकार के भरोसे हाथ बाँधकर बैठना सिखाता है। उसमें भी अगर नेहरू वाला समाजवाद हो तो फिर तो कोढ़ में खाज वाला मामला सामने आ जाता है। इस बार जब ऑक्सीजन की कमी होनी शुरू हुई तो पता चला कि बिहार के बेगुसराय में एक ऑक्सीजन की फैक्ट्री थी। ये बिजली बिल न भरे जाने के कारण बंद हो गई थी। इसे दोबारा शुरू करवाने में जिला प्रशासन को दो दिन लगे।

आश्चर्य किया जाना चाहिए कि बिहार के ऐसे क्षेत्र में ऑक्सीजन की फैक्ट्री लगी है, जो पिछड़ा माना जाता है। वहाँ रोजगार देने वाली फैक्ट्री को सब्सिडी और सुविधाएँ मिलनी चाहिए थीं। उनके बिजली के बिल में कुछ रियायत होनी चाहिए थी। और जिसे शुरू करने में एक डीएम को दो दिन लगे, उसे बंद होने ही क्यों दिया गया था? ऐसा एक किस्सा बिहार के दूसरे इलाके से भी है। पश्चिमी चम्पारण में चनपटिया नाम का एक गाँव है। पिछली बार लॉकडाउन में जो मजदूर यहाँ वापस आए, उनके पास कौशल तो था, मगर पूँजी नहीं थी। डीएम कुंदन कुमार ने श्रमिकों की एक “स्टार्टअप जोन” बनाने में मदद की। वापस लौटे मजदूर अब यहाँ मिलों के खुद मालिक हैं और धंधा अच्छा चल रहा है। इसे देखने नीतीश कुमार भी जा चुके हैं।

सवाल है कि जो तैयारी कुछ लोग दिखाते हैं, वो समाज के बड़े हिस्से में क्यों नहीं फ़ैल रहा? क्या हम किसी अवतार के आकर समस्याएँ सुलझाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं? अगर अवतार के आने की प्रतीक्षा है भी तो ये प्रतीक्षा शबरी जैसी क्यों नहीं है? रोज रास्ता झाड़ पोंछ कर साफ़ क्यों नहीं कर रहा कोई? अगस्त्य-अनुसूया जैसी क्यों नहीं है? हथियार-कपड़े पहले से तैयार क्यों नहीं हैं, जो अवतार के आने पर उसे थमाए जा सकें? विश्वामित्र जैसी क्यों नहीं है, जो पहले से ही कम से कम दंडकारण्य से लेकर आस-पास के दूसरे रास्तों की जानकारी अवतार को दे सके? अवतार भी ऐसे तो आते नहीं न? भक्त ऐसे हों कि बुला सकें, तभी आते हैं।

बाकी जब सरकार कुछ नहीं कर रही कहिएगा, तो कम से कम उन दर्जनों स्वयंसेवकों (जो किसी संघ से जुड़े हों, ऐसा जरूरी नहीं) जितनी मेहनत के बाद कहिएगा। वो कहीं ऑक्सीजन जुटाने में, कहीं एम्बुलेंस का प्रबंध करने में, कहीं शवों के अंतिम संस्कार में मदद कर रहे हैं। और कुछ नहीं होता तो अपने शहर में कौन लोगों की मदद कर रहा है, उनका नाम-पता तो मालूम कीजिए!

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Anand Kumar
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