बंदर के हाथ में तलवार आ गई और आजकल इतनी योग्यता काफी है तलवार चलाने के लिए। अभिव्यक्ति की आजादी भी है और अभिव्यक्ति के मंच भी, तो चलो भांज देते हैं अभिव्यक्ति की तलवार। वैसे अभिव्यक्ति की आजादी से पहले एक और आजादी भी होती है ‘सोचने की आजादी’ लेकिन हम अपनी आजादियों का क्रमशः उपयोग करने के लिए बाध्य थोड़ी हैं? क्योंकि इस क्रम की बाध्यता से अभिव्यक्ति की आजादी भले ही दुरुस्त हो जाए किन्तु इससे ‘आजादी की अभिव्यक्ति’ खतरे में पड़ सकती है।
बड़े-बड़े बलिदानों के बाद ये आजादी मिली है लिहाजा हम इसके एक-एक शब्द की कीमत जानते हैं और इसे सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। कुछ उसी तर्ज पर जैसे वेद के मन्त्रों को प्रक्षेपों यानी मिलावट से दूर रखने के लिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कुछ उपाय किए थे, जिन्हें हम विकृति पाठ के नाम से जानते हैं। इसमें मंत्र के पदों को उलट-पुलट कर बोलने के बाद भी उनके अर्थ पर कोई असर नहीं होता और साथ ही उनमें अन्य शब्दों के मिलावट की गुंजाइश भी ख़त्म हो जाती है। जैसे- ‘तत् सवितु:, सवितु: तत्, तत् सवितु: इति, सवितुर्वरेण्यं, वरेण्यं सवितु:, सवितुर्वरेण्यम् इति’…
शायद अपनी आजादी के मन्त्रों को भी हम कुछ इसी विधि से सुरक्षित करना चाहते हैं- ‘अभिव्यक्ति की आजादी, आजादी की अभिव्यक्ति, अभिव्यक्ति की आजादी इति’… हो गया सुरक्षित। अब इसमें कोई दूसरे शब्दों की मिलावट नहीं कर पाएगा। कहीं भविष्य में कोई तानाशाह आकर कहने लगे कि देखो ये अभिव्यक्ति की आजादी नहीं ‘अभिव्यक्ति की सीमित आजादी’ था। वो प्रिंटिंग की गड़बड़ थी। तब हम फटाक से आजादी के इस महार्घ मंत्र का विकृति पाठ पेश कर देंगे कि देखो एक जगह ही तो मिसप्रिंट हो सकता है ना? इतनी सारी जगहों पर तो नहीं?
हमारी आजादी के साथ कोई खिलवाड़ न किया जाए। ओह! लेकिन एक गड़बड़ हो गई, संस्कृत में तो उल्टा-पुल्टा करने पर भी अर्थ नहीं बदलता किन्तु यहाँ तो बदल गया!! लेकिन कोई समस्या नहीं, हमें आजादी के पवित्र मंत्र का अर्थ हर एंगल से स्वीकार है। अभिव्यक्ति की आजादी तो है ही, आजादी की अभिव्यक्ति भी धमाकेदार होनी चाहिए। सोचकर बोलने से इस पर खतरा मंडराने लगता है इसलिए सोचकर तो बोलेंगे ही नहीं और बोलकर सोचेंगे इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। इसे कहते हैं पूर्ण आजादी। आजादी के गहरे सन्दर्भ। आजादी की अभिव्यक्ति का ताजा उदाहरण वो लोग भी हो सकते हैं, जो लॉकडाउन में जान हथेली पर लेकर भी अपनी आजादी को अभिव्यक्त करते हुए दिख जाते हैं, हालाँकि भारत में ऐसे बलिदानी व्यक्तित्वों की संख्या कम है।
अब आज के अति फास्ट ज़माने में शब्दों को बोलने से पहले तोलने की जहमत कौन उठाए, वो तो पुराने ज़माने में लोग फुर्सत में ज्यादा रहते थे तो अपनी विद्वत्ता का प्रयोग बाल की खाल निकालने में ही कर लेते थे। कहे हुए शब्दों के अर्थ का निर्द्धारण करने वाले फलां तत्त्व हैं- ‘वक्तृबोद्धव्यकाकूनां वैशिष्ट्यात् प्रतिभाजुषाम्…।’ काव्यप्रकाशकार कह गए। यानी वक्ता कौन है, श्रोता कौन, किस परिस्थिति में, किस प्रसंग में बोला गया, लहजा क्या था, कालवैशिष्ट्य, देशवैशिष्ट्य, एक-एक भंगिमा अर्थबोधक है। ये सब व्यर्थ की ऊहापोह है।
ऐसा नहीं है कि हमारे जमाने में गंभीर विश्लेषण नहीं होते, पर हमारी चिंताएँ और हैं, ज़्यादा व्यावहारिक हैं। बोलने वाला लेफ्ट है या राईट है, किस मीडिया हाउस से है, किसके खिलाफ बोला, जिस राज्य में बोला वहाँ किसकी सरकार है, पहुँच कितनी है, कभी-कभी कौन जात है – ये भी प्रश्न हो सकता है, ऐसी ही कुछ गहन चीजें परखी जाती हैं तब जाकर ये फरमान आता है कि आपको अभिव्यक्ति की कितनी मात्रा में आजादी है। पेचीदा हिसाब है। बोलने से पहले ये सब सोचना पड़ता है भई, तब जाके आजादी मिलती है।
ये सच है कि आजादी बलिदान माँगती है। इसलिए कुछ लोग बेचारे बिना बोले चुपचाप हत्याएँ कर आते हैं और कुछ नासमझ अभिव्यक्ति की आजादी का भ्रम पाले सवाल उठा देते हैं। फिर उनके उठाए सवाल पर उन्हीं से बारह घंटे तक जवाब माँगा जाता है।
खैर चलिए अपने प्रसंग पर वापस लौटते हैं। आज के समय में अभिव्यक्ति यानी बोलना-कहना बहुत जरूरी है। ज़माना ऐसा आ गया है कि अनिर्वचनीय कुछ भी नहीं है, सब कहा जा सकता है और कहना पड़ता है। अब देखिए भले ही महाकवि भवभूति कह गए हों कि रिश्ते-नाते अनिर्वचनीय होते हैं- ‘न किंचिदपि कुर्वाण: सौख्यैर्दु:खान्यपोहति। तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जन:।।’ कहने का मतलब यह है कि जो जिसका प्रीतिभाजन है, वो उसका अनिर्वचनीय द्रव्य है। लेकिन आज ऐसे नहीं चलेगा, अभिव्यक्ति बहुत आवश्यक है। इसलिए हमने तो शब्दों से परे माने जाने वाले इन रिश्तों को अभिव्यक्ति देने के लिए अलग-अलग दिन भी निर्धारित कर लिए हैं। नहीं कहोगे तो शामत है, भले ही आपका आपसी समझ का दावा कितना ही मजबूत हो। तो स्पष्ट है कि आज कहना बहुत जरूरी है।
एक भगवान पर भरोसा था कि शायद वो बिना कहे अन्दर की आवाज सुन लेते हैं, लेकिन लगता है उन पर भी बदलते जमाने का असर है। वो भी आजकल बिना जोर से कहे नहीं सुन रहे हैं। जब से लाउडस्पीकर का आविष्कार हुआ है, तब से उनकी नीयत भी खराब हो गई है।
और सरकारें? उनको तो हम ही चुन कर भेजते हैं ना? वोट डालने से पहले हमारी जरूरतों को हमसे ज्यादा तो वो कह चुके होते हैं, हर रैली में दोहराते हैं। इसलिए कम से कम वो तो बिना कहे हमारी ज़रूरतों को समझ जाया करें। लेकिन नहीं जी, उनके लिए तो बहुत पुराना और स्थापित विरुद है- ‘सरकारें बहरी होती हैं’। यहाँ तो और भी ऊँचा बोलना पड़ेगा। कुछ धमाकेदार, कुछ हटकर बोलना ज़रूरी है, चाहे उस हटकर दिखने के चक्कर में ट्रेन मुद्दे की पटरी से ही क्यों न उतर जाए, चलेगा क्योंकि आज के उत्साही श्रोता उसे भी एक स्टंट समझकर तालियाँ बजा देंगे। तो मुद्दे से बाहर जाना एक घाटाशून्य गलती है, आप इसे कर सकते हैं बशर्ते कि आपको इससे लाभ हो। इस तरह जितना हटकर बोलेंगे उतना अधिक अपने आजाद अस्तित्व की धमक महसूस करा पाएँगे और सुर्खियाँ बटोरेंगे। इसलिए अभिव्यक्ति कंट्रोवर्शियल होनी चाहिए।
आवाज उठानी पड़ेगी। अपने हक़ की आवाज। इसीलिए आज कल कुछ भी समस्या हो उसके लिए आवाज उठा देना बहुत ज़रूरी हो गया है। हर तरफ पहले ही इतनी आवाजें उठी हुई हैं कि अगली आवाज को पिछली आवाजों से और ऊँचा उठाना पड़ता है। लिहाजा आवाज में किसी मर्यादा या शिष्टता की गुंजाइश भी कम ही रहती है। ऊपर से हम आजाद हैं अपने शोर को अभिव्यक्त करने के लिए, ऐसे में मुद्दों का समाधान भी शोर की शक्ल में ही आता है और फिर एक शोर और मचता है कि कोई सुन नहीं रहा है।
कोई सुने भी कैसे, सब तो बोलने में व्यस्त हैं। दर्शनशास्त्र कहता है- ‘युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम्’ यानी हमारा मन एक बार में एक ही काम कर सकता है, या तो बोलेगा या सुनेगा। सबको अपनी-अपनी आवाज प्यारी है, इसलिए जब कोई संवाद होता है तो सबकी जुबानें कोरोनाकालीन चीन की तरह व्यस्त हो जाती हैं और कान तेल बेचने वाले अरब देशों की तरह बेरोजगार।
इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है हमारे समाचार चैनल्स की बहसें। वहाँ तो हर वक्ता को यही लगता है कि उन्हें कुछ कहने के लिए ही डिब्बे में बुलाया गया है वरना श्रोता तो वो डिब्बे के बाहर भी थे, इसलिए सबसे पहला काम तो वो ये करते हैं कि अपने-अपने कानों को घर पर ही छोड़ आते हैं और फिर शुरू होती है गरमागरम बहस, बिल्कुल उन दो दिव्यांगों (सिर्फ बधिर) की कहानी की तर्ज पर, जिनमें से पहला खेत पर काम कर रहा था और दूसरा सड़क से जा रहा था, दोनों में बात चल रही है-
पहला (ऊँची आवाज में)- भाई रामफल! बाजार जावे है के?
दूसरा (और ऊँचे स्वर में)- ना भाई! मैं तो बाजार जाऊँ हूँ, बाजार।
पहला (कुछ निराश होकर)- अच्छा… मखाँ बाजार जाता हो तो मेरा भी एक काम था।
दूसरा- भाई मैं तो यूँ ही खाली बैठा था, तो सोचा थोडा बाजार घूम आऊँ।
पहला- ठीक है भाई जा, मन्ने लगा तू बाजार जावे है, अच्छा अगर बाजार जावे तो मुझे जरूर बता दिये।
और दोनों अपने-अपने रास्ते चल पड़े।
क्या बढ़िया बातचीत चली। दोनों को बोलने का मौक़ा मिला। यानी हम एक-दूसरे की बात को बिना सुने भी अपनी बात कह सकते हैं।
लेकिन क्या सचमुच हम ऐसी बातचीत के पक्षधर हैं? क्या हमारी अभिव्यक्ति दूसरों की अभिव्यक्ति को सुने बिना कोई मतलब रखती है? जिस बोलने और आवाज उठाने पर हम इतना बल देते हैं उसका कोई कायदा तो हो। इस विषय में भारतीय दर्शनशास्त्र की उन्नत परम्परा के पास हमें सिखाने को बहुत कुछ है।
महर्षि गौतम ने न्यायदर्शन में बातचीत करने के प्रकारों पर विस्तार से चर्चा की है। वहाँ संवाद या बातचीत करने की चार विधियाँ गिनवाई गई हैं- वाद, जल्प, वितंडा और शंका-समाधान। साथ में यह भी बताया गया है कि यदि आप सभ्य भाषा में तथ्यात्मकता और तार्किकता के साथ सच को प्रस्तुत करना चाहते हैं तो इनमें से कौन-सी विधि अपनानी चाहिए और किससे बचना चाहिए। इस दृष्टि से वाद और शंका-समाधान अनुकरणीय हैं जबकि जल्प और वितंडा ईमानदार वक्ताओं द्वारा प्रयुक्त नहीं की जाती हैं।
वाद का मतलब है- जिस विषय में चर्चा की जानी है, उस विषय में पहले अपना पक्ष स्पष्ट करना और उसके बाद तर्क और प्रमाण से उसे सिद्ध करना। वाद का एक और महत्वपूर्ण नियम है, जिसकी उपेक्षा करके हमारे पैनलिस्ट्स या विषय-विशेषज्ञ अपना और अपने श्रोताओं का बहुत सारा समय यूँ ही बर्बाद कर देते हैं। वो नियम है- यदि एक वक्ता दूसरे पक्ष के वक्ता से कोई प्रश्न करेगा, तो दूसरे वक्ता को पहले उस पूछे गए प्रश्न का प्रमाण व तर्क से उत्तर देना होगा। जब तक वो उस सवाल का जवाब नहीं देता तब तक वह अपने पक्ष में और कोई बात नहीं बोल सकता। अगर वो उत्तर न दे पाए और प्रसंग से हटकर इधर-उधर की बात करने लगे तो मध्यस्थ यानी उस वाद के संचालक को ये अधिकार है कि वो प्रश्न से पलायन करने वाले वक्ता की हार घोषित करे।
न्यायदर्शन में बातचीत में होने वाली 54 प्रकार की गलतियों की ओर ध्यान दिलाया गया है, जिसमें ठीक उत्तर न देना या चुप रह जाना निग्रहस्थान नामक गलती के अंतर्गत आता है। वाद में झूठ या चालाकी का कोई स्थान नहीं है। इसका उद्देश्य है हर कीमत पर सही और गलत का निर्णय करना। जबकि जल्प विधि का प्रयोग करने वाले छल (वक्ता के अभिप्राय को तोड़-मरोड़ कर पेश करना), जाति (चालाकी या धोखाधड़ी) व निग्रहस्थान (गलत उत्तर देना, प्रसंग बदल देना, चुप रह जाना) आदि का सहारा लेकर जैसे-तैसे अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं।
तीसरी विधि वितंडा में व्यक्ति शुरू से ही अपना पक्ष स्पष्ट नहीं करता, यही नहीं बताता कि उसका इस बारे में क्या मानना है, वो पूरे समय बस दूसरों पर आक्षेप लगाता रहता है। स्पष्ट है कि वो बहस में केवल शोर मचाने का काम करता है। चौथी विधि शंका-समाधान में विशेषज्ञ व्यक्ति से हम सिर्फ अपनी शंकाओं के समाधान के लिए प्रश्न करते हैं और मुख्य रूप से उसे सुनते हैं। इस तरह बातचीत के कायदे-कानूनों का ध्यान रखकर हम अपनी अभिव्यक्ति को सार्थक बना सकते हैं।
संस्कृत में एक कहावत है- ‘मुखमस्तीति वक्तव्यम्’ मतलब भगवान ने बोलने के लिए मुख दिया है, बस इसलिए बोल रहे हैं। कृपया अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का इतना सस्ता प्रयोग न करें। इस आजादी को हासिल करने के लिए कुर्बानियाँ दी गई हैं। क्या हमारी अभिव्यक्ति को शोर से ज्यादा दिखने का अधिकार नहीं है? हमारी आजाद अभिव्यक्ति अर्थहीन ध्वनि न बने।
दोष अभिव्यक्ति का नहीं है, न ही अभिव्यक्ति की आजादी का। दोष हमारी मंशा का है। कुछ लोगों को लगता है कि सत्ता के खिलाफ आवाज उठाना ही सबसे बड़ा वाक्शौर्य है, लेकिन वो भूल जाते हैं कि वह सत्ता वैश्विक सन्दर्भ में आपके देश का प्रतिनिधित्व भी करती है। तब आपकी अभिव्यक्ति को मर्यादा माननी पड़ेगी। नहीं मानेंगे तो लोग देशद्रोह का इल्जाम भी लगा देंगे। वैसे तो अब कुछ लोग इस आरोप को भी एक उपलब्धि समझने लगे हैं, लेकिन इससे उनकी जवाबदेही ख़त्म नहीं हो जाती।
आपके माता-पिता ने आपको जिस मंशा से पॉकेट मनी दी है, उससे विपरीत कार्यों में उसे खर्च करना अच्छी बात नहीं है। आजादी की लड़ाई लड़ने वालों ने इस मंशा से आजादी का हथियार हमारे हाथ में नहीं सौंपा था कि एक दिन हम इसे अपने ही देश की चूलें हिलाने में इस्तेमाल करेंगे। अपनी-अपनी आजादियों को समझाइए कि वो देशहित में अभिव्यक्त हों।