स्थानीय हिंदुओं द्वारा कई दिनों तक लगातार किए गए विरोध के बाद गुरुग्राम प्रशासन ने कई सार्वजनिक स्थलों पर नमाज के लिए दी गई अनुमति को वापस ले लिया है। प्रशासन के इस फैसले से स्थानीय लोगों ने यह सोचते हुए राहत की साँस ली होगी कि उनकी तत्परता और संघर्ष ने प्रशासन को नमाज के लिए दी गई अपनी अनुमति वापस लेने के लिए बाध्य कर दिया। दूसरी ओर प्रशासन के इस फैसले को लेकर मुस्लिम समाज की संभावित प्रतिक्रिया क्या होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। जाहिर है, उनके लिए प्रशासन का यह कदम सुखद नहीं होगा।
स्थानीय हिंदुओं का यह कदम अन्य शहरों में लोगों को अपने आस-पास के सार्वजनिक स्थलों को बचाने और उनकी रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहने को प्रेरित करेगा।
सार्वजनिक स्थलों पर नमाज़ पढ़ने को लेकर जो भी विरोध और विवाद हुआ, क्या वह होना चाहिए था? यह प्रश्न जितना सरल है उसका उत्तर भी उतना ही सीधा है। पर पता नहीं क्यों प्रशासन ने विवाद को इतने दिनों तक चलने दिया। एक दिन तो प्रशासन को नमाज के समय पुलिस बुलानी पड़ी। इस कार्रवाई के पीछे प्रशासन की मंशा भले ही कानून-व्यस्था सुनिश्चित करने की रही हो पर आम तौर पर लोगों के बीच यह सन्देश गया कि प्रशासन और सरकार पुलिस के देख-रेख में नमाज करवाना चाहती है। नमाज के समय यदि प्रशासन पुलिस बुलाती है तो जनता को ऐसी धारणा बनाने से नहीं रोक सकती कि सरकार पुलिस बुलाकर नमाज सुनिश्चित करना चाहती है।
प्रशासन का न केवल यह कदम अतार्किक था, बल्कि यह कहना भी सही नहीं लगा कि दोनों समुदाय के लोगों ने आपस में मिलकर यह तय किया है कि इन सार्वजनिक स्थलों पर नमाज पढ़ी जाएगी। किन सार्वजनिक स्थलों नमाज पढ़ी जाएगी, यह तय करना प्रशासन और सरकार की जिम्मेदारी है या स्थानीय लोगों की? ऐसे में प्रशासन यदि ऐसा कहकर एक न्यूनतम पारदर्शिता से कन्नी काटता रहे तो इन स्थलों पर नमाज का विरोध कर रहे हिंदुओं के मन में प्रशासन की ईमानदारी को लेकर शंका उत्पन्न क्यों न होगी? प्रतिक्रिया के रूप में धारणाएँ और शंकाएँ किसी न किसी क्रिया का ही परिणाम होती हैं। ऐसे में प्रशासन यह शिकायत करके भी पल्ला नहीं झाड़ सकता कि उसे गलत समझा गया।
इसका परिणाम यह होता है कि असामाजिक तत्वों, एजेंडा चलाने वालों तथा अन्य लोगों के लिए यह शोर मचाना आसान हो जाता है कि हिंदू समुदाय तो नमाज के विरुद्ध है।
वर्तमान शासन व्यवस्था में अपने मन से सार्वजनिक स्थलों पर किसी भी तरह का मजहबी कार्य शुरू कर देना कितना सरल या कठिन है, यह ऐसा प्रश्न है जिसे आए दिन पूछा जाना चाहिए। गुरुग्राम में हिंदुओं द्वारा नमाज का जो विरोध हुआ वह एक दिन की नमाज का परिणाम नहीं था। नमाज पढ़ने वालों के सामने समूह में खड़े होकर विरोध के पहले निश्चित तौर पर व्यक्तिगत स्तर पर शिकायत की गई और उचित परिणाम न दिखने पर ही सामूहिक विरोध का फैसला लिया गया।
ऐसे में गुरुग्राम में हुई घटनाएँ अन्य शहरों में न केवल लोगों के लिए बल्कि स्थानीय प्रशासन के लिए एक केस स्टडी की तरह होनी चाहिए। सार्वजनिक स्थलों पर इस तरह के मजहबी कार्यकलाप, दीर्घकाल में सामाजिक समरसता के लिए सही नहीं हैं।
मजहबी कार्यक्रमों के लिए सार्वजनिक स्थलों के उपयोग किए जाने को लेकर पारदर्शिता स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है। प्रशासन जितनी अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा, विवाद की आशंका उतनी ही कम रहेगी। समुदायों को यह समझने की आवश्यकता है कि सदियों/दशकों से आयोजित हो रहे सांस्कृतिक, सार्वजनिक या धार्मिक कार्यक्रमों को आगे रखकर नए मजहबी कार्यक्रम करने की माँग के लिए आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था में स्थान सीमित है। ऐसे में हर सप्ताह नमाज जैसे कार्यक्रमों के लिए सार्वजनिक स्थलों की माँग न केवल सरकार और प्रशासन के लिए बल्कि सामाजिक व्यवस्था के लिए सिरदर्द साबित हो सकती है।
इन सब के ऊपर, कुछ मजहबी रिवाज ऐसे हैं जिनके पालन के लिए रत्ती भर समझौता न करना आधुनिक सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध जाता है। ऐसी घटनाओं को लेकर विभिन्न शहरों का प्रशासन कितना सतर्क रहता है यह बात तो भविष्य के गर्भ में है पर यह सीमित संसाधनों से परेशान आधुनिक सरकारी और प्रशासनिक व्यवस्था के हित में है कि वह सतर्क रहे। दूसरी ओर अन्य शहरों के स्थानीय लोगों के लिए भी इसमें एक पाठ है कि सतर्क रहना आवश्यक क्यों है। स्वच्छंदता, स्वतंत्रता, स्वाधीनता और सांस्कृतिक लड़ाई, सबकी कीमत होती है और कीमत जितनी छोटी रहे उतना अच्छा।