- संघी सिर्फ अपने जैसे डरपोक पैदा कर सकते हैं।
- यह इकलौता ऐसा संगठन है जो पुलिस के पीछे छुपकर रहता है। अदालतों का सहारा लेकर लड़ाइयाँ लड़ता है।
- चार लाठियाँ पड़ीं नहीं कि बाप-बाप कहकर भाग जाता है।
- एक आदमी ज़ोर से डाँट दे तो दुबक कर छुप जाता है।
- फेसबुक पर किसी ने एक धमकी दी और अकाउंट डिलिट करके अंडरग्राउंड हो जाता है।
- ये क्लीव हैं, डरपोक हैं, इनमें जिगरा नहीं है। किसी से लड़ने की हिम्मत नहीं है।
- हर दूसरी बात पर लिबरल्स, तो मार्क्सवादी, तो यह तो वह कहकर रोते हैं, डरपोक कहीं के।
- अभी कॉग्रेस की सरकार बन जाए तो घर में दुबक जाएँगे अथवा चुपचाप भीगी-बिल्ली बनकर अपने-अपने काम करेंगे।
- इन्हें पहचान लीजिए, कल जब हमारी सरकार आएगी, तब अगर ये कोई मदद माँगने आएँ तो जूतों से आरती की जाएगी। इन्हें सबक सिखाया जाएगा। इन्हें इनकी औकात दिखाई जाएगी।
- दाँत निपोरू, चमचे, डरपोक कहीं के।
- सबकुछ याद रखा जाएगा।
नहीं, नहीं उपर्युक्त बयान मेरे नहीं हैं। यह एक मार्क्सवादी लेखक मित्र का फेसबुक स्टेट्स है जिसकी मुख्य बातों और निहितार्थों को मैंने आपकी सुविधा के लिए साफ-साफ और बिंदुओं में प्रकट कर दिया है। इनकी दिक्कतों को समझिए। इसकी पड़ताल ज़रूरी है। यह जो भाषा है वह लोकतंत्र की भाषा तो कतई नहीं है। कानून की जगह शरीरबल को महत्त्व देने वाली दृष्टि के ये पुरोधा संघियों का नहीं लोकतंत्र का तिस्कार कर रहे हैं, मज़ाक उड़ा रहे हैं।
अगर कोई व्यक्ति कानून की मदद से, व्यवस्था के नियमों के तहत लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ता है तो वह इनकी नज़र में डरपोक है, क्लीव है, कायर है, मुर्गी है। कुलमिलाकर वह कम-से-कम मर्द नहीं है। और इनकी नज़र में मर्द कौन है?
वह जो झगड़ा होने पर मुँह तोड़ दे, शहर जला दे, सिर काटने वालों को 51 लाख देने की घोषणाएँ कर दे, शाहीन-बाग करके देश के रोज़मर्रा के जीवन को ठप्प कर दे, पुलिस को पीट दे, गो हत्या करके मुँह चिढ़ाए, सुप्रीम कोर्ट के लोकतांत्रिक फैसले पर आँखें दिखाए और कहे कि जब आबादी बढ़ेगी तो सबक सिखाएँगे, आतंकवादियों के जनाजों में लाखों की संख्या में शिरकत करे, जो कार्टून बनाने वालों को मार डालने के लिए एकजुट हो जाए जो दूसरे के धर्म की देवी-देवताओं की अश्लील तस्वीरें बनाए और दूसरे जवाब दें तो उसे भीड़ बनकर मार डालने की लिए जुट जाएँ। यही मर्दानगी है न?
यह कैसी भाषा है? एक लोकतंत्र में, एक लेखक को, एक लोकतांत्रिक माध्यम (फेसबुक) पर इस तरह की भाषा बोलनी चाहिए? इस भाषा के मायने क्या हैं? ऐसी भाषा कौन बोलता है? यह तो जंगल की भाषा है? ऐसी भाषा कि जिसमें ताकत होती है वह पुलिस से मदद नहीं माँगता, तो जंगल में चलता है।
जिसकी लाठी उसकी भैंस, अथवा जिसमें ताकत हो वह फैसला करे, अर्थात् कानून की जगह शरीरबल से फैसला, यह तो जंगल में होता है और इसी को तो जंगल-राज कहते हैं। तो मार्क्सवादी लेखक मित्र भारत के लोकतंत्र से ऊब गए? अथवा उन्हें लोकतंत्र की जगह माओ की विचारसरणी का देश चाहिए?
क्या उन्हें जंगल राज चाहिए? या हिन्दूवादियों की बढ़ती ताकत बर्दाश्त नहीं हो रही इसलिए भाषा का संयम जाता रहा है? हिन्दूवादियों के सत्ता में आते ही शायद 70 सालों से चाट रही मलाईयों के लाले पड़ गए होंगे तो मन विपरीत दिशा में भाग रहा हो कि जब सत्ता में रह ही नहीं सकते तो व्यवस्था को ही चौपट कर दो। ‘जो हमारा नहीं, वह किसी का नहीं’ टाइप।
मैं इस मसले में बहुत साफ कह दूँ कि भारत न अरब होने जा रहा है और न चीन। यह हिन्दूवादी विचारसरणी का देश है एक ऐसी विचारसरणी जिसकी भित्ती ही आलोचनात्मक और लोकतांत्रिक है। वह प्रकृत्या लोकतांत्रिक है।
हिन्दू अपने जीवन में न भगवान को, न माता-पिता को और न ही राष्ट्र- किसी को भी आलोचना के परे नहीं मानते। हिन्दूवादी विचारसरणी स्वभाव से ही लोकतांत्रिक है। अतः भारत को और हिन्दुओं को अलोकतांत्रिक होने का पाठ पढ़ाना असंभव है। हिन्दू एक उदार और भव्य विचारसरणी के लोग हैं इनसे क्रूर और हिंसक प्रवृत्तियों की चाहना एक दुस्साहस है, एक दुरभिसन्धि है, एक नाकाम चाहत है।
लेकिन मैं संघियों और हिन्दुओं को डरपोक कहे जाने को गंभीरता से लेना चाहूँगा और इस तिरस्कार के पीछे से लेकिन एक जलता हुआ सत्य भी प्रकट करना चाहूँगा। भले उपर्युक्त बयान संघियों को अपमानित करने के लिए दिया गया हो लेकिन समझने का प्रयत्न करना होगा कि जिस इस्लामिक-मर्दवाद के आलोक में संघियों को डरपोक कहा जा रहा है उसकी तुलनात्मक पड़ताल ज़रूरी है।
अब सवाल उठता है कि उपर्युक्त बयान के आलोक में संघ या प्रकारांतर से कहें तो हिन्दुओं की इस डरपोक मनःस्थिति का गंभीर विश्लेषण हो अथवा एक बड़े परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन द्वारा बयान के निहितार्थों के आलोक में वस्तुस्तिथि की विवेचना की जाए।
यहाँ संघ और हिन्दुओं को कायर क्यों कहा जा रहा है और अगर कहा भी जा रहा है तब भी दो सवाल हैं, पहला उनकी किस तरह की अवस्थिति के कारण यह रिमार्क दिया जा रहा है और दूसरा सवाल किनके आलोक में उन्हें इस विशेषण से विभूषित किया रहा है। तो यह ज़ाहिर सी बात है तीसरे सवाल का जवाब संप्रदाय विशेष का जनमानस है क्योंकि मार्क्सवादी उन्हें ही बहादुर और मर्द कह रहे हैं जबकि हुन्दुओं को डरपोक और क्लीव।
इन्हीं सवालों में वह उत्तर और सामाजिक भविष्य के गूढ़ संकेत छिपे हुए हैं, इसलिए मैं इन रिमार्क्स को हलके में लेने को प्रस्तुत नहीं हूँ। यह बयान भारत की सामाजिक-राजनीतिक अवस्थिति को भी प्रकट करने वाला है कि एक पक्ष बहुसंख्यक होने के बावजूद डरपोक कहा जा रहा है यानी उनकी ऐसी गतिविधियाँ ज़रूर हैं जिनके आलोक में उन्हें डरपोक कहा जाए और दूसरा पक्ष 16 प्रतिशत की जनसंख्या लेकर भी बहादुर, साहसी और मर्द है।
जंगल की भाषा में सोचें तो यह सही बयान है, मतलब गर्व करने लायक लेकिन सभ्यता, मनुष्यता, लोकतंत्र, मानवता, न्याय और व्यवस्था के आलोक में देखें तो यह एक तिरस्कारपूर्ण, घटिया, अलोकतांत्रिक, हिंसक, क्रूर और आपत्तिजनक बयान तथा दृष्टि है। लोकतंत्र की बुनियाद सभ्यता में है, अनुशासन में है, संविधान के वर्चस्व और उच्चता में है। एक देश को सभ्य और संस्कृत तभी कहा जा सकता है जब वहाँ के लोग कानून का शासन मानें, अपने झगड़े और विवादों को पुलिस और अदालतों के माध्य से सुलझाएँ, सिर फोड़ देना, हत्या कर देना, शरीरबल का प्रदर्शन करके फैसला करना न न्याय है और न उचित।
हिन्दू जनमानस और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग अगर झगड़ों और विवादों और समस्याओं को कानून के ज़रिए हल करना चाहते हैं तो मैं या दुनिया का कोई भी सभ्य और लोकतांत्रिक व्यक्ति उसे सही कहेगा। उसकी प्रशंसा करेगा लेकिन जो व्यक्ति मन से हिंसक हो, शोषक हो, भ्रष्ट हो, शरीर की, जंगल की मनोवृत्ति वाला हो वह ही इसे कायरता या डरपोक मनोवृत्ति कहेगा।
लेकिन, मैं एक स्तर आगे जाकर उनके बयान को और सूक्ष्मता से खोलना चाहूँगा। इस बयान को ठीक से पढ़ा जाए तो इसमें सत्ता की भाषा की बू आ रही है। यानी कोई एक पक्ष ऐसा है जो शरीरबल से फैसले कर रहा है और अपने मुताबिक जी रहा है, तभी उसके आलोक में न्यायशील पक्ष डरपोक दिख रहा है। आज हिन्दुओं की ऐसी दयनीय और हेय स्थिति हो गई है कि लोग उनपर हँस रहे हैं। विश्व की सबसे महान संस्कृति, सबसे उदात्त साहित्य देने वाले, सबसे अहिंसक और भव्य धर्म के लोगों की इस दयनीयता की पूरी चाभी इन्हीं मूलभूत कारणों में बंद है।
उसके लिए इस देश की इस मनःस्थिति की पड़ताल ज़रूरी है। पहले तो मैं बहुत साफ-साफ कहना चाहता हूँ कि हिन्दुओं को पहले तो यह मान लेना चाहिए कि उनकी अवस्थिति कायरों वाली है और वे सच में दयनीय हैं। उनकी भव्यता और विराटता के प्रदर्शन के सारे रास्ते बंद हो गए हैं।
एक बात सदैव स्मरण रखनी चाहिए कि व्यक्ति अपनी कला और विशेषताओं का प्रकटीकरण तभी कर सकता है जब उसे स्वतंत्र और सहज वातावरण मिले। डर और आतंक के साए में रहकर वह कभी अपने आत्म की स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं कर सकता।
दुनिया की हर संभावना, हर विशेषता की मृत्यु डर और आतंक से हो जाती है। अगर आपको एक स्वस्थ समाज बनाना है तो सबसे पहले उस समाज को भयमुक्त करना पड़ेगा। जबतक भय और आतंक का वातावरण रहेगा, तबतक दुनिया में कोई भी स्वस्थ निर्माण संभव नहीं हो सकता।
ऋग्वेद में आत्म-साक्षात्कार में, व्यक्ति-चेतना के उत्थान में भय को बाधक माना गया है। उपनिषदों में व्यक्ति को हर स्थिति में निडर रहने की सलाह ही नहीं बल्कि ज्ञान प्राप्ति में सबसे आवश्यक बताया गया है। आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में लिखा है, “किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।” इसी तरह रवींदनाथ ठाकुर ने ‘गीतांजलि’ में लिखा है कि वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ का वातावरण भयमुक्त हो। सुभाषचंद्रबोस अपनी माँ को लिखे पत्र में एक ऐसे भारत के स्वप्न की बात करते हैं जहाँ शोषण न हो, भूख न हो और सबसे बड़ी बात कि मनुष्य को कोई भय न हो। महर्षि अरविंन्द भी डरे मन को समाज के निर्माण में बाधक मानते हैं।
आखिर ज्ञान के केंद्रों और मनीषियों ने डरे समाज को इतना बुरा क्यों कहा है, कोई तो वज़ह होगी। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि एक स्वस्थ समाज के लिए व्यक्ति में स्वाभाविक स्वतंत्रता होनी चाहिए और स्वतंत्रता बंधनमुक्त अवधारणा है, एक ऐसी स्थिति जहाँ किसी प्रकार का कोई दबाव न हो।
हिन्दुओं का धार्मिक-सेटअप ऐसे ही मूल्यों को धारण करने योग्य विशेषताएँ लिए हुए है। वह मनुष्य की आत्मिक उन्नति को सबसे बड़ा गुण मानता है इसलिए वह वैयक्तिक चेतना को महत्त्व देता है। वह व्यक्ति की अवचेतनात्मक और मानसिक स्वतंत्रता का हिमायती है। इसीलिए हिन्दू धार्मिक ग्रंथ निर्देशों के नहीं संवाद के पुंज होते हैं। वे व्यक्ति को बाँधते नहीं बल्कि उन्हें मुक्त करते हैं। उन्हें अपने तरीके से सोचने और जीने का वातावरण देते हैं। उन्हें प्रश्न करने, मुक्त होने, असहमत होने, आलोचना करने, निर्माण करने, विध्वंस हो जाए तो पुनर्निर्माण करने को प्रेरित करते हैं।
हिन्दू जनमानस ऐसे धार्मिक संस्कारों की निर्मिति है, वह प्रकृत्या स्वतंत्र और उदार होता है। वह न समूह में सोचता है और न किसी हिंसक स्थिति की कल्पना कर पाता है। वह वैयक्तिक उन्नति में कृपणता और अनुदार मूल्यों की कल्पना तक से कोसों दूर है।
ऐसे हिन्दू जनमानस का मध्यकाल में इस्लाम नामक एक ऐसे संप्रदाय से साबका पड़ा जो ठीक इसके विपरीत था। संप्रदायगत संकीर्णताओं से भरा, वैयक्तिक स्वतंत्रता का शत्रु, समूहवादी झुंड जिसमें संस्कृति और सभ्यता का नामोंनिशान नहीं था। ऐसी एक असभ्य, बर्बर जाति की राजनीतिक उपस्थिति ने हिन्दू अवचेतन को झकझोर कर रख दिया।
इस भीड़वादी सम्प्रदाय ने उसके मूल्यों, नैतिकताओं और जीवनशैली को तहस-नहस कर दिया जिसके कारण वह अपने धार्मिक लक्ष्यों से च्युत हो गया और हर समय अपने जीवन को बचाने के उपक्रम में लग गया क्योंकि इस सम्प्रदाय के आगमन ने उसके समक्ष जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित कर दिया।
जो हिन्दू जनमानस सदियों से आत्मिक उन्नति के लिए संस्कारित था वह अब क्षुद्र सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में जीने लगा। उसका जीवन डर और अपमान के साये में बीतने लगा। ऐसे ही हिन्दू जनमानस का एक लंबा अपमानित और परतंत्र इतिहास रहा है।
जब देश आज़ाद हुआ तब वह नए देश को नैतिक और सामाजिक नियमों के तहत फ्रेम्ड करने लगा जिसके लिए एक नई व्यवस्था की नींव रखी गई। उसे लगा कि मध्यकालीन बर्बर इस्लामिक मनोवृत्तियों के स्थान पर अब लोकतांत्रिक मूल्यों वाला समाज बन सकेगा, इसी के कारण वह लोकतंत्र की स्थापना और संविधान निर्माण को लेकर आशान्वित और उत्साहित हो गया। यह व्यवस्था संविधान के नाम पर तैयार की गई। जहाँ मनुष्य के लिए नियम तय किए गए। भारतीय संविधान ने लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता को मूल्यों की तरह ग्रहण किया और अपने स्वभाव के अनुरूप हिन्दू जनमानस ने यह मान लिया कि अब समाज ऐसे ही चलेगा जैसा वह सोच रहा है, नियम से, न्याय से लेकिन वह ग़लत था।
वह जिस समूहवादी संप्रदाय के साथ इस देश के लोकतंत्र को शेयर करने वाला था वह बेहद अलोकतांत्रिक और सुल्तानी संस्कृति का था। उसे अपने ‘ख़ुदा’ होने का गुमाँ था और यह कि वह इस मुल्क का शासक है उसने 800 सालों तक यहाँ शासन किया है, तो यह मुल्क उसका है, वह यहाँ मध्यकालीन शासक की तरह रहेगा। ताजमहल उसने बनाया, लालकिला उसका है और इनके अतिरिक्त भारत के पास दुनिया को दिखाने लायक और कुछ नहीं है।
उसे आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों की रत्तीभर भी परवाह नहीं थी वह अपने ही संप्रदायगत नियमों के तहत मध्यकालीन समय को जीने की लालसा लिए गैरकानूनी सेटअप को समानान्तर जीता रहा। तो इस देश में दो-दो संस्कृतियाँ एकसाथ जीती रहीं एक वह जो कानून को मानती थी, दूसरी वह जो कानून को ठेंगे पर रखती थी।
इस्लाम केवल भारत में रहने वाली अवधारणा नहीं है। जिस प्रकार हिन्दू केवल भारत में हैं इस्लाम केवल भारत में नहीं है। मेरे कहने का आशय है कि हिन्दुओं का हिन्दूवाद भारतीय सीमा तक केन्द्रित है जबकि संप्रदाय विशेष के लोगों का कोई देसी रूप नहीं है। वे खुद को मुस्लिम-ब्रदरहुड के तहत एक अन्तरराष्ट्रीय अवधारणा के रूप में देखते हैं और किसी भी देश की सीमा को इस्लाम के सामने कुछ नहीं समझते। वे इस्लाम के नियमों के तहत एक अलग दुनिया में रहते हैं और उनके अवचेतन के स्वप्न की बात करें तो दुनिया में इस्लाम का प्रचार उनका मुख्य स्वप्न है।
इस्लाम के हिंसक एग्रेसिव रूप ने एक अलग दुनिया बना रखी है इसे अंडरवर्ल्ड कह सकते हैं। दुनियाभर में इस्लाम के प्रचार के लिए अतिवादी संगठन बने हुए हैं जो हिंसा के बल पर सिविल सोसाइटी के लिए जहन्नुम बन चुके हैं। दुनिया में इन संगठनों के लोग गैर-इस्लामिक लोगों पर कहर की तरह टूटते हैं, कमलेश तिवारी का मसला हो, अथवा अभी बेंगलुरु का, दोनों ही जगहों पर इस्लाम का हिंसक रूप सामने आया जहाँ वे देश के कानून को ताक पर रखकर अपनी मनमानी करने पर उतारू थे।
तो ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी मनोवृत्ति के सामने हिन्दू डरपोक दिखेंगे ही, कायर होंगे ही, क्लीव और कानून की पीठ के पीछे छुपे दिखेंगे ही क्योंकि वे भीड़ या हिंसा की भाषा में बात नहीं करते।
भारत में तुष्टीकरण की फ्रेमिंग ने एक अज़ीब माहौल तैयार किया है। इसने उन्हें एक अभयदान दे रखा है तथा इसके साथ ही उनकी समूहगत एकता तथा विश्व के इस्लामिक स्ट्रक्चर ने उन्हें एक मज़बूत मनोबल दे रखा है। वे किसी भी सरकार या व्यवस्था को विलोम की तरह देखते हैं। भारत में ऐसे कई प्रसंग हो चुके जहाँ वे लज्जाजनक तरीके से देश के कानून को ताक पर रखते हुए अव्यवस्था के सूत्रधार रहे हैं।
यह भीड़ जब-जब सामने आती है तब शहर को तहस-नहस करती है, सार्वजनिक वस्तुओं का नुकसान करती है और सबसे ज़रूर कि सरकारी तंत्र जिनमें पुलिस और प्रशासन प्रमुख हैं, के साथ हिंसा करती है, उन्हें अप्रासंगिक बना देती है। पुलिस पर हमला स्टेट पर हमला तो है ही लेकिन साथ ही यह हिन्दू अवचेतन पर भी मनोवैज्ञानिक हमला होता है कि देखो जिस पुलिस या नियम या कानून के बूते तुम सुरक्षित होने की मनःस्थिति में हो वह एक भ्रम है अर्थात तुम सुरक्षित नहीं हो या तुम तभी तक सुरक्षित हो जबतक हम तुम्हें रहने दे रहे हैं।
पुलिस पर हमला हिन्दू सुरक्षा के नैतिक आदर्श और मनःस्थिति पर हमला होता है। वे स्टेट पर हमला करके असल में अपनी शक्ति का प्रदर्शन और हिन्दू उदार तथा सज्जन स्वभाव को रणनीतिक चोट देकर बैकफुट पर धकेलना चाहते हैं। अपनी हिंसा को वे धार्मिक भावनाओं या संप्रदाय पर बहुसंख्यक द्वारा हमले के नैरेटिव के पीछे छुपाकर अंजाम देते हैं।
मार्क्सवादी एकेडेमिक्स ने हिन्दू अत्याचार का जो विराट रूपक गढ़ा है उसे सामने कर यह सम्प्रदाय हिंसा का महाकाव्य रचकर भी अल्पसंख्यक और निरीह विशेषणों से विभूषित है। इसीलिए मैंने लेख के शीर्षक में कानून की सुरक्षा के भ्रम की ओर इशारा किया है।
जो भीड़ विधायक के घर हमला कर सकती है, 60-60 पुलिस वालों को घायल कर सकती है, प्रोफेट पर बोलने वाले (कमलेश तिवारी) के खिलाफ विधानसभा (उत्तर-प्रदेश) में हिंसक बयान दे सकती है, राष्ट्रीय स्तर का नेता (असददुद्दीन ओवैसी) कह सकता है, “वो(कमलेश तिवारी) ज़ालिम, वो कुत्ता जिसने उत्तर प्रदेश में बैठकर अल्लाह की शान में गुस्ताखी की, तू याद रख, तू अभी जेल में है, मगर दुनिया तेरे लिए चूहे की बिल की तरह बन गई है इंशाल्लाह। तेरी गुस्ताखी ने तेरी बर्बादी को न्यौता दिया है।”
संप्रदाय विशेष की जो भीड़ इतनी असहिष्णु है कि शरीरबल पर सारे फैसले करना चाहती हो उसके बरअक्स हिन्दू सीधी गाय या उपर्युक्त उद्धरण की भाषा में कहें तो डरपोक दिखेंगे ही।
ऐसे में हिन्दुओं के पास दो ही रास्ते बचते हैं या तो वे इस समूह के द्वारा मारा जाना स्वीकार करें अथवा प्रतिउत्तर में रिएक्ट करे। कहते हैं जब व्यक्ति हद से ज़्यादा डर जाता है तब बहादुर हो जाता है। आशय है कि जब व्यक्ति के पास खोने को कुछ नहीं होता, जान पर बन आती है तब वह कैसा भी जोखिम उठाने को प्रस्तुत हो जाता है। क्योंकि एकबात साफ है कि कानून और पुलिस की दीवार कागज की बनी हुई है, हिन्दू उसके पीछे सुरक्षित नहीं है। भारत में आरएसएस (सावरकर) का हिन्दुत्त्व असल में ऐसी ही हिंसक और क्रूर स्थितियों के रिएक्शन में एक नैतिक ध्रुवीकरण का प्रयास है।
लेकिन फिर भी पेट्रोल बम, एके-47, मानव बम और अत्याधुनिक हथियारों के बरअक्स एक स्वयंसेवक की लाठी यकीनन नाकाफी है, भले उसके मन में पहाड़ों सा साहस है लेकिन व्यवहारवाद यही कहता है कि बंदूक के आगे लाठी काम नहीं आती। इसलिए इस संकट की घड़ी को मज़ाक में नहीं लेना चाहिए।
यह अति गंभीर और सावधान रहने का समय है। बेहद सतर्क और मुस्तैद रहने का समय। हिन्दू जबतक मुहल्ला स्तर पर मज़बूत नहीं होंगे, किसी भी प्रकार के समूहगत हिंसात्मक मनोवृत्ति के काउंटर में आक्रामक गोलबंदी नहीं करेंगे तबतक इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। एक मज़बूत हिन्दू ही संकट को ख़त्म कर सकता है। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में यूँ ही नहीं लिखा है कि ‘भय बिनु होइ न प्रीति।’