जंगल के बीच बॉंसों के एक झुरमुट में शम्भू कुमार विद्या सिद्ध कर रहे थे। ऐसा करते उन्हें बारह वर्ष बीत चुके थे। बारह वर्ष बाद जब उन्हें विद्या सिद्ध हुई तो आकाश-मार्ग से एक शस्त्र प्रकट हुआ। शम्भु कुमार उस समय ध्यान में थे। उसी दौरान जंगल में भटकते हुए लक्ष्मण कहीं से आन पहुँचे। उस समय लक्ष्मण अपने भाई राम और भाभी सीता के साथ वनवास में थे। जंगल में भटकते हुए कंद और अन्य सामग्री खोजने वे यहीं जंगल में भटकते रहते थे। वे नहीं जानते थे कि बॉंसों के झुरमुट में कोई व्यक्ति बैठा है। उन्होंने अपने सामने जब आकाश-मार्ग से एक सिद्ध विद्या का अस्त्र प्रकट हुआ देखा तो उसे फ़ौरन हाथ में ले लिया, क्योंकि वे नारायण का रूप थे अतः उनमें इतनी शक्ति थी कि वे उस विद्या-अस्त्र को थाम सकें। उस अस्त्र को हाथ में लेकर जैसे ही उन्होंने उसे परखने के लिए यहाँ-वहॉं घुमाया तो उनका हाथ बॉंसों के उसी झुरमुट में जा लगा, जिससे उस झुरमुट में बैठे शम्भू कुमार का सर धड़ से अलग हो गया। उनकी मृत्यु हो गई।
लक्ष्मण को जब इसका भान हुआ कि उनके हाथों किसी जीव की हत्या हो गई है तो वे फौरन अपने भाई के पास पहुँचे ताकि अपने कृत्य के लिए क्या प्रायश्चित हो सकता है यह जान सकें। उधर, शम्भु कुमार की माता सूर्पनखा प्रतिदिन की भॉंति जब अपने पुत्र से मिलने, उन्हें देखने आईं तो पुत्र को मृत पाकर विलाप करने लगीं। पहले तो उन्होंने विलाप किया फिर जंगल में घूमते हुए यह खोजने की कोशिश करने लगीं कि उनके पुत्र का वध किसने किया। कुछ ही देर में उन्हें एक कुटिया में लक्ष्मण नज़र आए। कामदेव रूप वाले लक्ष्मण को देख वे अपने पुत्र का विलाप भूल गईं और लक्ष्मण पर मोहित हो गईं। जब उन्होंने लक्ष्मण के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मण ने उसे ठुकरा दिया। सूर्पनखा ने इसे अपना अपमान समझा और अपने भाई रावण के सामने पहुँचकर अपने पुत्र के वध और अपने अपमान की कथा सुनाई। उस बयान में सूर्पनखा ने कहा कि लक्ष्मण ने उनके साथ दुराचार किया है। फटे वस्त्र, शरीर से चोटिल और अस्त-व्यस्त हाल में पहुँची बहन को देख रावण का खून-खौल उठा और उन्होंने प्रण लिया कि वे इसका बदला लेंगे।
यहाँ इतने विस्तार से इस कहानी को लिखने का क्या औचित्य? क्यों हम इस बारे में बात करें कि लक्ष्मण ने सूर्पनखा का अपमान किया था या नहीं? या क्यों हम इस बारे में बात करें कि सूर्पनखा ने जो आरोप लक्ष्मण पर लगाए वे सही थे या नहीं?
इस विषय पर बात करने या इस पौराणिक कहानी का उल्लेख इस रूप में करने का औचित्य मुझे तब नहीं दीखता जब मैं वर्तमान में कुछ वैसी ही घटनाएँ पुनः होते ना देखती।
“लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक काटी थी” हम सभी यह कहानी बचपन से सुनते आ रहे हैं। एक पुरुष द्वारा एक स्त्री के साथ हुए इस अनाचार के लिए हम लक्ष्मण को ग़लत भी ठहरा सकते हैं, कदाचित ठहराते ही हैं। मगर क्या वही सच था जो हम अब तक पढ़ते-सुनते आए? हमारी वेद-पुराण-ग्रंथ सिखाते हैं कि आँख बंद कर किसी भी बात पर भरोसा मत करो, तथ्य देखो, परखो, संभव हो तो आत्म-परीक्षण करो, पर क्या कभी हमने इस बात पर सवाल उठाया कि लक्ष्मण ने असल में एक अबला स्त्री के साथ दुराचार किया भी था या नहीं?
क्या फ़र्क पड़ता है। हमें मौका मिला है, हम स्त्रीवादी हैं, हर वह मुद्दा हम अपने पक्ष में ले लेना चाहते हैं जहाँ हमें कोई स्त्री किसी पुरुष पर आक्षेप लगाती दिखती है। इसमें दोष हमारा नहीं, इतने समय से हम अधीनता की बेड़ियों में जकड़े अब जब लड़ने निकले तो भूल गए कि कहीं इस लड़ाई में हमारे क़दमों तले कोई बेगुनाह तो नहीं रौंदा जा रहा।
लक्ष्मण-सूर्पनखा का जो प्रसंग यहाँ लिखा वह भी मैंने किसी ग्रंथ में ही पढ़ा था। वह मनगढ़ंत नहीं। अतः उसे आधार बनाएँ तो असल में लक्ष्मण ने सूर्पनखा के साथ कोई दुराचार नहीं किया था। उन्होंने सिर्फ एक पराई स्त्री का विवाह प्रस्ताव ठुकराया था, जिसे उस स्त्री ने अपना अपमान माना और उसका एक विकृत रूप अपने भाई के सामने प्रस्तुत किया। यदि हम इसी कहानी को सत्य माने तो क्या वाक़ई लक्ष्मण दोषी थे?
यह सवाल हम क्यों उठाएँ? इसके लिए मेरे दो मत हैं, पहला कि किसी भी पौराणिक कहानी को सिर्फ इसलिए नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि उसे हमने अपनी आस्था और भगवान से जोड़ दिया है, बल्कि उसके हर चरित्र को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
दूसरा, क्योंकि वह आरोप किसी स्त्री ने लगाया था अतः वह सत्य ही होगा यह मानसिकता भी नहीं होनी चाहिए, जो कि वर्तमान में हवा में ज़हर की तरह फ़ैल रही है।
चारों ओर हाहाकार मचा है। आक्षेप-पटाक्षेपों से सोशल मीडिया और अख़बारों की सुर्ख़ियों ने पुरुषों का एक नया चेहरा हमारे सामने प्रस्तुत किया है। #metoo नाम से चले इस केम्पैन के तहत जब स्त्रियों ने बोलना शुरू किया तो लगने लगा कि शायद धरती पर कोई पुरुष बचेगा ही नहीं जिस पर हरासमेंट के आरोप न लगें, जो अनाचारी ना हो। कुछ इस तरह का माहौल बनता दिख रहा है कि अब शायद स्त्रियाँ किसी विशेष अपराधी पर नहीं, बल्कि पूरी पुरुष जाति पर ही भरोसा नहीं कर सकेंगी।
हमें प्रत्येक पुरुष से अपनी बेटियों को बचाना होगा। पुरुष देखते ही हमें उसे घृणा भाव से देखना होगा। क्यों? क्योंकि वह पुरुष है और वह दुराचार कर सकता है।
क्या वाकई? एक पल यहीं रूककर सोचिए कि क्या आप यही बात अपने पिता, पुत्र, या पति के संबंध में भी सत्य मानेंगी? या क्या हम स्त्रियों की समझ और परखने की नज़र इतनी तेज़ नहीं कि हम किसी पुरुष की मंशा ही समझ पाएँ? कहते हैं स्त्री के पास से यदि कोई पुरुष बुरी भावना से भी गुज़रे तो वह उसके छुए बिना ही अपनी छठी इन्द्रिय से यह भाँप लेती है कि वह पुरुष ग़लत था। तो फिर सभी पुरुषों को एक ही कठघरे के रखने की क्या आवश्यकता आन पड़ी?
कुछ वक़्त के लिए इस सबसे दूर होकर बैठी तो सोचने लगी कि क्या वाक़ई ऐसा ही है? क्या वाक़ई अब मेरे देश में कोई ऐसा पुरुष नहीं जिस पर कोई-न-कोई स्त्री दुराचार का आरोप नहीं लगाएगी? या क्या वाक़ई हमें स्त्रियों द्वारा लगाए जा रहे हर आरोप को इसलिए सत्य मान लेना चाहिए क्योंकि वे ‘स्त्रियों’ ने लगाए हैं। जो अब तक बोल नहीं पाती थीं, जिन्हें अब तक दबा कर रखा गया और जिन्हें अब मुखर होने का मौका मिला है।
जब इन सवालों पर चिंतन किया तो अनायास ही कुछ घटनाएं स्मृति पटल पर दौड़ने लगीं। कमरे में पंखे से लटके एक ऐसे पुरुष की याद टीस बनकर ताज़ा हो गई जिसका ज़िक्र एक करीबी ने मुझसे किया था। आँखों देखी घटना के रूप में। वह पुरुष जो दो छोटी बच्चियों का पिता था, अपने बैंक की तरफ से कर्जा वसूली कार्यक्रम के तहत एक किसान के घर पहुँचा। किसान ने उसे अपने बाहरी अहाते में बैठने को कहा, कि वह अभी भीतर से पैसा लेकर आता है। कुछ देर बाद वह देखता है कि किसान तो बाहर से पुलिस लेकर आ रहा है। उस किसान ने उस अधिकारी पर आरोप लगाया कि वह जबरदस्ती उसके घर में घुसा और उसकी पत्नी के साथ छेड़छाड़ की, बलात्कार की कोशिश की। उस अधिकारी ने जब अपनी सफाई देने की कोशिश की तो पुलिस ने उसकी एक ना सुनी। उसके खिलाफ़ केस दर्ज हुआ और अंत उस अधिकारी की आत्महत्या से हुआ।
जब इस घटना के बारे में सोचती हूँ तो लक्ष्मण और सूर्पनखा की कहानी याद आ जाती है। यदि राम बलशाली न होते, या वे भगवान का रूप न होते तो क्या रावण ने उसी क्षण अपनी बहन के साथ दुराचार करने वाले का वध न कर दिया होता? बिना यह जाने की सत्य क्या है?
हम सभी वर्तमान में दुराचार से संबंधित जितनी भी घटनाएँ सुन रहे हैं क्या वे सभी सत्य ही हैं? यह जानने की कोशिश हम क्यों नहीं करते? इसके पीछे की हमारी मानसिकता क्या है?
हम जिस दौर में हैं यह स्त्रीवादी दौर है। स्त्रियाँ मुखर हो रही हैं। अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। अपनी आज़ादी, अपनी स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठा रही हैं। यह एक बेहद ज़रूरी कदम है जिसे सालों पहले हो जाना चाहिए था। मगर इस बेहद ज़रूरी कदम के बीच कहीं कुछ ऐसा तो नहीं जिसकी अनदेखी हो रही है? या जिसे बहुत हल्के में आंका जा रहा है, जबकि उसकी तरफ ध्यान देना ज़रूरी है। अन्यथा हम फिर एक ऐसा समाज बना लेंगे जो एक पक्षीय होगा?
वह अनदेखी क्या है? वह है पुरुषों के प्रति हीन और स्त्रियों के प्रति दया भाव। आप रास्ते से गुज़र रहे हों और आप एक स्त्री और पुरुष को लड़ता हुआ देख रहे हों तो आपके मन में पहला भाव यही उठेगा कि देखो कितना बुरा पुरुष है, स्त्री की अस्मिता की रक्षा करने की जगह सरेआम उससे लड़ रहा है। वहीं यदि कोई स्त्री किसी पुरुष को पीट रही हो तो आप खुश होंगे कि वाह कितनी हिम्मत वाली है कि एक पुरुष को पीट रही है। ज़रूर वह पुरुष ग़लत होगा। जबकि सम्भावना है कि ग़लती स्त्री की ही हो। मगर हम यह नहीं सोचते।
हमने डिफ़ॉल्ट में अब यह मान लिया है कि स्त्री यदि पितृसत्ता के खिलाफ कुछ भी कह रही है तो वह सत्य ही होगा। किसी दुराचार का आरोप लगा रही है तो भी वह सत्य ही होगा। जबकि आपको यह जानकर हैरानी होगी कि फैमिली कोर्ट में आने वाले दुराचार के ढेरों मामले झूठे साबित होते हैं। कुछ वर्ष पुराना जसलीन कौर का केस भी याद हो आता है जिसमें वह लड़का, हर पेशी में हाज़िर होता है लेकिन ख़ुद को पीडिता बताने वाली वह लड़की कभी मुक़दमे के दौरान हाज़िर नहीं होती। इस पूरी कार्यवाही में वह लड़का और उसका परिवार किस मानसिक पीड़ा से गुज़रा होगा यह हमें समझना होगा।
दुराचार होना किसी स्त्री के लिए जितनी पीड़ादायक बात है, उतनी ही पीड़ादायक यह उस पुरुष के लिए जो निर्दोष है मगर फिर भी उस पर झूठा आरोप लगा। जो सज्जन हैं, जो मलिन भाव नहीं रखते, जिनकी नज़रों में हर स्त्री वासना की प्रस्तुति नहीं है, उन पर यदि कोई झूठा आरोप लगाए तो उन्हें भी उतनी ही मानसिक पीड़ा से गुज़रना पड़ता है, यह वर्तमान में हमें समझना बेहद ज़रूरी है।
इस बात का यह अर्थ कतई मत निकालिए कि यहाँ स्त्री-विरोधी बात कहने की कोशिश की जा रही है। बात बस इतनी सी कहने की कोशिश की जा रही है कि आरोप स्त्री का लगाया हो या पुरुष का सज़ा आरोपी को मिलनी चाहिए, न कि सिर्फ इसलिए क्योंकि वह पुरुष है।
हम रावण को पसंद नहीं करते। वजह भी साफ़ है उसने सीता का हरण किया था। मगर कहीं किसी शास्त्र में पढ़ा था कि रावण ने यह प्रण लिया था कि वह किसी भी पर-नारी को तब तक हाथ नहीं लगाएगा जब तक उस स्त्री की सहमति न हो। यही कारण था कि रावण ने सीता का हरण तो किया मगर उसके साथ दुराचार नहीं किया वरन उसे ससम्मान रखा। मगर फिर भी हम रावण को पसंद नहीं करते।
रावण दोषी था या नहीं, लक्ष्मण दोषी था या नहीं, या आज वह पुरुष दोषी है भी या नहीं जिस पर किसी स्त्री ने आरोप लगाया है यह तलाशने की जगह हम भी उसी भीड़ में इकठ्ठा होकर पत्थर फेंकने लगते जो पहले से ही सुनी-सुनाई बात पर पत्थर फेंक रही है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में देखा जाए तो जितने भी मामले हमारे सामने आ रहे हैं, क्या यह ज़रूरी नहीं कि यदि कोई पुरुष वाकई दोषी है तो उसके खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही की जाए? या सिर्फ सोशल मीडिया पर उस व्यक्ति का नाम ले देना भर हमारी आवाज़ उठाने का अंतिम पड़ाव है? और वे लोग जो दर्शक हैं क्या उन्हें पहली ही नज़र में किसी भी पुरुष को सिर्फ इसलिए दोषी मान लेना चाहिए, क्योंकि वह पुरुष है?
आचार्य मनु ने कहा है– अरक्षिता गृहे रुद्धाः, पुरुषैराप्तकारिभिः!!
“स्त्री स्वयं अपनी रक्षा करने से ही सुरक्षित हो सकती है”
इस पर अमल करते हुए हम अपनी बेटियों को बचपन से हिम्मत सिखा रही हैं। उन्हें ताकत और मुखर होना सिखा रही हैं। उनकी पैदाइश पर ख़ुश हो रही हैं। उन्हें आगे बढ़ा रही हैं। पर क्या हम अपने बेटों को बचपन से एक अच्छा पुरुष बनने की सीख दे रही हैं? क्या हम उन्हें सिखा रही हैं कि किसी भी स्त्री की ‘ना’ को स्वीकारना सीखो? या क्या हम उन्हें यह सिखा रही हैं कि अपनी माता, बहन या पत्नी के साथ घर के कार्यों में उतनी कि भागीदारी रखो जितनी उसकी बहन, माता या पत्नी की है?
यदि हम उन्हें यह सिखा ही नहीं रहीं तो दोषी कौन हुआ? वे पुरुष जो बचपन से अपने पौरुष के दंभ के साथ, या एक अलग ही प्रिविलेज के साथ पले-बढ़े? या वे माताएँ जिन्होंने कभी उन्हें उस रूप में पाला ही नहीं जिस रूप में वे उन्हें आज देखना चाहती हैं।
एक माँ जब अपने साथ घटी घटनाओं के विरोध में अपनी बेटी को आवाज़ उठाना सिखाती है तो उसी क्षण यह बेहद ज़रूरी है कि वह अपने बेटे को भी उसमें सहभागी बनाए। वह उसे बचपन से यह सिखाए कि पग-पग पर उसके बेटे को स्त्रियों के सम्मान का साथी कैसे बनना है। यदि हम अब उन्हें बचपन से यह सब नहीं सिखाते हैं तो कल को उनके किसी भी कु-कृत्य के लिए हम भी उतने ही दोषी होंगे जितने वे खुद, या शायद उनसे ज्यादा ही, क्योंकि हमने उन्हें एक पुरुष रूप में पाला न कि एक इंसान के रूप में और यदि बड़े होकर वे अपने पौरुष का दंभ दिखाते हैं तो इसमें वे अकेले दोषी नहीं होंगे।
शिव का एक रूप है अर्धनारीश्वर। जो स्त्री और पुरुष के पूरक होने का प्रतीक है। आपकी धर्म में आस्था नहीं। आप शिव को नहीं मानते? कोई बात नहीं। आप प्रकृति को मानते होंगे। प्रकृति भी यही कहती है कि नर और मादा एक दूसरे के पूरक है। धरती पर उपस्थित सभी जीव यहाँ तक कि पेड़-पौधे भी नर और मादा के मिलन से अंकुरित होते हैं। ऐसे में यह सोच लेना कि अब तक पुरुषों ने, पितृसत्ता ने हमें दबाया तो अब हमारी बारी है, न सिर्फ निहायत मूर्खता होगी बल्कि अपने भविष्य के साथ अन्याय भी होगा।
हमें बेशक़ ज़रूरत है कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने की मगर अपने साथी को प्रतिद्वंदी मानते हुए नहीं, बल्कि उसमें विश्वास रखते हुए।
हम जिस लड़ाई के मैदान में खड़े हैं वहॉं यह बेहद ज़रूरी है कि हम शकुनि से इसलिए नफरत न करें कि वह महाभारत कराने का मुख्य अपराधी था। बल्कि हम यह देखें कि वह अपनी बहन से इतना प्रेम करता था कि उसने उसके लिए एक अँधा पति स्वीकारना नहीं चाहा. वह अपनी बहन को मूर्ख बनते और जीवन भर अँधा होते नहीं देखना चाहता था। इसलिए उसने उन लोगों से प्रतिशोध लेना चाहा जिन्होंने उसकी बहन का जीवन अंधकारमय बनाया। अब यह उसकी किस्मत ही थी कि उसके विरोधी इतने बेबकूफ थे कि उसकी चालों में फँसते गए और एक महा-युद्ध को जन्म हुआ।
यहाँ हमें युधिष्ठिर को भी सिर्फ इसलिए नहीं पूज लेना चाहिए क्योंकि वे पांडव थे, सत्य और धर्म के रक्षक थे। बल्कि एक पल ठहरकर यह सोचना चाहिए कि उन्होंने अपनी स्त्री को अपनी संपत्ति माना और उसे पांसों के खेल में दॉंव पर लगा डाला।
यहाँ एक स्त्री अस्मिता की रक्षा की अगर बात उठे तो आपका विश्वास किस ओर होना चाहिए यह आपको तय करना होगा।
बेशक़ वर्तमान में जितने आक्षेप पुरुषों पर लग रहे हैं उनमें से कई सत्य भी होंगे। मगर इसका यह अर्थ नहीं मान लेना चाहिए कि पूरा पुरुष वर्ग ही दोषी है। यदि कोई दोषी है भी तो वह परवरिश जिसने उन्हें इतने लम्बे काल तक पौरुष के दंभ के साथ पाला।
यह ज़रूरी है कि हम अपने आस-पास के पुरुषों पर, अपने साथियों पर भरोसा रखें। उन पर जो हमारे साथ हैं। उन पर जिन्होंने हमें ऐसा माहौल दिया कि हम भरोसा करना सीखें. हम उन्हें यह अहसास दिलाएं कि हमें उन पर भरोसा है।
19 नवम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जाता है। भारत में यह दिन महिलाओं को क्या पुरुषों को भी याद नहीं रहता। कईयों को तो पता भी नहीं होता कि उनके लिए भी कोई दिन है। यह नगण्य है, क्योंकि महिला दिवस और महिला क्रांति की चकाचौंध में हमने यह ज़रूरी ही नहीं समझा कि पुरुषों के लिए भी बनाए गए ऐसे किसी दिन के बारे में बात हो।
1992 में जब पुरुषों के लिए एक दिन निर्धारित किया गया तो उनसे पूछा गया कि आख़िर आप पुरुषों के लिए एक दिन क्यों चाहते हैं? पुरुषों की तो पूरी सत्ता ही है। अब तक उन्हीं के द्वारा तो शासन किया गया। उन्हीं के द्वारा महिलाओं का जीवन-जीवनशैली निर्धारित की गई तो अब ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी कि उन्हीं पुरुषों के लिए एक दिन निर्धारित किया जाए?
तब कई सारे आँकड़ों और मुद्दों के बीच एक मुद्दा यह भी रखा गया कि कई देशों में प्रतिवर्ष पुरुषों की आत्महत्या की दरें महिलाओं से बहुत अधिक हैं।
एक ओर महिला सशक्तिकरण हो रहा है, जहाँ उनकी आवाज़ सुनी जा रही है, जहाँ वे अपनी बात रख सकती हैं, कह सकती हैं, मगर वे पुरुष कहाँ जाएँ जो महिला या पुरुष दोनों के ही द्वारा शोषित हो रहे हैं। पुरुषों को तो पहले ही इतना मजबूत समझा जाता है कि “मर्द को दर्द नहीं होता” या “औरतों की तरह क्यों रोता है” जैसी कहावतें ही बन गईं। मगर क्या वाक़ई पुरुष इतना भावना-हीन है कि उसे किसी भी तकलीफ पर दर्द नहीं होता, वह रो नहीं सकता, या वह इतना संबल है कि हर परेशानी को सँभाल सकता है। नहीं, यह भी सदियों से चली आ रही है परिपाटी की तरह पूर्वाग्रह से ग्रसित एक धारणा है।
वे भी परेशान हो सकते हैं, उनके साथ भी दुराचार हो सकता है। उन्हें भी सहायता की आवश्यकता हो सकती है। वे भी अपनी बात रखना चाहते होंगे। उन पर लगे आरोप भी असत्य होते होंगे। उनके पास भी अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिए कुछ तथ्य होंगे, जिन्हें सिर्फ इसलिए दरकिनार नहीं कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वे पुरुष हैं।
हम साथी हैं… हमें साथ चलना है… यही प्रकृति की और हमारी ज़रूरत है।
(लेखिका अंकिता जैन की दो किताबे ‘ऐसी-वैसी औरत’ और ‘मैं से मॉं तक’ प्रकाशित हो चुकी है)