जून 2019: कोलकाता के एक अस्पताल में मोहम्मद सईद की मौत के बाद उसके परिजनों ने डॉक्टरों पर हमला कर दिया।
दिसंबर 2019: गुजरात के एक निजी अस्पताल में रुखसार पठान नामक महिला की प्रसव के दौरान मौत हो गई। परिजनों ने एक डॉक्टर पर हमला कर दिया और उसे खींचते हुए अस्पताल से बाहर ले गए।
अप्रैल 2020: दिल्ली में तबलीगी जमात के कार्यक्रम में हिस्सा लेकर लौटे दो भाई कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद हैदराबाद के एक अस्पताल में एडमिट हुए। एक की मौत हो गई। दूसरे भाई और परिजनों ने डॉक्टर और स्टाफ पर हमला कर दिया।
जून 2021: असम के एक कोविड सेंटर में मरीज की मौत के बाद परिजनों ने हमला कर दिया। अस्पताल के भीतर घुस कर डॉक्टर सेजु कुमार सेनापति के कपड़े उतार कर उन्हें घसीट-घसीट कर पीटा गया। मोहम्मद कमरुद्दीन, मोहम्मद जैनलुद्दीन जैसे नाम वाले हमलावरों में महिला भी थी।
फेहरिस्त लंबी है जब डॉक्टरों को निशाना बनाने वाली भीड़ की एक खास पहचान थी। देश में आए दिन डॉक्टरों के साथ बदसलूकी की खबरें आती रहती हैं। लिहाजा, डॉक्टरों की सुरक्षा एक गंभीर चिंता का विषय है और ऐसे मामलों में उपद्रवियों से सख्ती से निपटने की जरूरत है। असम के मामले में इसी तरह की सक्रियता पुलिस ने दिखाई। खुद मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इस घटना पर कड़ी कार्रवाई के निर्देश देते हुए कहा कि इस तरह के हमले बर्दाश्त नहीं किए जाएँगे।
24 culprits involved in this barbaric attack have been arrested and the chargesheet will be filed at the earliest.
— Himanta Biswa Sarma (@himantabiswa) June 2, 2021
I am personally monitoring this investigation and I promise that justice will be served. https://t.co/CVgRaEW0di
लेकिन, यह सक्रियता उस जमात को तब खटकने लगी, जब हमलावरों के नाम सार्वजनिक किए गए, क्योंकि हमलावर एक खास मजहबी नाम वाले थे। ऐसे नाम को अपराधियों की सूची में शामिल देखकर ही इस जमात के रंग बदल जाते हैं। फिर अपराध गौण हो जाता है। अपराध पर पर्दा डालने की कोशिश शुरू होती है या मामले को कोई और रंग देने की। अमूमन ऐसे मामलों में तीन स्तर पर काम होता है। पहला, यह कहना कि इसका मजहब से कोई लेना-देना नहीं है, जबकि यही वर्ग जब हिंदू आरोपित तथा पीड़ित दूसरे संप्रदाय से हो तो आपसी झगड़े में भी धर्म का एंगल लेकर आता है। दूसरा, मामले में एक हिंदू विलेन खोजने की कोशिश करो। तीसरा, यदि दोनों में से कोई मुमकिन न हो तो एक मजहबी हीरो की तलाश करो।
असम में जूनियर डॉक्टर की पिटाई के मामले में दूसरे विकल्प पर काम चल रहा है। मसलन, डॉक्टर सैयद फैजान अहमद के ट्वीट पर गौर करिए। ट्विटर बॉयो में खुद को कोरोना वॉरियर बताने वाले डॉक्टर साहब ने इस मामले में आईएमए और रामदेव के हालिया विवाद को घुसेड़ कर एक तरह से इसे हमले की वजह बताने की कोशिश की है।
ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं हैं। दिलचस्प यह है कि सोशल मीडिया में यह प्रलाप कर रहे ज्यादातर डॉक्टरों की मजहबी पहचान भी वही है जो असम की घटना के गुनहगारों की है।
जाहिर है यह सब उस कोशिश के तहत होती है जिसका मकसद हर उस गुनाह को दबाना है जिसमें हिंदू या बीजेपी को शोषक और मजहबी लोगों को पीड़ित दिखाने का मौका नहीं हो। असम पुलिस और मुख्यमंत्री सरमा की सक्रियता ने इस मामले में बीजेपी को घेरने का मौका भी लिबरलों से छीन लिया था, जबकि हम सब जानते हैं कि कैसे असम से सटे बंगाल में हमले के बाद डॉक्टरों ने आवाज उठाई थी तो राज्य सरकार ने उन पर ही दबाव डाला था।
यह यह भी बताता है कि इस जमात के लिए डॉक्टरों की सुरक्षा असल में कोई मसला नहीं है, जबकि यह पुरानी बीमारी है। जैस कि 136 साल पुराने ‘द जर्नल आफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जेएएमए) के 10 जून 1992 को प्रकाशित अंक ‘असॉल्ट अपॉन मेडिकल मेन’ में बकायदा कहा गया है, “कोई भी फिज़िशियन, कितना भी कर्मवीर या ध्यान से काम करने वाला क्यों न हो, यह नहीं बता सकता कि किस घड़ी या किस दिन उसके ऊपर अकारण हमला हो सकता है, दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाए जा सकते हैं, ब्लैकमेल किया जा सकता है या फिर क्षतिपूर्ति का मुक़दमा किया जा सकता है।”
इन सालों में मेडिकल साइंस ने भले काफी तरक्की की है, पर यह खतरा आज भी कायम है। लेकिन, सरकारी और सामाजिक प्रयासों से इस खतरे का दायरा सीमित करना संभव है। यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट्स आफ हेल्थस नेशनल लाइब्रेरी आफ मेडिसिन (NIH/NLM) के जर्नल पबमेड सेंट्रल (PMC) की अगस्त 2018 की रिपोर्ट बताती है कि पश्चिमी देशों में बीते 40 साल में इस खतरे का दायरा सीमित हुआ है। कोविड-19 संक्रमण के बीच मोदी सरकार ने भी डॉक्टरों की सुरक्षा को लेकर महामारी रोग (संशोधन) अधिनियम 2000, पारित किया था। इसमें मेडिकल कर्मचारियों और आशा कर्मचारियों की भी सुरक्षा का ध्यान रखा गया है। हमलावरों को 6 महीने से 7 साल जेल की कड़ी सजा और 5 लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इसे गैर जमानती अपराध बनाया गया है।
पिछले साल संक्रमण के वक्त स्वास्थकर्मियों को देश के अलग-अलग हिस्सों में किस तरह निशाना बनाया गया था यह भी छिपा नहीं। ऐसे ज्यादातर मामले जमातियों से जुड़े थे। लेकिन, डॉक्टर सैयद जैसे लोग जब ऐसे गुनाहों पर मजहबी वजहों से पर्दा डालने की कोशिश करते हैं तो वह उस खतरे को और बढ़ा देते हैं जिसके शिकार कल डॉक्टर दत्ता हुए थे, आज डॉक्टर सेनापति हुए हैं और कल कोई और होगा।