इस्लामोफ़ोबिया शब्द अमेरिका और यूरोप के बाद भारत के सन्दर्भ में भी स्थापित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। हाल ही के वर्षों में हमने यह खूब देखा, जब भारत को इस्लामोफ़ोबिक साबित करने के नैरेटिव को सबसे ज्यादा हवा दी जाने लगी। कहा गया कि भारत भी इस्लामोफ़ोबिया से ग्रसित है, जहाँ मुस्लिम सुरक्षित नहीं हैं और इसके जिम्मेदार हिन्दू हैं।
इस्लामोफोबिया
लोरी पीक अमेरिका के कॉलोराडो विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान की प्रोफेसर हैं। उन्होंने साल 2011 में ‘BEHIND THE BACKLASH- Muslim Americans after 9/11′ नाम की एक किताब लिखी थी। किताब के बाहरी आवरण पर एक ग्राफ्टी आर्ट (दीवारों पर पेंटिंग) दिखाया गया है, जिस पर ‘MUSLIMS GO HOME’ (मुस्लिम्स घर जाओ) लिखा है।
प्रोफेसर पीक ने अपनी पुस्तक के माध्यम से सितंबर 11, 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिकी बहुसंख्यक ईसाई नागरिकों में इस्लाम के प्रति भेदभाव की जानकारियों को प्रस्तुत किया है।
पुस्तक की प्रस्तावना में ही प्रोफेसर पीक ने अमेरिकी सरकार और चर्च दोनों के खास मजहब के विरुद्ध घृणा के कई उदाहरण क्रमबद्ध किए हैं। जैसे फ्रेंक्लिन ग्राहम ने इस्लाम को सबसे हानिकारक धर्म बताया था। ग्राहम जाने-माने ईसाई मिशनरी हैं और जॉर्ज बुश के शपथग्रहण समारोह में उन्होंने ही धार्मिक उपदेश दिया था।
प्रोफेसर ने इस बात का भी खुलासा किया कि अमेरिका पर हमले के तुरंत बाद (सितंबर-दिसंबर 2001) कुल 481 गैर-इस्लामिक अपराध दर्ज किए गए थे। इस दौरान तकरीबन 19 निर्दोष मुस्लिमों की हत्या भी हुई थी।
साल 2002 में भी ‘द एवरलास्टिंग हेटरेड’ नाम से एक पुस्तक छपी थी। इसके लेखक हॉल लिंडसे, जो कि एक ईसाई धर्मगुरु हैं, उन्होंने इस्लाम को धरती का सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था।
साल 2007 में गेब्रियल ग्रीनबर्ग और पीटर गोस्चाक ने मिलकर ‘इस्लामोफोबिया: मेकिंग मुस्लिम एनिमी’ पुस्तक को लिखा। उन्होंने बताया कि अमेरिका के रक्षा विभाग से जुड़े एक बड़े अधिकारी जनरल विलियम बोयकिन ने कई ईसाई धर्मसभाओं को संबोधित किया और सामान्य अमेरिकी नागरिकों के मन में इस्लाम के खिलाफ जहर भर दिया।
उस दौरान इस तरह की दर्जनों किताबें, सैकड़ों लेख और प्रचार सामग्री अमेरिका के बाज़ारों में आने लगी थी। जिसके परिणामस्वरूप अगले एक दशक में अधिकतर अमेरिकी नागरिकों का इस्लाम के प्रति नकारात्मक भाव बन चुका था।
उदाहरण के तौर पर साल 2010 में अमेरिकी नेशनल पब्लिक रेडियो से जुड़ी पत्रकार जुआन विलियम्स ने सार्वजनिक रूप से कहा कि हवाई जहाज यात्रा के दौरान किसी खास मजहब के व्यक्ति की उपस्थिति उन्हें बैचैन कर देती है।
मजहब विशेष के प्रति इस अमेरिकी नजरिए को इस्लामोफोबिया कहा गया। यह एक पुराना शब्द है, जिसे 1910 में फ्रेंच प्रशासन द्वारा अपने मुस्लिम नागरिकों के प्रति व्यवहार के लिए इस्तेमाल में लाया गया था। सामान्य बोलचाल में इसका प्रयोग फिर से ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान ने साल 1997 में किया था।
उस साल संस्थान ने ‘इस्लामोफोबिया, ए चेलेंज फ़ॉर उस आल’ नाम से एक शोध प्रकाशित किया था। शोध से जुड़ी एक मुस्लिम शोधकर्ता फराह इलाही ने ब्रिटिश सरकार पर इस्लाम के प्रति भेदभाव के आरोप लगाए थे।
साल 2017 में संस्थान ने फिर से ‘इस्लामोफोबिया स्टिल ए चैलेंज फ़ॉर उस आल’ नाम से शोध का प्रकाशन किया। मतलब साफ है कि यूरोप में कुछ भी नहीं बदला और आज भी वहाँ इस्लाम के प्रति नकारात्मक सोच रखी जाती है।
अमेरिका और यूरोप के बाद इस्लामोफोबिया का प्रयोग अब भारत के लिए भी किया जाने लगा है। पिछले कुछ महीनों से लगातार एक झूठा प्रचार फैलाया जा रहा है कि मजहब विशेष के लोग भारत में सुरक्षित नहीं है और इसके जिम्मेदार हिन्दू हैं।
यह प्रचार नागरिकता संशोधन कानून से शुरू हुआ और कोरोना संक्रमण में भी चलता आ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि जो देश खुद इस्लामोफोबिया से बुरी तरह ग्रस्त है वही आज भारत को धर्मनिरपेक्षता का ज्ञान अथवा प्रवचन दे रहे है।
भारत में इस्लाम का इतिहास तब से है, जब पैगम्बर मोहम्मद जिन्दा थे। अमेरिका का उस दौरान कोई वजूद ही नहीं था। मोहम्मद बिन कासिम (712 ईसवी) से लेकर आखिरी मुगल बादशाह तक हज़ार सालों का लिखित इतिहास है – जिसमें हिन्दुओं का नरसंहार हुआ, मंदिरों को तोड़ा गया, जबरन धर्म परिवर्तन किए गए, महिलाओं के साथ बलात्कार और बच्चों को गुलाम बनाया गया।
ब्रिटिश इतिहासकार एचएम इलियट की बहुचर्चित पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया – एज टोल्ड बाय इट्स ओन हिस्टोरियंस’ (1867) के पृष्ठ संख्या 121-122 के अनुसार हिन्दू राजा दाहिर की मृत्यु के बाद ‘मुस्लिमों ने नरसंहार से अपनी प्यास बुझाई थी’।
ईश्वरी प्रसाद अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ मेडिवल इंडिया’ (1921) में लिखते हैं कि मुलतान में 17 साल से ऊपर के हर उस हिन्दू का कत्ल किया गया, जिसने इस्लाम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
केएस लाल अपनी पुस्तक ‘ग्रोथ ऑफ़ मुस्लिम पापुलेशन इन मेडिवल इंडिया’ में महमूद गजनवी द्वारा 20 लाख हिन्दुओं के नरसंहार का उल्लेख करते हैं।
दुर्भाग्य से अमानवीय और क्रूरता के सिलसिले कभी नहीं रुके और अगले 700 सालों तक भारत में यही सब होता रहा। अभी 70 साल पहले ही इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन भी कर दिया गया।
खुद एक यूरोपियन पत्रकार लियोनार्ड मोसेली अपनी पुस्तक ‘द लास्ट डेज ऑफ़ द ब्रिटिश राज’ में भारत विभाजन पर हृदयविदारक घटनाओं का जिक्र कुछ इस तरह किया है –
“अगस्त 1947 से अगले नौ महीनों में 1 करोड़ 40 लाख लोगों का विस्थापन हुआ। इस दौरान करीब 6,00,000 लोगों की हत्या कर दी गई। बच्चों को पैरों से उठाकर उनके सिर दीवार से फोड़ दिए गए, बच्चियों का बलात्कार किया गया, बलात्कार कर लड़कियों के स्तन काट दिए गए और गर्भवती महिलाओं के आतंरिक अंगों को बाहर निकाल दिया गया।”
इन मार्मिक घटनाओं को देखते हुए सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को 2 सितम्बर, 1947 को पत्र लिखा, “सुबह से शाम तक मेरा पूरा समय पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिखों के दुख और अत्याचारों की कहानियों में बीत जाता है।”
इस तरह की भयावह स्थितियों का सामना यूरोप के किसी देश और अमेरिका को नहीं करना पड़ा, जो 7वीं सदी से हिन्दू झेलते आ रहे हैं। इतना होने के बावजूद, हिन्दुओं की सहिष्णुता कायम रही और व्यक्तिगत तौर पर मुस्लिमों को नुकसान भी नहीं पहुँचाया।
उपरोक्त तथ्य को आसानी से भी समझा जा सकता है, क्योंकि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी भारत में ही रहती है। दूसरी तरफ, अमेरिका को 80 के दशक में पहली बार इस्लामिक आतंकवाद का सामना करना पड़ा। नतीजतन तब से अब तक अमेरिका 14 मुस्लिम देशों पर हमले अथवा बम गिरा चुका है।
इसमें ईरान, लीबिया, लेबनान, कुवैत, ईराक, सोमालिया, बोसनिया, सऊदी अरब, अफगानिस्तान, सूडान, कोसोवो, यमन, पाकिस्तान और सीरिया शामिल है। ‘द इकोनॉमिस्ट’ की साल 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन हमलों में कितने निर्दोष लोगों की जान चली गई, इसका अनुमान भी पेंटागन को नहीं है।
भारतीय संस्कृति और पश्चिम के देशों में यही एक मूलभूत अंतर है कि हमने अपने अत्याचारों का बदला निर्दोष लोगों के खून से नहीं लिया। हमने इस्लामिक आतंकवाद, कट्टरवाद और अतिवाद का प्रतिकार किया है, क्योंकि मानवीय मूल्यों के नाते यह बेहद जरूरी कदम है।
अब बात करते हैं, इस्लाम के ‘विक्टिमहुड’ यानी उत्पीड़ित होने की। वास्तव में, इस्लामोफोबिया शब्द एक भ्रम है, जिसका इस्तेमाल अपने पापों को छुपाने के लिए किया जा रहा है। साल 2006 में एक पोस्टर सामने आया था, जिस पर लिखा था – “हर उस व्यक्ति का सिर कलम कर दो, जो इस्लाम को हिंसक बताता है।”
मुझे नहीं लगता कि अब इस विषय पर ज्यादा स्पष्टीकरण की जरूरत है। यह एक पोस्टर ही पूरी विचारधारा की सच्चाई बयाँ कर देता है।
कुछ वेबसाइट्स जो कि इस्लामिक जेहाद पर नज़र रखती है, उनका दावा है कि इस जेहाद के चलते पिछले 1400 सालों में तक़रीबन 270 मिलियन लोगों का नरसंहार हो चुका है।
इसलिए तथाकथित इस्लामिक पैरोकार पहले अपने आंतरिक आतंकवादी और जेहादी स्वरूप के खिलाफ बोलना शुरू करें, जिससे दुनिया में शांति और सौहार्द्र को स्थापित किया जा सके और इस्लामोफोबिया को भी खत्म करने का भी यही एकमात्र रास्ता है।