Sunday, December 22, 2024
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सरकारी डॉक्टर की जान बनाम मुस्लिम वोटबैंक को निहारती निर्मम ममता जो दंगे पीती, खाती और सोती है

इसी भीड़ की हिमाक़त ममता जैसी तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं के दिमाग में इतना उन्माद भर देती है कि वो समझदारी से मुद्दे को सुलझाने की जगह धमकी देती है कि डॉक्टरों के रजिस्ट्रेशन कैंसिल किए जाएँगे, इंटर्नशिप का लेटर नहीं दिया जाएगा…

भारत में डॉक्टर बहुत कम हैं। जनसंख्या बहुत ज़्यादा है। जनसंख्या के पास धैर्य बहुत कम है। लोग हॉस्पिटल जाते हैं। कुछ लोग इलाज कराने जाते हैं, कुछ जान बचाने जाते हैं। कुछ तो लगभग मृतप्राय शरीर के साथ पहुँचते हैं। मरीज़ रास्ते में मर जाता है। मरीज़ डॉक्टर के आला छाती पर सटाने के दो मिनट बाद मर जाता है। मरीज़ ऑपरेशन थिएटर में टेबल पर मर जाता है।

क्या डॉक्टर कभी चाहता है कि उसका मरीज़ मर जाए? वही डॉक्टर जो आपका सरदर्द भी ठीक कर देता है तो आप उसे दुआएँ देते रहते हैं, वही डॉक्टर क्या आपके परिजन को जान-बूझ कर मार देगा? वही डॉक्टर जो हर जान बचाने पर लगभग भगवान का रूप बता दिया जाता है, कभी चाहेगा कि उसके सामने छाती पकड़ कर कराहता मरीज़ प्राण त्याग दे?

अब आपका एक आर्गुमेंट आएगा कि डॉक्टर आज-कल पैसा बनाने में व्यस्त हो गए हैं, बिना काम के टेस्ट लिख देते हैं आदि। पैसा बनाने में हम में से निन्यानवे प्रतिशत लोग व्यस्त हैं, बस हमें दूसरों के बनते पैसों में लगता है कि वो शॉर्टकट से बना रहा है। इसलिए ये कुतर्क तो बाहर रहने दीजिए। हाँ, इस बात पर मैं सहमत हूँ कि कई बड़े हॉस्पिटलों में जबरदस्ती ऐसे टेस्ट लिख दिए जाते हैं जिसकी ज़रूरत नहीं होती।

उसका दूसरा पहलू यह है कि आज-कल मेडिको-लीगल कोर्ट केस इतने बढ़ गए हैं कि जब सामने वाला वकील आपसे यह पूछे कि क्या आप विश्वास के साथ कह सकते हैं कि फ़लाँ टेस्ट, जो आपने नहीं किया, उसी के कारण यह व्यक्ति नहीं मरा, तो आप जवाब नहीं दे पाएँगे। आपसे पूछ लिया जाए कि आप किस शोध के आधार पर कह रहे हैं कि सरदर्द के लिए ख़ून के जाँच की ज़रूरत नहीं होती और आपने जो टेस्ट नहीं किया उससे कुछ ऐसा नहीं निकलता जिससे इसकी जान बच जाती, तो आप निरुत्तर हो जाएँगे। फिर आपकी नौकरी जाएगी, और शायद लाइसेंस भी। इसलिए, अब ऐसे मामलों से बचने के लिए भी बिना काम के टेस्ट करा लिए जाते हैं।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बड़े हॉस्पिटल इससे पैसा नहीं बना रहे। बिलकुल बना रहे हैं, लेकिन हम दूसरे पक्ष को पूरी तरह इग्नोर नहीं कर सकते। कई बार यह ख़बर भी आती है कि फ़लाँ हॉस्पिटल में सर दर्द के साथ गए थे, और पचास दिन आईसीयू में रखने के बाद लाश के साथ सत्रह लाख का बिल देकर हॉस्पिटल ने विदा किया। ऐसी खबरें गलत नहीं होतीं और बिजनेस की क्रूर दुनिया में हॉस्पिटल मैनेजमेंट इस तरह के कुकृत्य करते हुए कई बार पकड़े गए हैं। इनसे इनकार नहीं है।

ये सब एक तरफ, और दूसरी तरफ भारत सरकार की शिक्षा पद्धति से पढ़ा डॉक्टर, कम संसाधन में किसी सरकारी चिकित्सालय में अपनी सेवाएँ दे रहा होता है। उसने कड़ी मेहनत की, और सरकारी हॉस्पिटल में कम सैलरी पर काम करने लगा। वो सिर्फ डॉक्टर रह जाता है, उसकी जाति, उसका धर्म, उसका मज़हब, उसका क्षेत्र और उसकी तमाम आईडेंटिटीज़ गौण हो जाती हैं। वो समाज के उन तबक़ों के लोगों का इलाज करता है जो बेहतर जगहों पर नहीं जा सकते।

ऐसी जगहों पर वो लोग भी आते हैं जिनकी साध्य बीमारियाँ पैसों के अभाव में असाध्य हो जाती हैं। परिजन सोचते हैं कि ये तो कैंसर नहीं है, फिर ये कैसे मर गया। वो पूछते हैं कि डॉक्टर ने उसे बचाया क्यों नहीं? जबकि डॉक्टर के हाथ में कुछ नहीं रहा हो, वो उस स्थिति में पहुँच चुका हो कि उसकी मृत्यु का उपक्रम उसी डॉक्टर की टेबल पर होना बचा हो। तब आवेश में परिवार वाले डॉक्टर को पीट देते हैं, गालियाँ देते हैं, और कई बार सारा दोष उस पर डाल कर उसकी हत्या तक कर देते हैं।

प्रोफेशनल हजार्ड या मजहबी आतंक का एक रूप?

इसे अंग्रेज़ी में प्रोफ़ेशनल हजार्ड बोला जाता है। हिन्दी में अर्थ होता है पेशे में होने के कारण आने वाले ख़तरे। यानी, मान कर चलिए कि ये काम कर रहे हैं तो ऐसा भी हो सकता है। इसलिए क्रिकेटर लोग हेलमेट पहनते हैं। क्रिकेट खेलना उनका पेशा है, और गेंद का सर पर लगना उस पेशे से होने वाला ख़तरा। वही ख़तरा डॉक्टरी में गाली, थप्पड़, घूँसे, जूते से लेकर, अब बंगाल को देखें तो, 200 दंगाईयों की भीड़ द्वारा डंडे और ईंट तक का रूप ले चुका है।

75 साल की उम्र का मोहम्मद सईद नाम का एक व्यक्ति NRS हॉस्पिटल में इलाज के लिए आता है, डॉक्टर उसे बचा नहीं पाते। डॉक्टरों का कहना है कि मौत प्राकृतिक कारणों से हुई। परिवार वालों को जाने क्या सूझी कि वो दो ट्रक में 200 लोग ले आए और हॉस्पिटल के दो डॉक्टरों की लगभग जान ही ले ली। एक के सर पर ईंट लगी और खोपड़ी में फ़्रैक्चर हो गया लेकिन अब वो स्टेबल बताया जा रहा है, दूसरा गंभीर रूप से घायल है।

जब यह हमलावर भीड़ अपना उत्पात मचा रही थी तो प्रशासन इसे क़ाबू करने में पूरी तरह से विफल रहा। दूसरी घटना बर्धमान मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल की बताई जा रही है कि वहाँ भी भीड़ ने डॉक्टरों पर पत्थरबाज़ी की। कई डॉक्टर वहाँ भी घायल हुए। हालाँकि, कुछ मीडिया संस्थान इस ख़बर को नकार रहे हैं लेकिन सोशल मीडिया पर वहाँ के कुछ लोग बता रहे हैं कि स्थिति बहुत तनावपूर्ण है। तीसरी घटना में बताया जा रहा है कि एक डेंटल कॉलेज के छात्र को रास्ते में डॉक्टर वाला निशान देख कर लोगों ने रोक कर पीट दिया।

सोमवार से चल रहे इस घटनाक्रम के परिणामस्वरूप बुधवार को बंगाल के लगभग सारे ओपीडी बंद रहे और कई मेडिकल कॉलेजों के जूनियर डॉक्टर हड़ताल पर डटे रहे। ममता बनर्जी का कोई अता-पता नहीं था। लेकिन जब वो हरकत में आई तो बातचीत के इरादे से नहीं, वरन धमकी के साथ कि अगर चार घंटे में हड़ताल बंद नहीं हुई तो वो एक्शन लेगी। साथ ही, चार दिनों से सोए प्रशासन की प्रमुख ने डॉक्टरों को यह आश्वासन भी नहीं दिया कि उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार लेगी।

उसके बाद ‘ये भाजपा की साज़िश है’ वाला राग अलाप कर ममता ने जो बयान दिया है वो सुन कर लोग सर पकड़ लेंगे कि आखिर ये चाहती क्या हैं? ममता ने कहा कि पुलिस वालों की भी मौत हो जाती है तो क्या वो हड़ताल पर बैठ जाते हैं! ये वाक्य इतना वाहियात है कि इस पर सफ़ाई माँगना भी बेकार है।

जैसे-जैसे समय बीत रहा है, देश के हर राज्य से एक के बाद एक हॉस्पिटल अपने साथी डॉक्टरों के साथ खड़े होते दिख रहे हैं और सांकेतिक हड़ताल कर रहे हैं। बंगाल में स्थिति बहुत ही संवेदनशील बनी हुई है क्योंकि ममता को यह समझ में नहीं आ रहा है कि चार दिन पहले मोहम्मद सईद की मृत्यु के बाद जो दो सौ दंगाईयों ने डॉक्टरों को पीटा और सर तोड़े, उन पर कार्रवाई कैसे करे। समय शायद इसलिए लग रहा है क्योंकि नाम में मोहम्मद है, राम होता तो अभी तक जेल में होते।

इन मौक़ों पर ममता ने एस्मा कानून की दुहाई देते हुए कहा है कि डॉक्टरों को काम पर लौटना ही होगा। और डॉक्टरों ने क्या किया? उन्होंने एक साथ इस्तीफा दे दिया। ममता ने स्वीकार नहीं किया लेकिन वो उन्हें आश्वस्त भी नहीं कर पाईं कि प्रशासन उन्हें सुरक्षित माहौल में काम करने देगा। सुरक्षित माहौल तो छोड़िए उसी हॉस्पिटल में, टाइम्स ऑफ इंडिया की रिर्पोट के अनुसार, पचास गुंडे आठ बजे रात में घुस गए और उस तरफ गए जहाँ डॉक्टर हड़ताल पर बैठे हैं। अंधेरे में उन्हें कोई पहचान नहीं पा रहा। ज़ाहिर है कि ये भी एक तरीक़ा है डराने-धमकाने का।

ममता की राजनैतिक हालत खराब है

ममता की राजनैतिक हालत बहुत खराब है। हिंसा का दौर रुक नहीं रहा, पोलिटिकल कैपिटल ये खो चुकी हैं। एक झटके में भाजपा ने इनसे आधा बंगाल ले लिया और तिलमिलाई-सी यह नेत्री अपना पारम्परिक वोटर बेस खोना नहीं चाहती। इस राजनीति की बलि भाजपा के कार्यकर्ता भी चढ़ रहे हैं, और बंगाल की आम जनता भी। यही राजनीति अब अपने पाँव पसार कर बंगाल के हॉस्पिटल तक पहुँच गई है जहाँ मोहम्मद सईद की मौत पर प्रोपेगेंडा चलाने वाला अख़बार ‘द टेलिग्राफ़’ उसकी बेटी का यह बयान छापता है कि उसकी माँ की मृत्यु भी उसी अस्पताल में हुई थी, जैसे कि वहाँ के डॉक्टर इंतजार में बैठे थे कि सईद ज्यों ही आएगा उसकी जान ले लेनी है।

अब ममता बनर्जी के हाथ में बस तृणमूल की गुंडई और समुदाय विशेष के उत्पात का ही सहारा है। समुदाय विशेष ने ममता की मदद खूब की है। हर त्योहार पर दंगे की शक्ल लेते जुलूस, दुर्गा विसर्जन की इजाज़त न देना, रामनवमी के जुलूस पर पत्थरबाज़ी, दुर्गा पूजा के पंडालों पर ईंट फेंकना, लगभग हर जिले में मजहबी उन्माद की परिणति आगजनी और दंगे में होना… ये सब बंगाल का पर्याय बन चुके हैं। बंगाल जल रहा है और ममता सोच रही है कि इसको कैसे खेला जाए।

सत्ता के लालच में अंधी हो चुकी यह महिला सारे हथकंडे आज़माना चाहती है कि शायद केन्द्र विवश हो कर राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश कर दे और इसे ‘बाहर से आए मोदी ने तुम बंगालियों की लोकतांत्रिक सरकार पर हमला बोला है’ कहने का मौका मिले और इसकी पैठ मजबूत हो। अब ममता के पास यही कार्ड बचा है। हिंसा और दंगे तो इतने आम हो गए हैं कि पहले तो पत्रकारिता का समुदाय विशेष ममता की चाटुकारिता के चक्कर में कवर नहीं करता था, अब ये इतने आम हो गए हैं कि क्या कवर करे, क्या छोड़े, यही सोचकर कवर नहीं कर रहा।

बंगाल में जो हो रहा है वो ऐतिहासिक है। जो बंगाल में हैं वो जानते हैं कि कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहाँ हिन्दू परिवार घर में आलू उबाल कर गुज़ारा कर रहा है क्योंकि समुदाय विशेष उनके घर से निकलने पर हमला बोल सकता है। वोट बैंक के चक्कर में मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाली ममता जो बो रही है, वो उसे काटना होगा। अगर मुस्लिम इकट्ठा होंगे तो उसका सीधा परिणाम हिन्दुओं के एकजुट होने से होगा।

दंगाईयों का दुस्साहस और ममता की गायब पुलिस

बंगाल के लोग जानते हैं कि ममता बनर्जी की आवाज पर जो लोग ट्रकों में रॉड और मशाल लेकर बर्धमान से लेकर मालदा, पुरुलिया, मुर्शीदाबाद, आसनसोल जैसी हर जगह पर आग लगाने निकल जाते हैं वो कौन हैं, कहाँ से आए हैं, और क्यों आए हैं। बंगाल के लोगों ने लोकसभा चुनाव में ममता को अपनी जगह दिखा दी है कि इतनी हिंसा और धमकी के बीच भी अगर तीन साल में भाजपा अपना वोट शेयर तृणमूल के बराबर ले आती है, तो ममता आँख मूँद कर नमाज़ करने की एक्टिंग जितनी कर ले, बंगाल रेत की तरह फिसल रहा है उसकी गिरफ़्त से।

सोचने वाली बात तो यह है कि आखिर एक स्टेशनरी की दुकान चलाने वाले आम व्यक्ति में यह हिम्मत कहाँ से आती है कि वो अपने वृद्ध बाप की प्राकृतिक मौत पर दो सौ गुंडे बुला लेता है और हॉस्पिटल पर धावा बोल देता है? कहीं न कहीं उसने तो यही सोचा होगा कि वो बच जाएगा क्योंकि उसके नाम में रामधोनु वाला राम नहीं तथाकथित सेकुलर रोंगधोनु वाले ‘रोंग’ सेकुलर हैं। ये दुस्साहस कहाँ से आता है कि परिवार नहीं पूरी भीड़ जमा हो जाती है और उसके पास ईंट और पत्थर होते हैं फेंकने के लिए?

ये तो व्यवस्थित तरीके से हमला बोलना हुआ। ये भीड़ इतनी जल्दी कैसे आती है, कहाँ हमला करती है और किधर गायब हो जाती है? क्या पुलिस ने नहीं देखा इन्हें? क्या हॉस्पिटल में सुरक्षा के लिए पुलिस आदि नहीं होती या फिर इस पहचानहीन भीड़ का सामूहिक चेहरा ममता की पुलिस ने पहचान लिया और उन्हें वो करने दिया जो वो कर गए?

इसी भीड़ की हिमाक़त ममता जैसी तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं के दिमाग में इतना उन्माद भर देती है कि वो समझदारी से मुद्दे को सुलझाने की जगह धमकी देती है कि डॉक्टरों के रजिस्ट्रेशन कैंसिल किए जाएँगे, इंटर्नशिप का लेटर नहीं दिया जाएगा…

ममता को इतने पर नहीं रुकना चाहिए था। वो सुबह उठ कर यह घोषित कर दे कि बंगाल अपने आप में एक स्वतंत्र राष्ट्र है और वो वहाँ की साम्राज्ञी हैं। बंगाल की पुलिस को रातों-रात आर्मी बना दिया जाए और अपने नाम के विपरीत कार्यों की शृंखला में हर हॉस्पिटल के सामने आर्मी कैंटोनमेंट से तोपें लाकर खड़ी कर दी जाएँ और ऐलान कराया जाए कि काम करो, या टैंक के गोले झेलो।

तब हमारे बड़े-बड़े पत्रकार क़सीदे लिखेंगे कि इस समाज ने हमेशा ही महिला नेत्रियों को आगे बढ़ने से रोका है। वो इसलिए क़सीदे लिखेंगे क्योंकि अभी उनकी आँखों में घोड़े का बाल चला गया है, और वो आज कल बंगाल में जो हो रहा है वो ठीक से देख नहीं पा रहे।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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