बलात्कार का अभियुक्त था, भारत में होता तो शायद उसके साथ इससे भी बुरा होता। जब वो चीख-चीख कर कहने लगा कि उसने कोई बलात्कार किया ही नहीं तो उसकी सुनता कौन? हरेक अपराधी ऐसा ही कहता है। ऊपर से ये तो अपराधियों में भी सबसे घृणित – बलात्कारी था।
रोनाल्ड कॉटन को जिस मामले में गिरफ्तार किया गया था वो एक छात्रा के बलात्कार का मामला था। कोई अपराधी 1984 में एक रात लड़की के कमरे में घुस आया था और उसने छुरे की नोक पर बलात्कार किया।
अपराधी के कब्जे से जैसे-तैसे भागकर निकली जेनिफर ने जब घटना की रिपोर्ट दर्ज करवाई तो पुलिस ने आम संदिग्धों की धर-पकड़ की और उसी में रोनाल्ड कॉटन भी पकड़ा गया था। संदिग्धों की पहचान परेड में जेनिफर ने कहा कि कॉटन ही वो आदमी है जो उस रात उसके कमरे में घुस आया था।
जेल जाते ही सबसे पहले तो आय के स्रोत बंद हो जाते हैं, और कहने को चाहे लोग कुछ भी कहें, कानूनी प्रक्रिया और अदालतें गरीबों के लिए तो बिलकुल भी नहीं बनीं। ऊपर से रोनाल्ड कॉटन पर मामला भी बलात्कार का था और पीड़िता ने उसे साफ़ पहचान लिया था।
इस जघन्य कृत्य के लिए रोनाल्ड कॉटन को उम्रकैद के साथ पचास वर्षों की कैद की सजा मिली। रोनाल्ड कॉटन अपने बेकसूर होने की बात पर अड़ा हुआ था। उसने 1987 में अपना मामला फिर से सुनवाई के लिए खुलवा लिया। इस बार मुक़दमे के दौरान उस पर एक किसी दूसरे मामले का आरोप भी साबित कर दिया गया। पहले पचास साल की सजा थी ही, अब 54 वर्षों की सजा और हो गई। शायद ‘नमाज माफ़ करवाने गए और रोज़े गले पड़ गए’ ऐसी ही स्थिति के लिए कहा गया होगा।
वहीं, दूसरी तरफ बलात्कार पीड़िता जेनिफर के लिए भी न्यायिक प्रक्रिया के अनुभव कोई अच्छे नहीं थे। पहले ही बलात्कार की वजह से मानसिक रूप से पीड़ित लड़की के लिए मेडिकल जाँच भी एक डराने वाला अनुभव था। भारत में भी बलात्कार की जाँच के लिए वैसे ही टेस्ट होते हैं। अदालत की सुनवाई तो और भी तोड़ देने वाली प्रक्रिया थी।
पूरे वक्त रोनाल्ड कॉटन कहता रहा कि जेनिफर गलत पहचान रही है, उसने बलात्कार नहीं किया। इस दौर में डीएनए टेस्ट को सबूतों के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता था। रोनाल्ड को जेल में 11 वर्ष बीत चुके थे जब डीएनए टेस्ट को मान्यता मिली। जब इस बार उसने पीड़िता के कपड़ों की डीएनए जाँच करवाई तो पता चला कि जेनिफ़र से सचमुच पहचानने में गलती हुई थी। रोनाल्ड कॉटन अपराधी नहीं था।
इस दौर तक रोनाल्ड कॉटन की बलात्कार पीड़िता जेनिफ़र से ठीक ठाक जान-पहचान हो चुकी थी। उन दोनों ने बाद में मिलकर, ‘पिकिंग कॉटन’ नाम की किताब लिखी जो एक तरफ तो बलात्कार पीड़िता को न्याय व्यवस्था से होने वाली दिक्कतों के बारे में बताती है, और दूसरी तरफ एक बेक़सूर की न्यायिक व्यवस्था से शिकायतों के बारे में।
‘पिक्किंग कॉटन’, न्याय की हत्या पर कोई इकलौती किताब भी नहीं है। ऐसी ही एक दूसरी किताब ‘एक्चुअल इनोसेंस: फाइव डेज टू एग्जीक्यूशन एंड अदर डिसपैचेज फ्रॉम द रोंगली कनविक्टेड’ भी है।
इस किताब ने एक पूरा आन्दोलन शुरू कर दिया था। इसमें ऐसे लोगों की कहानियाँ हैं, जिन्हें जबरन सजा सुना दी गई और बाद में सही तरीके से जाँच में पता चला कि अपराधी तो कोई और थे! ‘द इनोसेंस प्रोजेक्ट’ नाम की एक संस्था भी है जिसने गलत सजा पाए कई लोगों को छुड़ाया है।
भारत में ही अगर कभी ‘आरुषी हत्याकांड’ या ‘निठारी आदमखोर काण्ड’ जैसे मामलों पर लिखा जाता तो शायद ऐसे ही मामले निकलते। भारत के लॉ कमीशन ने, 2018 में ‘Wrongful Prosecution (Miscarriage of Justice): Legal Remedies’ नाम की एक रिपोर्ट भी ऐसे ही मामलों पर लिखी थी।
तथाकथित भगवा आतंकवाद के नाम पर मीडिया ट्रायल चलाकर बरसों जेल में बंद रखे गए लोगों की कहानियाँ निकाली जाएँ तो ऐसे ही मामले निकलेंगे। हाल ही में ‘कठुआ कांड’ के मामले में मीडिया लिंचिंग के शिकार युवक की कहानी भी ऐसी ही होगी।
कठुवा कांड में तो जिस नौजवान की कई बुद्धि-पिशाच और पक्षकार मिलकर, मीडिया लिंचिंग कर रहे थे, अदालत में पता चला कि वो सच कह रहा था। जिस वक्त वारदात हुई थी वो तो किसी दूसरे राज्य में कहीं परीक्षाएँ दे रहा था। फिर सवाल ये है कि नैरेटिव गढ़ने की जल्दी में भला पक्षकार और बुद्धिपिशाच भला सच्चाई को क्यों देखते? हिन्दुओं को नीचा दिखाने वाले, बलात्कार को धर्म से जोड़ने वाले कार्टून बनाना उनके लिए ज्यादा जरूरी था। जितनी नीचता हिन्दुओं के प्रति की जा सकती, आखिर उतना ही तो वो प्रसिद्ध होते ना?
बाकी एक तथ्य ये भी है कि जब तक शेर खुद शिकार की कहानियाँ ना लिखने लगें, तब तक शिकार की कहानियों में शिकारी खुद अपना महिमामंडन तो करेगा ही। अपने पक्ष की कहानियाँ खुद लिखना सीखिए, लेकिन उससे भी जरुरी है कि वो जिस मुद्दे पर उकसाएँ, उस पर चुप रहना सीखिए।