वामपंथी-लिबरल गिरोह के नैरेटिव पर लगातार प्रहार करने की जरूरत है क्योंकि ये रक्तबीज बन कर समाने आए हैं। एक प्रपंच को काटिए, दूसरा पैदा कर देंगे, उसको काटिए, तीसरा आ जाएगा। प्रपंच और प्रोपगेंडा बनाना एक सतत प्रक्रिया है जिसमें, अपने तंत्र के कारण, राठी-बनर्जी-कामरा टाइप के फेक न्यूज फैलाने वाले नवलौंडे भी लाखों लोगों द्वारा ‘तथ्य और आँकड़ों’ के साथ बात करने वाले के तौर पर देखे जाते हैं।
चाहे वो ध्रुव राठी हो या लम्पट आकाश बनर्जी, इन्होंने इस पूरे साल, और उससे पहले भी, इतना ज्यादा झूठ बोला है, अपने विडियो में जिसकी न तो आदि है, न अंत। इन्हें लगता है कि सामने वाला तो मूर्ख है, विडियो के कोने में कुछ भी जोड़-घटाव और कुछ संख्या दिखा दो, वो उसे तथ्यात्मक आँकड़ा मान लेगा। और दुर्भाग्य देखिए वामपंथियों का कि वे सच में इन चिरांधों की विष्ठा को सुगंधित पुष्प मान कर चरमसुख पाने लगते हैं।
इनका क्या है, इन्हें आम आदमी पार्टी जैसों से लगातार प्रश्रय मिलता रहा है, केजरीवाल इनके प्रपंच को ट्वीट करते हैं, अजेंडाबाज रवीश अपने शो में बुला कर इन्हें सर्टिफाय करता है और बीबीसी तक इन जैसों को चुनाव में वैचारिक रैलियाँ करने के लिहाज से पैसे देता है। ये पूरा तंत्र है, और उसके बाद अकादमिक संस्थानों में वामपंथियों के वर्चस्व से स्कूल से निकल कर, कॉलेज पहुँचे विद्यार्थी इनका सबसे पहला शिकार बनते हैं। इन्हें सत्यान्वेषी मानने वालों की सबसे बड़ी भीड़ दिल्ली जैसे जगहों के कॉलेजों के 20-22 साल के अंडरग्रेजुएट छात्र-छात्राओं की है।
कैसे काम करता है यह तंत्र?
इनमें बच्चों का ज्यादा दोष नहीं है। इस उम्र में जब आपको अचानक से उस ‘यूनिफॉर्म’ से छूट मिलती है, जो न सिर्फ एक कपड़ा था बल्कि हर बच्चा एक ही तरह से उठता-बैठता-सोचता था, क्योंकि विद्यालयों में यही होता है, तब आप इस अचानक से मिली स्वच्छंदता से एक सुंदर आघात महसूस करते हैं। आप उस मोड में चले जाते हैं जहाँ ‘हाँ’ कहने वाले से ज्यादा वजन ‘ना’ कहने वाले की बातों में होता है।
ये मनोविज्ञान है और आप स्वयं इसे महसूस करते होंगे कि किसी भी समूह में, अगर अधिकतर व्यक्ति कह रहे हों ‘सुबह का सूरज लाल होता है’, लेकिन एक व्यक्ति कह दे कि वो ऐसा नहीं मानता, तो सब उसकी तरफ देखने लगते हैं। उसके बाद वो अपने बोलने के तरीके से आपसे मनवा लेगा कि सूरज होता तो पीला है, लेकिन हवाओं में मौजूद फलाने अवयवों के कारण हमें लगता है कि वो लाल है।
वैसे ही, अन्य मौकों पर भी एकदम अलग विचार रखने वालों को ‘रेबेल’ के रूप में इज्जत मिलती है, चाहे वो विचार सच्चाई से दूर और तथ्यहीन ही क्यों न हों। ऐसे में कॉलेज में पहुँचे बच्चों को यह मनाने में बहुत आसानी होती है कि सरकार बेकार है। भारत जैसे देश में सरकार का बेकार होना, हर काल और परिस्थिति में एक अकाट्य सत्य है। आप गरीबी का आँकड़ा ले आइए, टूटी सड़क दिखा दीजिए, हॉस्पिटल के कोने में जमा कूड़ा दिखा दीजिए, देखने वाले को हमेशा लगेगा कि भारत बेकार है।
यही होता है कि इन बच्चों के साथ। ये बच्चे स्कूल छोड़ कर आते हैं, ऊर्जा भरी होती है, चार विलक्षण सीनियर या शिक्षक आपसे कह देते हैं कि सवाल करना चाहिए, और इससे पहले कि आप यह सोच पाएँ कि क्या सवाल करना चाहिए, आपको वामपंथी-लिबरल समूह अपने सवाल थमा देगा। फिर वो आपको समझाएगा कि विद्यार्थी जीवन पढ़ाई के लिए नहीं है, विद्रोह के लिए है, पोस्टर बनाने के लिए है, सत्ता से संघर्ष के लिए है। आपको कोई यह कह देगा कि पढ़ने से क्या हो जाएगा, पास करने भर नंबर लाओ, उतनी ही ज़रूरत होती है परीक्षा का फॉर्म भरने के लिए।
आप उनके जाल में फँसते जाते हैं। फिर आपको बताया जाता है कि जवानी बर्बाद मत करो, वैचारिक क्रांति करो। आप उनके ऐसे गुलाम बन चुके होते हैं कि स्वच्छंदता का मतलब अपने इस तरह के सीनियरों की हर बात को मानना हो जाता है। आपकी वैचारिक स्वतंत्रता का मतलब होता है कि ये वामपंथी-लिबरल गिरोह जिस तरह से सोचता है, आप भी वही सोचें। उसके बाद थोड़ा सा सेक्स का तड़का लगा दिया जाता है, थोड़ी शराब मिला दी जाती है, और अभी तक हर चीज माँ-बाप से डर कर करने वाले बच्चे, सेक्स को ही लिबरेशन मानने लगते हैं।
एक तरह से सीनियर आपको यूज करते हैं, आप यूज होते हैं, और आपको लगता है कि आप स्वतंत्र सोच रखने वाले वामपंथी हैं। आपको उकसाया जाता है क्योंकि आप झंडा उठा सकते हैं, कुर्सियाँ लगा सकते हैं, पोस्टर बना सकते हैं, खुले में दारू पी सकते हैं। आपको समझाया जाता है कि यही असली जीवन है, माँ-बाप और परिवार एक बंधन है। इस तरह से चक्रीय तरीके से साल-दर-साल इनके पैदल सिपाहियों की खेप तैयार होती रहती है।
आज के दौर में कॉलेजों की क्रांति से ही बात नहीं बनती। कॉलेज और यूनिवर्सिटी के बच्चे तो बस भीड़ होते हैं। तकनीक ने सीमाओं को तोड़ा है इसलिए सोशल मीडिया पर वामपंथियों ने अपने वर्चस्व के लिए वैचारिक आतंकियों की नियुक्ति की। इन्हें बुद्धिजीवी कहा गया जो कि ‘उदारवादी’ विचार रखने के नाम पर, ‘जो हम कह रहे हैं वही अभिव्यक्ति की आजादी है, बाकी सब कुछ हेट स्पीच, यानी घृणा फैलाने वाली बात है’, जैसे ध्येय वाक्य के साथ चलते हैं।
ऐसे परिदृश्य में इन कच्ची उम्र के युवाओं को उन्हीं के उम्र के लोगों द्वारा इस भेड़चाल का डिजिटल सिपाही बनाने के लिए ध्रुव राठी, आकाश बनर्जी, कुणाल कामरा जैसे लोगों से ले कर पीईंग ह्यूमन जैसे सोशल मीडिया हैंडल तैयार किए गए। ये लोग कहीं से आए नहीं, इन्हें योजनाबद्ध तरीके से, धीरे-धीरे, स्वतंत्र विचारों के नाम पर लाया गया। उसके बाद इन्हें राजनैतिक धक्के लगा कर, रवीश कुमार और केजरीवाल के गिरोह द्वारा ऊपर उठाया गया। बाकी का काम कॉलेज के इन बच्चों ने किया जिन्हें ‘व्यवस्था के खिलाफ’ होने के नाम पर कुछ भी दे दो, वो ले लेंगे। वो इसलिए ले लेंगे क्योंकि पहले से स्थापित नामों ने इन्हें अपना समर्थन दिया है। केजरीवाल राजनीति में मसीहा बन कर आए थे, रवीश पत्रकारिता के मसीहा थे, इन्होंने समर्थन दे दिया तो बाकी ज्यादा करना बचा नहीं।
इस प्रक्रिया के बाद ‘उदारवादी’ विचारधारा के नाम पर, ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के नाम पर, इन्हें जो सबक सबसे पहले दिया जाता है, वो यह होता है कि दूसरे लोगों को तो दिमाग ही नहीं है, वो न तो पढ़े-लिखे हैं, न ही उन्हें बात करने की तमीज है। इन्हें कहा जाता है कि उन्हें तुरंत नकार दिया करो। इसलिए आप देखेंगे कि जेएनयू छाप लम्पट माओवंशी फेसबुक के कमेंट में भी अगर सवालों के घेरे में फँस जाता है तो वो लिखेगा, ‘थोड़ा पढ़ लिया करो कि मार्क्स ने क्या कहा है, भारत का संविधान क्या है’।
कहानी एक वामपंथी की
उसके बाद वो आपसे बात नहीं करेंगे। सोशल मीडिया पर ऐसा करना आसान है। लेकिन अगर बात आमने-सामने हो रही हो, तब वामपंथी बुरी तरह से फँस जाता है। यहाँ मैं एक कहानी सुनाना चाहूँगा, जो बीस दिन पहले ही मेरे साथ घटित हुई। एक वामपंथी थे, सीनियर हैं तो किसी के कहने पर मिलने चला गया। उन्होंने कहा कि वो मेरे विचारों का समर्थन नहीं करते, मैंने कहा कोई बात नहीं, सबको करना भी नहीं चाहिए। मैं चाह रहा था कि बातें वैयक्तिक ही रहे, राजनैतिक दिशा न लें, वरना दोनों के लिए असहज हो जाता।
लेकिन वामपंथी हर जगह अपनी राजनीति जरूर घुसा देते हैं, ये उनकी मजबूरी है। बात आ गई कि मोदी ने तो बर्बाद कर दिया है। मैंने पूछा कि क्या बर्बाद कर दिया। कहने लगे कि समाज में देखो कितनी समस्याएँ हैं, सब बर्बाद कर रहा है, लोग हिंसक हो गए हैं, अल्पसंख्यकों में डर है, सताया जा रहा है लोगों को। मैंने कहा कि अगर इतनी बर्बादी है, लोग डर रहे हैं तो समुदाय विशेष के इलाकों की आधी सीटों पर भाजपा कैसे जीत गई, लगातार हर राज्य में और केन्द्र में पहले से ज्यादा सीटें कैसे पा रही है?
वो कहने लगे कि हिटलर को भी इसी तरह का समर्थन हासिल था, मोदी भी वही है। मैंने दोबारा पूछा कि किस आधार पर हिटलर कह रहे हैं? वो कहने लगे कि कहना क्या है, वो है, गोधरा देख लो। मैंने पूछा कि ट्रेन में आग भी मोदी ने ही लगवाई थी जिसमें 59 कारसेवक जल गए? उस एक दंगे के अलावा बाकी के हर बड़े दंगे में उसी की सरकार रही है जिसमें आपको अचानक से आशा नजर आने लगी है, कम्यूनिस्टों ने बंगला और केरल में कितनी हत्याएँ करवाई हैं, वो भी पता कीजिए।
अब वो चर्चा से भागने की कोशिश करने लगे कि ये सब फासिज्म है, लोगों पर कानून थोपा जा रहा है, एक खास धर्म के लोगों को ही फायदा हो रहा है। मैंने फिर से पूछा कि सिलिंडर जो बाँटे गए, वो क्या हिन्दुओं को ही मिले? बिजली जो पहुँची वो हिन्दुओं के ही घर में पहुँची? बैंक खाते में जो सब्सिडी पहुँचती है वो हिन्दुओं का ही होता है? शौचालय जो बने वो हिन्दुओं के ही घरों में बने? ट्रिपल तलाक पर कानून हिन्दू महिलाओं के हित में आया? अगर ये फासिज्म है, तो बिलकुल सही है, सबको ऐसे फासिज्म का सपोर्ट करना चाहिए।
कहने लगे कि तुम आर्टिस्ट हो, क्रिएटिव व्यक्ति हो, तुम्हें सत्ता के खिलाफ होना चाहिए। मेरा सवाल था कि ऐसा किस तर्क से सही है? मतलब, कोई सरकार अगर अच्छे काम कर रही है तो हम उसकी इतनी आलोचना करें, ऐसा नैरेटिव बनाएँ कि वो अगली बार सत्ता में न आए, फिर दूसरी आए तो उसकी आलोचना करो… ये कैसा कुतर्क है? चोरों को सत्ता इसलिए दे दो क्योंकि क्रिएटिव लोगों को सत्ता के खिलाफ होना चाहिए! हद है!
जब कोई जवाब नहीं मिला, तो वामपंथियों का अंतिम जुमला आया, देख लेना आने वाले समय में इस देश का क्या होगा। मैंने पलट कर कह दिया कि जिनकी उम्मीद राहुल गाँधी पर टिकी हो, उन्हें भविष्य की चिंता नहीं करनी चाहिए। फिर चिकन चिली आ गई, और हम खाने लगे। ऐसा मेरे साथ एक बार नहीं, कई बार हुआ है। वामपंथियों से, या इन बच्चों से, आप सिर्फ सवाल पूछिए और वो कुछ नहीं बोल पाएँगे। कॉलेज में भी क्लास लेने गया था, वहाँ के बच्चों का भी यही हाल था। मैंने कहा कि जो कह रहा हूँ, वो मत मानो, इंटरनेट पर सर्च कर लो। फिर चुप हो गए सब।
अभिव्यक्ति की आजादी का ढोंग
वापस, पीईंग-राठी-बनर्जी-कामरा पर आते हैं जिन्होंने बौद्धिक आतंकवाद फैला रखा है। उनका मूल हथियार है निःसंकोच, चेहरे पर बिना किसी शिकन के, झूठ बोलते रहना। ऐसा ये लगातार करते रहे हैं। साथ ही, फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर आतंकवादियों और नक्सलियों के समर्थन में आने वाले ये लोग, कभी तक फ्रीडम ऑफ स्पीच में विश्वास दिखाते हैं जब तक वो बात इनके मतलब की हो। जहाँ बात इनके खिलाफ होती है, उसे ये सेकेंड भर में ‘फेक न्यूज’ कह कर खारिज कर देते हैं।
ऑपइंडिया ने लगातार वैसे अपराधों की रिपोर्टिंग की है जहाँ पीड़ित हिन्दू हो, और अभियुक्त मजहब विशेष से, क्योंकि बाकी लोग ऐसी रिपोर्ट में नाम छुपा लेते हैं, इसे ‘समुदाय विशेष’ लिखकर निपटा दिया करते हैं और कभी-कभी तो घटना को ही गायब कर देते हैं। हमने आँकड़े जुटाने शुरू किए, इस पर बात करने की कोशिश की कि मंदिरों पर आज भी हमला कौन करता है, मूर्तियाँ कौन तोड़ रहा है, गौरक्षकों को किस मजहब के लोग मार रहे हैं, काँवड़ियों पर रात के एक बजे छत पर बैठ कर पत्थरबाजी कौन करता है… और हर बार एक ही मजहब के लोगों के नाम सामने आए। बलात्कारियों के नामों में जब एक खास मजहब के लोग सामने आने लगे, और उस पर चर्चा होने लगी तो, एक लाइन में कहा जाने लगा कि ऑपइंडिया तो फेक न्यूज फैलाता है, कम्यूनल है।
हमने पूछा कि मजहब का आदमी बलात्कारी है, तो इसमें कम्यूनल क्या है? कट्टरपंथी मंदिर तोड़ रहा है तो इसमें साम्प्रदायिकता कहाँ हैं? कट्टरपंथियों ने घेर कर दसियों हिन्दुओं की लिंचिंग की है, तो इसमें धर्मांधता या बिगट्री कहाँ है? हिन्दुओं के त्योहारों पर अगर पत्थरबाजी हुई है तो इसमें झूठी बात क्या है, बिलकुल मजहबी घृणा से ओतप्रोत कट्टरपंथियों ने ये काम किया है, और वो हर बार रिपोर्ट किया जाएगा।
लेकिन इस तरह की रिपोर्टिंग से वामपंथियों की अधोजटाएँ सुलगने लगीं और स्थान विशेष से धुआँ निकलने लगा। वो सब इसलिए क्योंकि अभी तक बलात्कार की घटनाएँ तभी रिपोर्ट होती थी, जब अभियुक्त हिन्दू हो। हमने दूसरा पक्ष भी दिखाया। हमने बताया कि लिंचिंग तो भरत यादव, अंकित सक्सेना, ध्रुव त्यागी, प्रशांत पुजारी, डॉक्टर नारंग की भी हुई है। हमने बताया कि गौतस्करों ने तो बीस महीने में बीस हिन्दुओं की हत्या की है। पिछले सालों में 50 घटनाएँ ऐसी हुई हैं जो डरा हुआ ‘शांतिप्रिय’ के फर्जी नैरेटिव को ध्वस्त करता है। तब ये कहने लगे कि हम तो घृणा फैलाते हैं। अगर तथ्यों के साथ रिपोर्ट करना, वैचारिक स्तंभ लिखना घृणा फैलाना है, क्योंकि उसमें अपराधी की संलिप्तता है, तो ये काम जारी रहेगा।
अचानक से प्रेस के फ्री होने पर कोई चर्चा नहीं हो रही। मैं इन सब चम्पुओं को खुला चैलेंज देता रहा हूँ कि आओ, पूरी साइट पड़ी हुई है, हिन्दी में ही है, एक खबर निकाल दो जो गलत हो, तुम्हारी बात मान जाऊँगा। इनका दुर्भाग्य यह है कि हमने इनके फैक्टचेकरों का फैक्टचेक किया हुआ है। इनके ‘हेट क्राइम’ का डेटा इकट्ठा करने वालों का सच हम सामने लाए कि ये हिन्दुओं द्वारा, सामान्य अपराध में भी, समुदाय विशेष के पीड़ित होने पर उसे हेट क्राइम मान लेते हैं।
इसके उलट, पूरी तरह से मजहबी कारणों से की हुई हत्याएँ भी जिसमें हत्यारा मजहब विशेष से हो, पीड़ित हिन्दू, उसे हेट क्राइम नहीं मानते। सुप्रीम कोर्ट में इन वामपंथियों के वकील ने उसी साइट का नाम ले कर गलत आँकड़े दिखाने की कोशिश की, और सॉलिसिटर जनरल ने ऑपइंडिया की वो रिपोर्ट जजों के सामने रख दीं जहाँ उस साइट की फैक्ट चेकिंग कर हमने उसे झूठा साबित कर रखा था।
अभिव्यक्ति सिर्फ मेरी सही है, तुम्हारी नहीं
हाल ही में रेडियो जॉकी रौनक को इन निकम्मों के गैंग ने निशाने पर लिया। आरजे रौनक ने जेएनयू के आंदोलन पर एक विडियो बनाते हुए अपनी बात रखी और उसमें त्रुटिवश एक तस्वीर शेयर की जो कि उस आंदोलन का नहीं था। किसी ने जब उसकी ओर ध्यान दिलाया तो भूल-सुधार करते हुए, विडियो को संपादित करने के बाद, माफीनामे के साथ रौनक ने उसे सही किया। लेकिन आकाश बनर्जी जैसे चतुर चम्पू, जिनका फेक न्यूज फैलाने का इतिहास रहा है, ध्रुव राठी और पीईंग ह्यूमन के साथ इस बात के लिए उसे ऐसे टार्गेट करने लगे जैसे कि दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ तो रौनक ही है।
ध्रुव राठी कई बार गलत आँकड़े देता पकड़ा जा चुका है। आम आदमी पार्टी की चाटुकारिता में इसकी जीभ और केजरीवाल जी का पृष्ठ भाग, दोनों ही, छिल चुके होंगे, लेकिन मजाल है कि चाटने में कोई कमी आई हो! बनर्जी भी कई बार लोगों द्वारा दुत्कारा जा चुका है, लेकिन मजाल है कि सुधरने की कोशि की हो, फेक न्यूज फैलाने पर कभी माफी माँगी हो! बिलकुल नहीं, क्योंकि तंत्र इनके झूठ को तथ्य की तरह फैलाता है, और हिटलर के प्रोपगेंडा मंत्री गोएबल्स के सारे दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए, एक ही प्रपंच को इतने जगह से चलाता है कि वो सच लगने लगता है।
लेकिन आम जनता इन रक्तबीजों को उन्हीं के प्लेटफॉर्म पर, उन्हीं की भाषा में जवाब देने लगी है। रौनक वाले मामले में, एक भूल के लिए, उसके बहिष्कार का जब ट्विटर ट्रेंड चला, तो उससे दुगुने लोगों ने उसके समर्थन का हैशटैग चला दिया। साथ ही, इन सारे लम्पटों के ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब पर आप कभी भी कमेंट सेक्शन में जाइए, इनके वैचारिक पैगम्बर रवीश के भी, तो आप पाएँगे कि कमेंट की संख्या तो बहुत ज्यादा होती है, लेकिन अधिकतर लोग उन्हें लानतें देने जाते हैं वहाँ।
इसलिए, बेचारे अब बिलबिला रहे हैं। लेकिन इन पर दया न करें। कॉलेज के बच्चों को बताएँ कि ये लोग प्रपंच फैलाते हैं। उनसे कहिए कि वो सिर्फ एक तरह की विचारधारा वालों को न पढ़ें, चाहे वो वाम हो या दक्षिण, हर तरफ से आँकड़े लें। सबको पढ़िए, और तब विचार बनाइए कि कौन सही है, कौन गलत। वामपंथियों की जड़ों में मट्ठा नहीं, हायड्रोक्लोरिक या सल्फ्यूरिक एसिड डालने की जरूरत है। इनके भीतर ट्यूमर नहीं है, ये कैंसर के ट्यूमर का मानवीय रूप हैं।
इन्हें बर्दाश्त मत कीजिए, जहाँ मिले तोड़ दीजिए। इनको काटिए अपने प्रश्नों से, तैयार रहिए अपने आँकड़ों के साथ। कहें कि ‘थोड़ा पढ़ लो’, तो जवाब में पूछिए कि क्या उसके बाप के ही पुस्तकालय में सारी किताबें हैं कि बाकियों ने पढ़ी ही नहीं होंगी? इन नक्सलियों को तब तक तोड़िए जब तक ये क्षितिज और परिधि से गायब न हो जाएँ। दोबारा दिखें, फिर जलील कीजिए। इनका समूल नाश ही समय की माँग है और इसमें आपको उतरना ही होगा।