Sunday, December 22, 2024
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अब ‘डिग्री’ वाले मौलवी नहीं होंगे पैदा, पर बच्चों को आधुनिक शिक्षा से दूर रखना कितना जायज: क्या मदरसा एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करेगी योगी सरकार?

उत्तर प्रदेश में लगभग 16.5 हजार मदरसों में 17 लाख बच्चे पढ़ते हैं। उनके भविष्य का ख्याल रखना सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर अपील करती है तो यह मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए एक बड़ा कदम होगा। इससे मुस्लिम समाज में उच्च शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ-साथ उनके परिवार में समृद्धि भी आएगी।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (5 नवंबर 2024) को उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम-2004 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इस कानून के तहत मदरसा बोर्ड की स्थापना और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा मदरसों के प्रशासन का प्रावधान किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा इस कानून को निरस्त करने के लिए फैसले को भी पलट दिया।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने इस मामले में सुनवाई की। इसके साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें संविधान के मूल ढाँचे के एक पहलू ‘धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों’ का उल्लंघन करने के लिए अधिनियम को निरस्त कर दिया गया था।

कोर्ट ने कहा कि संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन या विधायी क्षमता के आधार पर किसी कानून को निरस्त किया जा सकता है, लेकिन मूल ढाँचे के उल्लंघन के लिए नहीं। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह मान कर गलती की है कि मूल ढाँचे के उल्लंघन के लिए कानून को निरस्त किया जाना चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया कि इस अधिनियम का मूल उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है। कोर्ट ने कहा, “अधिनियम की विधायी योजना मदरसों की शिक्षा का मानकीकृत करना है। मदरसा अधिनियम मदरसों के दैनिक कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करता है। यह राज्य के सकारात्मक दायित्व के अनुरूप है, जो छात्रों को उत्तीर्ण होने और एक सभ्य जीवन जीने के लिए सुनिश्चित करता है।”

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने मदरसा अधिनियम के उन प्रावधानों को खारिज कर दिया, जो मदरसा बोर्ड को ‘कामिल’ (स्नातक पाठ्यक्रम) और ‘फाजिल’ (स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम) जैसे उच्च शिक्षा के लिए निर्देश और पाठ्य पुस्तकें निर्धारित करने का अधिकार देता है। न्यायालय ने कहा कि इससे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम (यूजीसी अधिनियम) का उल्लंघन होगा।

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च शिक्षा से संबंधित फाजिल और कामिल पर मदरसा अधिनियम के प्रावधान असंवैधानिक हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21A (निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार) और शिक्षा का अधिकार अधिनियम को इस तरह से पढ़ा जाना चाहिए कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक संस्थान शिक्षा प्रदान कर सकें।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 22 मार्च 2024 को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश मदरसा एक्ट को धर्मनिरपेक्षता विरोधी और असंवैधानिक बताते हुए उसे निरस्त कर दिया था। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को मदरसों में मजहबी शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों को औपचारिक शिक्षा से जोड़ने के लिए भी निर्देश दिया था। इस पर जस्टिस विवेक चौधरी और जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बेंच ने सुनवाई की थी।

अंशुमान सिंह राठौड़ नाम के एक व्यक्ति ने मदरसा बोर्ड के खिलाफ याचिका दायर करके इस एक्ट की कानूनी वैधता को चुनौती दी थी। इसके साथ-साथ उन्होंने निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार संशोधन अधिनियम 2012 के कुछ प्रावधानों पर भी आपत्ति जताई थी। याचिका में पूछा गया था कि क्या मदरसों का उद्देश्य शिक्षा देना है या फिर मजहबी शिक्षा देना है?

याचिका में सवाल ये भी पूछा गया था कि जब संविधान सेक्युलर है तो फिर सिर्फ एक खास मजहब के व्यक्ति को शिक्षा बोर्ड में क्यों नियुक्त जाता है? इसमें सुझाव दिया गया था कि बोर्ड में विद्वान लोगों की नियुक्ति अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी दक्षता को देखते हुए बिना मजहब देखे की जानी चाहिए। इससे शिक्षा नीतियों के लाभ से मदरसे के छात्र वंचित रह जाते हैं।

याचिका में ध्यान दिलाया गया था कि जैन, सिख ईसाई इत्यादि मजहबों से संबंधित सभी शैक्षिक संस्थानों को शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत संचालित किया जाता है, जबकि मदरसों को अल्पसंख्यक विभाग के तहत। इस पर हाई कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से पूछा था कि मदरसा बोर्ड को शिक्षा विभाग की जगह अल्पसंख्यक विभाग द्वारा क्यों संचालित किया जा रहा है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय का उत्तर प्रदेश सरकार ने विरोध नहीं किया था। सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा कि वह हाई कोर्ट का निर्णय मानेगी। केंद्र सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने भी इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय का समर्थन किया। राज्य सरकार ने कोर्ट को यह भी आश्वासन दिया था कि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों को सरकारी स्कूलों में लिया जाएगा।

इलाहाबाद हाई हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ मैनेजर्स असोसिएशन मदारिस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी। मदारिस ने कहा था कि हाई कोर्ट के निर्णय से राज्य के 17 लाख मदरसा छात्र प्रभावित होंगे। उसने यह भी कहा कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को इकट्ठे राज्य सरकार के ढाँचे में नहीं घुसाया जा सकता है।

क्या कहता है कि यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम

मदरसा ऐसे संस्थानों को कहा जाता है, जहाँ मुस्लिम समुदाय के लोग मुस्लिमों को कुरान-हदीस के अलावा इस्लामी किताबों का अध्ययन करते हैं। आमतौर पर यह शिक्षा हिंदू, उर्दू और अरबी में होती है। इसमें आधुनिक शिक्षा की जगह मजहबी शिक्षा पर जोर होता है। इन पर मस्जिद के इमामों एवं मौलाना का अधिकतर प्रभाव रहता है। इसका विनियमन करने के लिए साल 2004 में एक कानून बना था।

इस कानून को उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 कहा जाता है। इस कानून में मदरसा शिक्षा को अरबी, फारसी, उर्दू, इस्लामी अध्ययन, दर्शन और उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्दिष्ट अन्य शाखाओं में शिक्षा के रूप में परिभाषित किया गया था। इस कानून का घोषित उद्देश्य मदरसा के कामकाज की देखरेख करके मदरसा शिक्षा बोर्ड को सशक्त बनाना था।

मदरसा एक्ट की धारा 9 कहती है कि मदरसा बोर्ड का काम मदरसों का पाठ्यक्रम तैयार करना और मौलवी से लेकर फाजिल तक की परीक्षा का आयोजन करना है। इस ऐक्ट के तहत ही मदरसा शिक्षा बोर्ड का गठन हुआ था। इस बोर्ड में मुस्लिम ही शामिल होते हैं। अन्य वर्ग के लोगों को इसमें शायद ही शामिल किया जाता है।

क्या होती है कामिल-फाजिल की डिग्री

मदरसा शिक्षा में ‘कामिल’ को स्नातक यानी बैचलर डिग्री के बराबर रखा गया है। वहीं, ‘फाजिल’ को स्नातकोत्तर यानी PG या मास्टर डिग्री के बराबर रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड कामिल-फाजिल की पढ़ाई कराने वाले मदरसों को मान्यता नहीं दे सकता। मदरसों में अब सिर्फ बारहवीं कक्षा तक ही पढ़ाई हो सकती है।

मदरसा बोर्ड से मदरसों को तहतानिया, फौकानिया, आलिया स्तर की मान्यता दी जाती है। इनमें तहतानिया की प्राथमिक, फौकानिया का माध्यमिक और आलिया जूनियर हाई स्कूल की पढ़ाई मानी जाती है। 10वीं के समकक्ष मुंशी/मौलवी और 12वीं के समकक्ष आलिम की डिग्री दी जाती है। आलिया स्तर के मदरसों में ही कामिल और फाजिल की डिग्री दी जाती रही है।

योगी आदित्यनाथ सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्यों करना चाहिए अपील

इस कानून के खिलाफ राज्य सरकार कोर्ट में नहीं गई थी, बल्कि इसके खिलाफ सबसे पहले मुस्लिम ही खड़े हुए थे। साल 2012 में दारुल उलूम वासिया मदरसा के प्रबंधक सिराजुल हक ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की थी। साल 2014 में लखनऊ के माइनॉरिटी वेलफेयर डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी अब्दुल अजीज याचिका डाली।

मामला यही खत्म नहीं हुआ। आधुनिक शिक्षा के महत्व को समझते हुए साल 2019 में लखनऊ के मोहम्मद जावेद ने कोर्ट में याचिका दायर की। इसके बाद साल 2020 में रैजुल मुस्तफा ने दो याचिकाएँ लगाईं। सबसे अंत में साल 2023 में अंशुमान सिंह राठौड़ ने मदरसा शिक्षा को लेकर हाई कोर्ट में याचिका दायर की।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री ओमप्रकाश राजभर और दानिश आजाद अंसारी ने स्वागत किया। राजभर ने कहा कि देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले का वे सम्मान करते हैं। वहीं, दानिश अंसारी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश का सरकार पालन करेगी। उन्होंने कहा कि यूपी सरकार ने मदरसा शिक्षा की बेहतरी के लिए के लिए काम किया है।

योगी सरकार के मंत्रियों ने भले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है, लेकिन कानूनी पक्ष को छोड़ दें तो व्यवहारिक पक्ष में इसके कई नुकसान हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि सरकार मदरसों के प्रबंधन में दखल नहीं दे सकती, लेकिन मदरसों में क्या पढ़ाया जाए, शिक्षा का स्तर बेहतर कैसे हो, मदरसों में बच्चों को अच्छी सुविधाएँ कैसे मिलें, इन विषयों पर नियम बना सकती है।

किसी भी संस्थान की गुणवत्ता एवं उत्कृष्टता में प्रबंधन का बड़ा हाथ होता है। IIT, IIM जैसे संस्थान इसके उदाहरण हैं। अब अक्सर मदरसों का प्रबंधन अगर एक ही समुदाय के व्यक्तियों के पास रहता है, जो आधुनिक शिक्षा के बजाय दीनी शिक्षा पर ज्यादा फोकस करते हैं तो इसका सीधा प्रभाव संस्थान द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे शिक्षा पर पड़ेगा। आज जहाँ भी मदरसे दिख रहे हैं, उनमें अधिकांश में इस्लामी शिक्षा को तरजीह दी जाती है।

अगर राज्य सरकार इन मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए पाठ्यक्रम तय कर भी दे तो प्रबंधन उसे अच्छे से लागू नहीं करे तो उसका लाभ क्या बच्चों को मिल पाएगा? शायद नहीं है। इस तरह बच्चों की आधुनिक शिक्षा की बुनियाद ही कमजोर हो जाएगी। वे आगे जाकर आधुनिक शिक्षा को ग्रहण करना भी चाहें तो उनके सामने तमाम तरह की परेशानियाँ खड़ी होंगी।

सबसे महत्वपूर्ण है धर्मनिरपेक्षता की बात है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मदरसा बोर्ड धर्मनिरपेक्षता विरोधी बताया था। भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों सहित सबको अपनी धार्मिक शिक्षा लेने-देने एवं उसके लिए स्कूल-कॉलेज खोलने का अधिकार है, लेकिन मदरसा बोर्ड द्वारा राज्य बोर्ड के बराबर दर्जा एक समानांतर व्यवस्था की तरह है। आखिर एक संस्थान, जो सिर्फ अपने मजहब के लोगों को अपने मजहब से संबंधित शिक्षा देता है, उसे राज्य सरकार द्वारा अनुदान क्यों देना चाहिए, ये एक महत्वपूर्ण सवाल है।

मदरसों की हर कक्षा में इस्लाम की पढ़ाई करना जरूरी है। आधुनिक विषय या तो नहीं के बराबर पढ़ाए जाते हैं या फिर वे वैकल्पिक होतेे हैं। मदरसे में शिक्षा पाने वाले बच्चे आधुनिक शिक्षा प्रणाली के तहत डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट जैसी शिक्षा हासिल करने में पिछड़ जाते हैं। सरकार की मदद के बावजूद वे आगे चलकर अपना एवं अपने परिवार का जीवन बेहतर बनाने में पिछड़ जाते हैं।

मुस्लिमों की मदरसों की तरह ही अगर हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत आदि भी अपने-अपने धर्मशास्त्रों के अनुसार अपने समाज के बच्चों को शिक्षा देने लगे तो भारत में आधुनिक शिक्षा ह्रास सा हो जाएगा और अंततोगत्वा इसका सीधा असर देश पर पड़ेगा। इसलिए जहाँ पढ़ाई का मामला है वहाँ सभी वर्ग के लोगों को समान शिक्षा दी जानी चाहिए। धार्मिक शिक्षा परिवार का आंतरिक विषय होना चाहिए कि वो कैसे अपने बच्चों को पढ़ाए या सिखाए।

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब एक दशक पहले तक मुस्लिमों में पिछड़ापन और अशिक्षा की बात करके मुस्लिम समाज के लोग सच्चर कमिटी रिपोर्ट को लागू करने की माँग करते थे। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश रहे राजिंदर सच्चर की 2005 में गठित कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में मुस्लिम क्षेत्रों में सरकारी स्कूल खोलने और रोजगार में उनकी साझेदारी बढ़ाने की सिफारिश की थी।

मदरसों में बच्चों को बढ़ती संख्या के पीछे गरीबी और शैक्षणिक पिछड़ना है। जिन मुस्लिम परिवारों के लोग आगे बढ़ गए हैं, वे अपने बच्चों की शिक्षा मदरसों में नहीं दिलाते। वे आधुनिक शिक्षा के महत्व को बखूबी समझते हैं। पीएम मोदी और सीएम योगी ने इसके लिए कई उपाय भी किए, लेकिन दीनी शिक्षा के बल पर रोजगार पाना और सरकारी स्कूलों के बजाय मदरसों में मुस्लिम बच्चों की उपस्थिति ने इस पर पानी-सा फेर दिया है।

उत्तर प्रदेश में लगभग 16.5 हजार मदरसों में 17 लाख बच्चे पढ़ते हैं। उनके भविष्य का ख्याल रखना सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर अपील करती है तो यह मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए एक बड़ा कदम होगा। इससे मुस्लिम समाज में उच्च शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ-साथ उनके परिवार में समृद्धि भी आएगी।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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