पत्रकारिता के बारे में बात करते हुए, अधिकांश पत्रकारों या लेखकों की तरह अपनी बात को वज़नी बनाने के लिए मैं पहले ही पैराग्राफ़ में यह बता सकता हूँ कि जर्नलिज़्म शब्द की उत्पत्ति क्या है, किस तरह की थ्योरी हैं, और चार विदेशी नाम गिना कर (जिनका अमूमन कोई औचित्य नहीं) पहले ही आप पर बोझ बना दूँगा कि ये तो जानकार आदमी है, विदेशी लोगों के नाम जानता है, थ्योरी की बात करता है। लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि तर्क हों तो आप लेख की शुरुआत यूजेज एंड ग्रैटिफिकेशन थ्योरी से करें या फिर ‘लगा दिही न चोलिया के हूक राजा जी’ से, मुद्दे पर फ़र्क़ नहीं पड़ता।
पत्रकारिता के चार दौर मैं समझ सकता हूँ भारत में। स्वतंत्रता संग्राम के समय कहा जाता था कि हर क्रांतिकारी एक पत्रकार है, और हर पत्रकार क्रांतिकारी। उसके बाद आज़ाद भारत में अखबारों में एडिटर, यानी सम्पादक, हुआ करते थे जो कि मालिकाना हक़ न रखने के बावजूद पूरे अख़बार पर अपनी छाप छोड़ते थे। अक्सर साहित्य से जुड़े लोगों को, या अच्छे पत्रकार को यह ओहदा दिया जाता था। उसके बाद सीईओ वाला युग आया जिसमें अख़बार पर पहले विज्ञापन की जगह तय होती थी, फिर तथाकथित एडिटर को उसमें खबरें फ़िट करनी होती थी।
उसके बाद का जो युग है, वो आज कल का युग है जहाँ पत्रकारिता प्रतिक्रियावादी होने से लेकर निजी घृणा के रूप में अख़बारों और चैनलों के माध्यम से सोशल मीडिया और जनसामान्य तक पहुँच रही है। इस दौर में एक व्यक्ति का निजी अनुभव इस तरह से रखा जाता है मानो वो पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हो। इस दौर में ऐसे क्रांतिकारी लेख लिखे जाते हैं जिनका आधार इंटरनेट पर चल रहे किसी चैटरूम का वो कमेंट होता है जिसको लिखने वाली कोई एंजेल प्रिया हो सकती है या फिर इंग्लैंड में बैठा डिक जो खुद को तमिल ब्राह्मण बताते हुए कहता है कि वो यह मानता है कि उसकी तीक्ष्ण बुद्धि का कारण उसका तमिल ब्राह्मण होना है।
ये वही दौर है जहाँ बीबीसी जैसी रेसिस्ट और कोलोनियल विचारों वाली संस्था किसी टुटपुँजिए से लेख को होमपेज पर लीड में चलाती है जिसका मानक बस यही है कि वो किसी खास समुदाय के प्रतीक चिह्नों पर हमला बोले। ये वो दौर भी है जब एक ईको सिस्टम फर्जी खबरें न सिर्फ बनाता है बल्कि मृणाल पांडे जैसे लोगों से शेयर करवाते हुए उसे चर्चा में लाता भी है। ये वो दौर है जब ‘द हिन्दू’ जैसी संस्थाओं में उस फ़ाउंडेशन पर, कुल चार बच्चों के बयान के आधार पर, हिट जॉब किया जाता है जो हर दिन 17 लाख से ज्यादा बच्चों को भोजन देती है। और हाँ, ये वही दौर है जब तथाकथित दलितों को सड़कों पर उतार कर आगजनी और हिंसा कराई जाती है जिसकी जड़ में एक अफ़वाह होता है कि सरकार आरक्षण हटा रही है।
हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का पुराना राग जो अब दूसरा पक्ष गा रहा है
आज कल पत्रकारिता में एक और विचित्र रोग पाया जाने लगा है। जब भाजपा अपनी रैलियों में राम मंदिर की बात नहीं करती दिखती तो वो पत्रकार ही इस पर सवाल उठाते हैं जो राम मंदिर को ध्रुवीकरण का मुद्दा बताते थे। यानी, उन्हें भी यह समझ में आता है कि जब भाजपा विकास के मुद्दे पर लड़ रही है तो उसके मुद्दों को पटरी से उतारने के लिए साम्प्रदायिक टोन के साथ राम मंदिर आदि की बात को लाना कितना आवश्यक है।
कुछ ऐसा ही फिर से हो रहा है। पाँच साल की घटिया, नकारात्मक और कुत्सित कैम्पेनिंग के बाद भी मोदी और भाजपा की देशव्यापी स्वीकृति जब दिख रही है तो आग को भड़काना ज़रूरी हो गया है। दो दिन पहले भारत की, हास्यास्पद रूप से सिर्फ तीसरी, नई शिक्षा नीति का ड्राफ़्ट नए शिक्षा मंत्री के टेबल पर पहुँचा और अगली सुबह तमिलनाडु में आंदोलन का माहौल बना दिया गया कि हिन्दी को थोपने की बात की जा रही है।
484 पन्ने का ड्राफ़्ट डॉक्यूमेंट है, जिसे शायद ही किसी ने पढ़ने की कोशिश की। इसकी जड़ में एक पुराना ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ वाली फर्जी बात है जो अपनी मौत मर चुकी है। लेकिन कुछ लोग उसे माउथ-टू-माउथ दे कर वापस ज़िंदा कर रहे हैं। इसका किसी भी दक्षिणपंथ से कोई वास्ता नहीं, बल्कि मुद्दों के गौण होने पर नई अस्थिरता लाने की यह एक कोशिश है। ये कोशिश भारत की विविधता और एकता दोनों के ही दुश्मनों की साज़िश भर है।
ख़बर का तुरंत ही खंडन हो गया कि ऐसी कोई बात नहीं है कि हिन्दी को थोपा जाएगा। लेकिन पत्रकारिता का गैंग सक्रिय हो चुका है। नए दौर में पत्रकार या सम्पादक गैंग का हिस्सा होते हैं। उनका अजेंडा होता है। वो सरकारों के मंत्री तय किया करते थे, दंगे करवाया करते थे, लोगों की छवि बर्बाद करने के लिए सत्रह सालों तक लेख लिखा करते थे। ये लोग इतनी जल्दी अपनी हरकतों से बाज कैसे आएँगे!
मृणाल पांडे एक लेखिका भी हैं, और पत्रकारिता में एक जाना-माना नाम भी। आज उन्होंने दो कांड किए। खलिहर लोग ट्विटर पर कांड करते हैं, मृणाल पांडे ने भी वही किया। पहले तो एक पुराना आर्टिकल शेयर किया जो ‘मिंट’ अख़बार में किसी रौशन किशोर ने लिखा था कि कैसे हिन्दी की सांस्कृतिक हिंसा ने बिहार की भाषाओं को लील लिया, और दूसरी बार उन्होंने अपने आप को हिन्दी पत्रकार कहते हुए तमिलनाडु के किसी व्यक्ति का ‘स्टॉप हिन्दी इम्पोजिशन’ वाला ट्वीट शेयर किया। दोनों का लेना-देना हिन्दी से ही है।
How a Bihari lost his mother tongue to Hindi https://t.co/UjQrkGPD0I
— Mrinal Pande (@MrinalPande1) June 2, 2019
Languages protected by speakers,die when gen next stops using it. Why n blame community?
Folk songs for Chhath follow same rule. No Hindi songs will be found for local fests even in Bolly films.
Be a polyglot .
रौशन किशोर का लेख पूरी तरह से बकवास है क्योंकि बिहार की मूल भाषाओं- भोजपुरी, मैथिली, मगही (और उनकी कई बोलियों)- के बोलने वालों की कमी का जो दोष पत्रकार ने हिन्दी पर डाला है, वो दोष मूलतः अंग्रेज़ी और घर में अपनी ही मातृभाषा में बात करने वाले बच्चों को हेय दृष्टि से देखने वाले परिवारों का है। ये लेख इतना वाहियात है कि अपने पूर्वग्रहों या अजेंडा को थोपने के लिए लेखक ने नाहक ही हिन्दी को बिहारी भाषाओं की हत्यारिन बता दिया है।
रौशन किशोर का लेख सिर्फ काल्पनिकता पर आधारित है जहाँ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात से लेकर अगली पीढ़ी द्वारा छठ के गीतों के समझ में न आने का दोष हिन्दी पर डाला गया है। न तो राष्ट्रभाषा का कोई डिबेट हालिया दिनों में कहीं दिखा, न ही गाँव छोड़ कर शहरों में पलायन करते बिहारी लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी के अलावा किसी और भाषा में बोलते देखना पसंद करते हैं। हिन्दी स्वयं ही आठवीं तक पढ़ाई जाने लगी है और उत्तर भारत के जिस हिस्से में हिन्दी को बड़ी मछली जैसा बताया जा रहा है, वहीं के बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम में पूरी शिक्षा पाते हैं।
पलायन कर बाहर गए लोगों के बच्चों को घर के बाहर अपनी मातृभाषा बोलने का न तो अवसर मिलता है, न ही हम बिहारियों में घुसी हीन भावना उसे अपने राज्य, अपनी बोली को स्वीकारने में सहजता दे पाती है। इस कारण, अगर बिहारी भाषाएँ गायब हो रही हैं तो उसका कारण अंग्रेज़ी है, हिन्दी नहीं। अपने एडिटर द्वारा ‘यार हिन्दी पर कुछ तड़कता-भड़कता लिख दे कि मजा आ जाए’ कहने पर ‘जी सर’ कहते हुए, ऐसे वाहियात लेख लिखता हुआ बिहारी यह भूल जाता है कि बिहार के हर जिले में पिछले तीस सालों में ‘इंग्लिश मीडियम’ वाले स्कूलों की संख्या दिल्ली की गलियों में मिलने वाले मोमोज़ के दुकानों से ज़्यादा होगी।
वो यह भूल जाता है कि जिन बिहारी भाषाओं की वह बात कर रहा है, उसकी व्यवस्थित शिक्षा कभी अपनी लिपि में स्कूलों में आई ही नहीं। वो यह भूल जाता है कि पहले मायग्रेशन इतना था ही नहीं कि लोग राज्य छोड़कर दिल्ली में ही बसने लगे हों। इसलिए, अपने जिले से निकल कर ज्यादा से ज्यादा पटना पहुँचने वाला बच्चा लगातार अपनी बोली या भाषा से जुड़ा रहता था। हिन्दी का प्रयोग वो तब करता था जब उसके सामने कोई ऐसा व्यक्ति आता हो जो उसकी भाषा न समझता हो। जब आप अपने एरिया से ही बाहर चले गए, जहाँ मुहल्ले में कोई आपकी बोली बोलता नहीं, आपकी भाषा से आपको पहचान कर लालू के कारण अलग-थलग किया जाता हो, तो आप स्वयं ही अपनी पहचान छुपाने लगते हैं।
As a Hindi journalist and writer I support non Hindi speakers here. Please do not try to push Hindi by insensitive policies and vitiate the air against its practitioners. Let all Indian languages flourish as equals & allow people to choose what other languages they wish to learn. https://t.co/J0S5fYgs8Q
— Mrinal Pande (@MrinalPande1) June 1, 2019
खैर, मृणाल पांडे का दूसरा ट्वीट भी उतना ही अनावश्यक और फर्जी था, जितना पहला। ये उसी मशीनरी का हिस्सा है जो मोदी की जीत को पचाने में अक्षम है। यही कारण है कि तमिलनाडु का व्यक्ति अंग्रेज़ी में लिख कर बता रहा है कि उसे हिन्दी नहीं चाहिए, और अपने आप को हिन्दी पत्रकार कहने वाली मृणाल पांडे, बिना नई शिक्षा नीति के ड्राफ़्ट को पढ़े इस फर्जीवाड़े को प्रमोट करते हुए हीरोइन बनना चाह रही हैं क्योंकि भाजपा या मोदी के खिलाफ मुद्दे मैनुफ़ैक्चर करने के बाद, उस पर ज्ञान की बातें कहना ही तो पत्रकारिता के समुदाय विशेष में आपको लेजिटिमेसी दिलवाता है!
इसमें लिखा गया है कि प्रिय ‘हिन्दीभाषियो, तमिलनाडु में गोलगप्पे बेचने के लिए तमिल सीखो’। इस ट्वीट में हिन्दीभाषियों को नीचा दिखाया गया है कि उनका काम गोलगप्पे बेचना ही है। इस घृणा भरे ट्वीट को मृणाल पांडे जैसी लेखिका और पत्रकार सिर्फ इसलिए ट्वीट करती है क्योंकि उसने जिस व्यक्ति या पार्टी के खिलाफ जी-तोड़ कैम्पेनिंग की थी वो जीत गया!
हिन्दी को थोपना संभव नहीं है। न ही ऐसा होना चाहिए। भारत की ख़ूबसूरती इसकी विविधता है। इस विविधता को सकारात्मक रूप से एक्सप्लॉइट करने की आवश्यकता है। क्या यह अच्छा नहीं होगा कि हर राज्य में प्राइमरी से लेकर दसवीं तक दो बाहरी राज्यों की भाषाएँ पढ़ाई जाएँ? इस बात को स्वीकारने में क्या समस्या है कि तमिलनाडु के बच्चे गुजराती और पंजाबी पढ़ें, बिहार के बच्चे तेलुगु और कन्नड़ पढ़ें, उत्तर प्रदेश के बच्चे तमिल और मणिपुरी पढ़ें, असम के बच्चे मलयालम और कश्मीरी पढ़ें, पंजाब के बच्चे अरुणाचली और मैथिली पढ़ें, केरल के बच्चे बंगाली और हिन्दी पढ़ें?
लेकिन नहीं, अंग्रेज़ी पढ़ लेंगे जो ग़ुलामी की याद दिलाता रहता है, परंतु अपने ही देश की किसी भाषा को पढ़ने में साउथ और नॉर्थ का झगड़ा आ जाएगा। वही अंग्रेज़ी जो मात्र दस प्रतिशत लोगों को समझ में आती है। वही अंग्रेज़ी जो उत्तर प्रदेश से निकला टूरिस्ट केरल के बोर्ड पर देख कर समझ नहीं पाता। वही अंग्रेज़ी जो गुजरात का व्यक्ति कर्नाटक घूमते हुए इस्तेमाल नहीं कर पाता।
ये झगड़ा फर्जी है और इसे फिर से हवा देने में मृणाल पांडे जैसे पत्रकार जी-जान से माइकल बनने के लिए जुटे हुए हैं। हालात यह हैं कि अब इन लोगों को सिवाय गालियों के कुछ मिलता नहीं। ये दुःखद स्थिति है, लेकिन सत्य है। आप इस गिरोह के सदस्यों के सोशल मीडिया फ़ीड पर जाएँ तो पता चलेगा कि जो इन्हें पढ़ते हैं, उनमें से अधिकतर इन्हें लताड़ने के लिए ही आते हैं।
ये अपनी प्रासंगिकता तलाश रहे हैं। ये अपनी वास्तविकता से लड़ रहे हैं। इनकी बातों को सुनने वाला कोई नहीं है तो अब ये आग लगाना चाहते हैं। ये खुद को पत्रकार कहते हैं और पत्रकारिता के किसी भी नियम को, उसकी नैतिकता को मानने से दूर भागते हैं। क्या हिन्दी वाली बात के सत्य को जानने को लिए ड्राफ़्ट पॉलिसी को पढ़ना जरूरी नहीं था पांडे जी के लिए? शायद नहीं, क्योंकि अवॉर्ड वापसी के हुआँ-हुआँ वाले दौर में बेकार की बातों को भारत की एकता और विविधता पर पेट्रोल छींटने का काम इन पत्रकारों को लिए सहज है। वो यही कर रहे हैं, वो यही करते रहेंगे।