कोरोना संकट से समाज का कोई भी हिस्सा अप्रभावित और अछूता नहीं रहा है। इस विश्वव्यापी आपदा ने भारत में भी बाल-वृद्ध, नारी, किसान, मजदूर, व्यापारी, कर्मचारी, उद्योगपति, नौकरशाह और राजनेता आदि सभी वर्गों को बुरी तरह प्रभावित किया है। लेकिन इन सब तबकों में प्रवासी मजदूरों को सर्वाधिक दुःख और कष्ट झेलना पड़ा है।
इस बार दिल्ली, मुंबई, पुणे, सूरत जैसे रोटी और रोजगार के महानगरीय केन्द्रों से पैदल पलायन करते इन विवश प्रवासियों ने भारतवासियों की अंतरात्मा को झकझोर डाला। यह भारत-विभाजन कालीन दृश्यों की पुनरावृत्ति थी। मीडिया और सोशल मीडिया में इन दृश्यों की भरमार से सरकारें सचेत हुईं और इन अभागे और अनाथ श्रमिकों को सुरक्षित इनके गाँव-घर पहुँचाने के लिए सक्रिय हुईं।
अब यह स्पष्ट हो गया है कि कोरोना संकट अल्पकालिक आपदा नहीं, बल्कि दीर्घकालिक संकट है। इसलिए इन सरकारों की दूसरी चिंता और चुनौती घर-वापसी किए हुए अपने नागरिकों के लिए रोटी और रोजगार का जुगाड़ करना है। इसलिए पूँजी निवेश कर सकने वाले पूँजीपतियों के लिए पलक-पाँवड़े बिछाए जाने की कवायद की जा रही है।
नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना और पुरानी बंद पड़ी या बीमारू इकाइयों के परिचालन के लिए भी जतन किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, ओडिशा और गोवा आदि राज्यों की सरकारों ने अपने श्रम-कानूनों में संशोधन किया है। ये राज्य सरकारें चीन छोड़ने वाली तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों और औद्योगिक इकाइयों को आकर्षित करने की आड़ में ऐसा कर रही हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्यपाल की विशेष संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक अध्यादेश पारित कराया है, जिसके अंतर्गत करार के साथ नौकरी करने वाले लोगों को हटाने, नौकरी के दौरान हादसे का शिकार होने और समय पर वेतन देने जैसे तीन नियमों को छोड़कर अन्य सभी श्रम कानूनों को तीन वर्ष के लिए स्थगित कर दिया गया है। ये संशोधित नियम उत्तर प्रदेश राज्य में मौजूद सभी राज्य और केन्द्रीय इकाइयों पर लागू होंगे। इन नियमों से लगभग 15000 कारखाने और 8000 मैन्युफैक्चरिंग इकाइयाँ प्रभावित होंगी।
राज्य सरकार द्वारा जारी आदेश के अनुसार कोई कर्मचारी किसी भी कारखाने में प्रतिदिन 12 घंटे और सप्ताह में 72 घंटे से ज्यादा काम नहीं करेगा। इन संशोधित नियमों से पूर्व प्रतिदिन 8 घंटे और सप्ताह में 48 घंटे काम करने की ही सीमा थी। बारह घंटे की शिफ्ट के दौरान 6 घंटे के बाद 30 मिनट का ब्रेक दिया जाएगा। बारह घंटे की शिफ्ट करने वाले कर्मचारी की मजदूरी नियत दर के अनुरूप ही होगी। अर्थात् उसे कोई बोनस या भत्ता नहीं मिलेगा।
उल्लेखनीय है कि इस नियम के लागू होने से पहले 8 घंटे के बाद ओवरटाइम करने पर प्रति घंटे दोगुने वेतन का प्रावधान था। इन संशोधनों के पक्ष में राज्य सरकारों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि लॉकडाउन के परिणामस्वरूप निर्जीव हो चुकी अर्थव्यवस्था में प्राण-फूँकने, बंद पड़ी आर्थिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने और राज्य के सभी कामगारों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए श्रम कानूनों में संशोधन किया गया है।
गौरतलब यह है कि श्रम क़ानून श्रमिकों के अधिकार-पत्र हैं। वे उनके लिए सुरक्षित और गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने वाले दस्तावेज हैं। उन्हें संशोधित, स्थगित या निरस्त करना श्रमिक वर्ग की सुरक्षा, सम्मान और स्वास्थ्य के साथ समझौता करना है। यह कदम प्रतिगामी है क्योंकि श्रम-कानून बहुत लम्बे लोकतान्त्रिक संघर्ष की मानवीय उपलब्धि हैं। इसीलिए भारतीय मजदूर संघ जैसे बड़े श्रमिक संगठनों ने राज्य सरकारों के इस कदम पर कड़ी आपत्ति दर्ज की है। हालाँकि, राज्य सरकारों के इस श्रमिक विरोधी निर्णय का बहुत प्रभावी, संगठित और सक्रिय विरोध लॉकडाउन के कारण नहीं हो पा रहा है।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में धीरे-धीरे आधुनिक उद्योग शुरू हो रहे थे। उनके साथ रेलवे, पोस्ट ऑफिस और टेलीग्राम जैसी उपयोगी सेवाओं का भी विकास हो रहा था। इसी समय भारत में आधुनिक श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। इस श्रमिक वर्ग को कम मजदूरी, लम्बी कार्यावधि, असुरक्षित,असुविधाजनक और अस्वस्थ वातावरण, बालश्रम आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। यह विडंबनापूर्ण किन्तु रोचक तथ्य है कि भारत में उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की दुर्दशा में सुधार की माँग भारत में कार्यरत श्रमिक वर्ग के अंदर से नहीं, बल्कि लैंकशा (Lancashire) में कपड़ा कारखानों के मालिकों की ओर से आई।
इसके पीछे मूल कारण यह था कि सस्ते श्रम के कारण कहीं भारत के उद्योग उनके प्रतिस्पर्धी न बन जाएँ। इस आशंका के वशीभूत उन्होंने एक श्रम आयोग की नियुक्ति की माँग की, जो भारतीय उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की परिस्थितियों का अध्ययन कर सके। ऐसा प्रथम आयोग 1875 ई में गठित किया गया और इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रथम फैक्टरी अधिनियम-1881 पारित किया गया।
दूसरा फैक्टरी अधिनियम 1891 में पारित किया गया। किन्तु कड़वा सच यह है कि भारतीय श्रमिक वर्ग स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर अब तक सरकार और पूँजीपतियों के गठजोड़ स्वरूप बनने वाली अन्यायपूर्ण और शोषणकारी नीतियों का सामना कर रहा है। यह अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता से लेकर आज तक श्रमिक वर्ग की स्थिति में सुधार के लिए व्यापक स्तर पर श्रम कानूनों का सशक्तिकरण नहीं किया गया है, ताकि भारतीय श्रमिकों के आर्थिक स्तर और सामाजिक जीवन को बेहतर बनाया जा सके।
भूमण्डलीकरण तथा आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया समकालीन विश्व-व्यवस्था के ऊपर अत्यंत व्यापक एवं गहरा प्रभाव डाल रही है। भारत भी इन प्रक्रियाओं से अछूता नहीं है और इन चुनौतियों का सामना कर रहा है। सन 1991 से देश में काफी परिवर्तन हुए हैं। अधिकांश कार्यक्षेत्रों में राज्य का स्थान निजी उद्यम ले रहे हैं। भारत में 1991 के बाद अर्थव्यवस्था में कई संरचनात्मक परिवर्तनों के द्वारा उदारीकरण की प्रक्रिया का आरंभ हुआ।
तथाकथित नीतिगत सुधारों ने अर्थव्यवस्था को उदार बना दिया है। उदारीकरण की इस प्रक्रिया में अधिक निवेश आकर्षित करने की चाह में सरकारों द्वारा अपने कई कानूनों में सुधार किए गए, जिनमें श्रम कानूनों में परिवर्तन प्रमुख है। इसके पीछे यह निजी उद्यमियों को अधिक जोखिम से बचाने और उन्हें पूँजी निवेश के लिए आकर्षित करने का तर्क दिया जाता है। लेकिन सरकारें प्रक्रियागत जटिल ढाँचे और लालफीताशाही में सुधार न करके केवल श्रम कानूनों में बदलाव पर ही अधिक जोर डालती हैं जो कि ‘गुड गवर्नेंस’ और ‘रिफॉर्म्स’ का सरलीकरण है।
यह सही समय है जबकि सरकारों को उद्योग-धंधे लगाने में आने वाली तमाम नीतिगत और प्रक्रियागत अड़चनों को दूर करने की दिशा में काम करना चाहिए, न कि श्रम कानूनों संशोधन/स्थगन करना चाहिए। किसी भी देश के श्रम कानून कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच स्पष्ट और न्यायपूर्ण संबंधों को स्थापित करने पर जोर देते हैं। इन कानूनों द्वारा श्रमिकों और कारखाना मालिकों के संबंधों को ‘चैक एंड बैलेंस’ करते हुए श्रमिक वर्ग का संरक्षण सुनिश्चित किया जाता है।
श्रम कानूनों का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों के आर्थिक और सामाजिक हितों की रक्षा करना है ताकि उन्हें जीवन निर्वाह हेतु उचित मजदूरी, काम के तय घंटे, जोखिमों से सुरक्षा, स्वस्थ एवं अनुकूल वातावरण, बोनस, भत्ते इत्यादि उपलब्ध कराए जा सकें। सरप्लस उत्पादन से प्राप्त लाभ पर सिर्फ पूँजीपति का अधिकार नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें श्रमिक की भी आनुपातिक हिस्सेदारी होनी चाहिए। इस लाभ के न्यायपूर्ण वितरण का उत्तरदायित्व राज्य का है। राज्य इस उत्तरदायित्व से आँखें चुराता रहा है। इसीलिए समाज में इतनी असमानता और अन्याय है और साधन, संसाधन और सुविधाओं पर मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार है।
भारतीय संविधान द्वारा लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली के रूप में संसदीय व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। प्रत्येक लोकतंत्रीय शासन का मुख्य उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य वर्ग विशेष का हितसाधन नहीं, बल्कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को दूर करना एवं सर्वजन हिताय का काम करना होता है।
हालिया श्रम कानूनों में बदलाव राज्य सरकारों की पूँजीपतियों के प्रति सहानुभूति या उनके दबाव में काम करने की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि औद्योगिक इकाइयाँ सरकारी उपक्रमों की तुलना में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने में अधिक सक्षम और सहायक सिद्ध होती हैं और इन औद्योगिक इकाइयों को सुचारू रूप से चलायमान रखने के लिए शासन द्वारा इनके अनुरूप उचित नियम कानून बनाए जाने चाहिए। परंतु इसके लिए श्रमिकों के मानवीय हितों एवं गरिमापूर्ण जीवन के साथ समझौता नहीं किया जाना चाहिए।
अत: विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पूँजीपतियों के दबाव में आकर श्रम कानूनों को कमजोर करना उचित नहीं जान पड़ता है क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक व्यक्ति को न केवल जीवन जीने का अधिकार प्रदान किया गया है, बल्कि इसमें गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार भी शामिल है। यह अधिकार एक संवैधानिक गारंटी के रूप में राज्य के विरुद्ध प्रदान किया गया है, जिसे चाहकर भी राज्य द्वारा ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत के संविधान निर्माताओं ने औद्योगिक कर्मकारों के जीवन को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी सरकारों को प्रदान की है। इसीलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि इन लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उचित एवं उपयोगी नीति का निर्माण करे।
विकास के वर्तमान वैश्विक मापदंडों में जीडीपी वृद्धि दर सर्वप्रमुख है। दुखद पहलू यह है कि भारत भी इसी दौड़ का हिस्सा बन गया है। देश के लगभग चालीस करोड़ कामगारों की सुरक्षा और मानवीय गरिमा को संकट में डालकर जीडीपी वृद्धि दर को बढ़ाना सुखद नहीं है, क्योंकि सरकारों की प्राथमिकता में कामगारों की खुशहाली होनी चाहिए।
इस तथ्य को अनदेखा करना श्रमिकों को पूँजीपतियों की दया पर छोड़ने जैसा है। सोचनीय है कि भारत में पहले से ही श्रम कानूनों का नियोक्ताओं द्वारा ठीक से पालन नहीं किया जाता है और आए दिन होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में इन श्रम मानकों के उल्लंघन की पोल खुलती नजर आती है। वहीं, श्रम कानूनों में दी जाने वाली छूट औद्योगिक निवेश आकर्षित करने के बावजूद कामगारों को सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा के अंधकूप में धकेलने जा रही है।
इसके लिए सरकारों को एक मध्यमार्ग निकालने की आवश्यकता है ताकि पूँजीपतियों/निवेशकों और कामगारों के हितों के बीच उचित संतुलन बनाया जा सके। यूनियनबाजी और हड़ताल जैसी गतिविधियों पर तो रोक लगाई जा सकती है, किन्तु उनके श्रम-अधिकारों और शासन-प्रशासन या न्यायालय द्वारा इन अधिकारों के संरक्षण पर कोई रोक नहीं लगानी चाहिए। वर्तमान समय में अमीर और गरीब के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। एक तरफ जहाँ अमीर लगातार अमीर होता जा रहा है, वहीं, दूसरी ओर गरीब लगातार गरीब होता जा रहा है।
इस संदर्भ में संविधानशिल्पी डॉ भीमराव अंबेदकर का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है, “26 जनवरी, 1950 को हम विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमता का। इन विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन को हम कब तक बिताते चले जाएँगे? यदि हम इसका बहुत काल तक महिमा मंडन करते रहेंगे तो हम अपने राजनीतिक लोकतन्त्र को संकट में डाल देंगे। हमें इस विरोध को यथासंभव शीघ्र ही मिटा देना चाहिए, अन्यथा जो असमता से पीड़ित हैं, वे लोग इस राजनीतिक लोकतन्त्र की उस रचना का विध्वंस कर देंगे, जिसका निर्माण इस सभा ने इतने परिश्रम के साथ किया है।”
सामाजिक और आर्थिक असमानता की यह खाई भयावह रूप से बढ़ती जा रही है। इसके त्वरित निदान की आवश्यकता है। संविधान में प्रस्तावित समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की नीति का उल्लंघन करके भारत के संविधान निर्माताओं की आत्मा को अनवरत चोट पहुँचाई जा रही है। साथ ही, भारत का एक जनकल्याणकारी राज्य बनने का ध्येय भी बाधित हो रहा है। जनकल्याणकारी राज्य की प्रासंगिकता अपने नागरिकों को सामाजिक- आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने में है।
अब समय आ गया है कि सरकारें अपने सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार, भोजन का अधिकार स्वास्थ्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार प्रदान करने के साथ-साथ रोजगार का अधिकार भी सुनिश्चित करें। रोजगार का अधिकार सुनिश्चित करते समय नियोक्ता या पूँजीपति की मनमानी पर अंकुश लगाना भी सरकारों का प्राथमिक कर्तव्य है। अर्थव्यवस्था के विकास के लिए हलकान अर्थशास्त्रियों को समझना चाहिए कि श्रमिक अर्थव्यवस्था के पहिए हैं। उन्हीं के कंधों पर चलकर अर्थव्यवस्था गतिशील होती है।
कोरोना संकट के बीच ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रास्ता दिखाया है। उन्होंने 27-28 मार्च को दिल्ली से पैदल पलायन कर रहे लाखों प्रवासी मजदूरों को हजारों बसों से उनके गाँव-घर भिजवाया। इसके बाद उन्होंने कोचिंग सिटी कोटा में फँसे लाखों छात्र-छात्राओं की सुरक्षित घर-वापसी सुनिश्चित की। उनके इन प्रयासों की देखा-देखी अन्य सरकारें भी हरकत में आई। योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर बड़ी पहल करते हुए विभिन्न राज्यों और महानगरों से अपने गृह राज्य वापस लौट रहे उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूरों की ‘स्किल मैपिंग’ का महत्वाकांक्षी अभियान शुरू किया है।
उत्तर प्रदेश में घर वापसी कर रहे लाखों श्रमिकों के दुःख-दर्द निवारण और रोटी-रोजगार के प्रबंध के लिए प्रवासी आयोग का भी गठन किया जा रहा है। इन श्रमिकों का पुनर्वास और सेवा योजन करने वाले इस आयोग का नाम ‘कामगार श्रमिक (सेवा योजन एवं रोजगार ) कल्याण आयोग’ होगा। यह आयोग श्रमिकों की स्किल मैपिंग, कौशल विकास, रोजगार और सेवा योजन आदि आवश्यकताओं की चिंता एवं व्यवस्था करेगा। यह आयोग उत्तर प्रदेश की सम्पूर्ण श्रम शक्ति की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करेगा।
इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार उन्हें दुर्घटना, बीमारी और बेरोजगारी से बचाने के लिए मुफ्त और प्रभावी बीमा कवच प्रदान करेगी। नवगठित ‘कामगार श्रमिक (सेवा योजन एवं रोजगार) कल्याण आयोग’ उत्तर प्रदेश की सम्पूर्ण श्रम-शक्ति का कौशल आधारित ब्यौरा इकट्ठा (डेटाबेस तैयार) करेगा। साथ ही, अकुशल या अर्ध कुशल श्रमिकों के लिए अल्पकालिक प्रशिक्षण का प्रबंधन करते हुए उन्हें न सिर्फ रोजगार-सक्षम बनाएगा बल्कि उन्हें विभिन्न औद्योगिक इकाइयों में सेवायोजित भी कराएगा। उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के बाहर भी उनकी सामजिक सुरक्षा और गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी सुनिश्चित की जाएगी।
अब श्रमिक स्वयं विभिन्न औद्योगिक इकाइयों के स्वामियों और पूँजीपतियों के सामने रोजगार के लिए नहीं गिड़गिड़ाएँगे बल्कि उनकी ओर से राज्य सरकार सशर्त सेवायोजन करेगी ताकि उनका शोषण और उत्पीड़न न हो और उन्हें अमानवीय हालात में काम करने के लिए विवश न होना पड़े। उल्लेखनीय है कि चीन में श्रम-शक्ति की स्किल मैपिंग करते हुए डेटाबेस तैयार करने और विभिन्न औद्योगिक इकाइयों और स्थानों में आवश्यकतानुसार श्रम-शक्ति उपलब्ध कराने की ऐसी ही व्यवस्था है। यह व्यवस्था श्रम-शक्ति की माँग और आपूर्ति में संतुलन रखती है और शोषण की सम्भावना को न्यूनतम कर देती है।
इन्हीं प्रयासों की सुखद परिणति है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन, फिक्की, लघु उद्योग भारती, नेशनल रीयल एस्टेट डेवलपमेंट काउंसिल (नारडेको) आदि के साथ समझौता पत्र (MOU) हस्ताक्षरित किया है। इससे साढ़े ग्यारह लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों को रोजगार मिलेगा और उनका पुनर्वास हो सकेगा।
उल्लेखनीय है कि प्रवासी श्रमिकों के दुखों से द्रवित होकर और उत्तर प्रदेश सरकार की उपरोक्त पहल से प्रभावित होकर केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने भी असंगठित क्षेत्र के सभी कामगारों को सामाजिक सुरक्षा कवच प्रदान करने का संकल्प व्यक्त किया है। घरेलू सहायकों अर्थात कामवालियों आदि को भी इसमें शामिल किया जाएगा। इनका न सिर्फ मुफ्त बीमा कराया जाएगा बल्कि न्यूनतम वेतन और साल में एक बार घर जाने का यात्रा-व्यय भी प्रदान किया जाएगा।
असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे सभी कामगारों को ‘अनऑर्गेनाइज्ड वर्कर आइडेंटिफिकेशन नंबर (यू-विन ) देकर पंजीकृत किया जाएगा। उन्हें राज्य के इंश्योरेंश कारपोरेशन में रजिस्टर किया जाएगा तथा ईएसआईसी की भी सुविधा दी जाएगी। अब समय आ गया है कि केंद्रीय स्तर पर एक संवेदनशील, सुविचारित और प्रभावी प्रवासन नीति (माइग्रेशन पॉलिसी) बनाई जाए और प्रवासियों और उनके परिजनों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाए। अगर यह सब धरातल पर हो पाता है तो श्रमिकों की जीवन-स्थिति के गुणात्मक सुधार में कोरोना संकट की निर्णायक भूमिका मानी जाएगी।