चार वर्ष पहले हम सबने शहीद कर्नल एमएन रॉय की आँसुओं में भीगी हुई बेटी को पुलवामा में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हुए पिता को ‘सैल्युट’ कर पुष्प अर्पित करते हुए देखा था। 11 वर्ष की अल्का रॉय ने इसे ‘वॉर क्राई’ कहा था। पिता को आख़िरी विदाई देती और रो रही बिटिया के इन शब्दों ने वहाँ मौजूद सैनिकों और देशभर के लोगों को झकझोरने के साथ लोगों के अंदर जुनून का पैदा कर दिया था। सेना एक ऐसी संस्था है जिसके लिए पूरा देश एक साथ उठ खड़ा हो जाता है।
कश्मीर में पाकिस्तानी और लोकल आतंकियों द्वारा सेना और सुरक्षा बलों पर हमले होते रहे हैं। ऐसा ही एक हमला उरी में हुआ था। 2016 में जम्मू-कश्मीर के उरी सेक्टर में पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा भारतीय सेना के स्थानीय मुख्यालय पर हुए हमले पर आधारित यह फ़िल्म अब सिनेमाघरों में दर्शकों के सामने है। आदित्य धर के निर्देशन में बनी वार फ़िल्म ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ महज़ एक आम वॉर फ़िल्म नहीं बल्कि भारतीय सेना के शौर्य और साहस की अमर गाथा के रूप में उभरकर सामने आई है। जिसे देशभर के दर्शकों का बहुत प्यार और स्नेह मिल रहा है।
एक आम नागरिक होने के नाते दर्शक सिर्फ सेना के प्रयासों को सराह सकता है, उनके भाव को महसूस कर उसके ज़ेहन में सिहरन पैदा हो सकती है। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि यहीं पर मौज़ूद एक ऐसा बड़ा वर्ग पैदा हो चुका है जिसे भारतीय सेना के जज़्बों में भी राजनीति ढूँढ लेने में में गर्व महसूस होता है।
सोशल मीडिया से लेकर कुछ मीडिया समूहों में चर्चा हैं कि फ़िल्म राजनीति से प्रेरित है और इसकी रिलीज़ की टाइमिंग पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। जबकि दर्शकों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि यदि मीडिया का यह गिरोह भारतीय सेना द्वारा आतंकवादियों को उनके घरों में घुसकर सबक सिखाने के इस हौसले की सराहना नहीं कर सकता है, तो कम से कम वह इतना तो कर ही सकता है कि सेना के जज़्बे को ‘प्रोपेगेंडा’ ठहराने की मशक्कत ना करे।
पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया पर देखा गया कि यही माओवंशियों का गिरोह “आर्मी वहाँ बॉर्डर पर है और तुम यहाँ…” जैसे मुहावरे बनाकर भारतीय सेना का उपहास करता है।
माओवंशियों के इस गिरोह को समझने के लिए अगर थोड़ा ‘फ्लैशबैक’ में जाएँ तो हमें देखने को मिलता है कि वर्ष 2014 में रिलीज़ हुई विशाल भरद्वाज के निर्देशन में बनी ‘हैदर’ फ़िल्म ने चर्चा के बाज़ार को गर्म किया था। यदि हम इस फ़िल्म के बारे में इन्हीं लोगों का मत देखें तो उन्हें यह फ़िल्म कश्मीर में ‘सेना द्वारा पीड़ित समाज’ की वास्तविक तस्वीर नज़र आती है, जबकि ‘उरी’ फ़िल्म उन्हें एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा मात्र नज़र आ रही है।
हैदर फ़िल्म पर इस तथाकथित ‘लिबरल’ वर्ग के विश्लेषकों का मानना था कि कश्मीर पर ज़्यादातर फ़िल्में वहाँ के असल मुद्दों को दिखाने में विफल रही हैं जबकि हैदर फ़िल्म ने इस खालीपन को भरा है। अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्दू’ ने हैदर फ़िल्म पर लिखा था, “फ़िल्म में इससे कोई इनकार नहीं है कि कश्मीर में लापता लोगों की सामूहिक कब्रें मिली हैं।”
द गार्डियन में जैसन बर्क ने लिखा था कि ‘हैदर’ में भारतीय सेना के कैंपों में प्रताड़ित करने और भारतीय अधिकारियों द्वारा मानवाधिकारों के हनन के दूसरे तरह के मामलों को दिखाया गया है। भारद्वाज के साहसिक चित्रण को आलोचकों एवं उनके प्रशंसकों ने काफ़ी पसंद किया है। वहीं ‘फ़र्स्टपोस्ट’ ने लिखा था, “कश्मीर की असुविधाजनक राजनीति को दिखाना एक बड़ी चुनौती है, और वो भी तब जब यह मुद्दा कश्मीर की जनता और भारत के बीच तनाव के केंद्र में रहा है।”
सवाल यह है कि जब यही सिनेमा भारतीय सेना पर मानवाधिकारों के हनन का दोषारोपण करता है तब इस विशेष वर्ग को सिनेमा में ‘निर्वाण’ और ‘देशभक्ति’ नज़र आती है, लेकिन जब यही सिनेमा उरी जैसी फ़िल्म बनाकर भारतीय सेना के साहस और शौर्य का चित्रण करता है, तब इस वर्ग पर मानो तुषारापात हो जाता है और ये वर्ग बदहवास स्थिति में बयान देना शुरू कर देता है। यह देखना भी एक मज़ेदार पहलू है कि इस गिरोह को कब और किन विषयों पर आपत्ति और सहानुभूति होती है।
भारतीय सेना द्वारा ‘आतंकवादियों के मानवाधिकारों का हनन’ करने पर इस गिरोह को पीड़ा होती है, इनके हिमायती वकील रात 12 बजे इनकी फाँसी रुकवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हैं। जम्मू-कश्मीर में जब एक अलगाववादी पत्थरबाज़ फारूक अहमद डार, जिसके नाम में उसका मज़हब नहीं खोजा जाना चाहिए, को मेजर गोगोई जीप के आगे बाँधकर सबक सिखाते हैं तब इन्हें कष्ट होता है।
यही समूह इसके बाद मेजर गोगोई को अपमानित करने के लिए एक ऐसा वाकया बनाकर पेश करते हैं, जिसकी जाँच होने से पहले ही यह वर्ग न्यायाधीश की भूमिका निभाकर उनके व्यक्तिगत मामले में टाँग अड़ाकर उनके चरित्र पर सवाल लगाना शुरू कर देता है। वामपंथी मीडिया समूह ने भी भरसक प्रयास किए ताकि मेजर गोगोई के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगया जा सके। हालाँकि, बाद में Opindia द्वारा इस मामले की समीक्षा से पता चला था कि यह मेजर गोगोई का बेहद व्यक्तिगत मामला था।
इसी बीच कारगिल शहीद कैप्टन मनदीप सिंह की बेटी और लेडी श्रीराम कॉलेज की 20 वर्षीय छात्रा गुरमेहर कौर को इसी प्रोपेगेंडा-परस्त मीडिया द्वारा राष्ट्रीय सनसनी बनाकर पेश किया गया। इस गिरोह ने गुरमेहर कौर के पिता की शहादत को भुनाने तक का प्रयास किया। कुछ समय पहले ही गुरमेहर कौर एक तख्ती लिए नज़र आई थीं, जिस पर लिखा था, “मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं बल्कि युद्ध ने मारा”।
इस पर पूर्व क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग समेत कई लोगों ने उनके इस नज़रिये को लेकर उन पर कटाक्ष किया था। सहवाग ने ट्वीटर पर एक तख्ती पकड़े हुए अपनी एक तस्वीर साझा की थी, जिस पर उन्होंने लिखा था, “मैंने दो तिहरे शतक नहीं मारे, मेरे बल्ले ने मारे”। इस बुद्धिजीवी वर्ग ने इसके बाद वीरेंद्र सहवाग को सोशल मीडिया पर ‘ट्रोल’ किया और सहवाग को अपनी बात रखने के लिए माफ़ी माँगने तक के लिए मज़बूर किया। प्रश्न यह है कि क्या इस देश में इस वर्ग के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी, मानवाधिकार और स्वतंत्रता सिर्फ इकतरफ़ा काम करते हैं?
जब बात सैनिकों के मानवाधिकारों की आती है, जिन्हें रोजाना जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी पत्थरबाज़ों, उग्रवादियों, चरमपंथियों की हिंसा, आतंकवाद की आती है, तब यह वर्ग तख्तियाँ नहीं पकड़ता।
जब आतंकवादियों ने जम्मू के अखनूर में राजपुताना राइफल्स में तैनात 22 साल के लेफ्टिनेंट फ़ैयाज़ का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी थी, तब यही समूह कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है और ना ही भारतीय सेना के मानवाधिकारों और सुरक्षा को लेकर चिंतित नज़र आता है।
जब भी किसी फ़िल्म पर कोई विवाद होता है तो बचाव पक्ष बयान देकर पल्ला झाड़ लेता है कि फ़िल्म सिर्फ मनोरंजन के लिए बनाई गई है और फ़िल्मों का काम समाज-सुधार करना नहीं है। वहीं जब फ़िल्म को हिट करवाना हो तो आप समाज सुधारक की भूमिका में आ जाते हैं। कुछ ‘विचारक’ कहते हैं, फ़िल्म का मुद्दा समाज से नहीं उठाया गया था, जैसा कि हैदर फ़िल्म के विवाद के वक़्त बताया जाने लगा था कि यह मात्र शेक्सपीयर के ‘हेमलेट’ से प्रेरित है।
अपनी फ़िल्मों से अधिक से अधिक कमाई लेकर आने के लिए प्रसिद्द ‘मिस्टर परफ़ेक्शनिस्ट ख़ान’ यानि आमिर ख़ान जब ‘तारे ज़मीन पर’ जैसी फ़िल्म बनाते हैं, तब वो यह कहते हैं कि फ़िल्में समाज को प्रभावित करती हैं और यह बदलाव भी लाती हैं, लेकिन ‘PK’ फ़िल्म के बाद बयान देते हैं कि फ़िल्म का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन होता है।
इस मामले सवाल यह है कि जब फ़िल्म समाज के लिए नहीं है या यह हमारे समाज से नहीं उठाई गई है तो फिर मनोरंजन के लिए आप मंगल ग्रह का विषय क्यों नहीं उठाते या फिर अगर हमारे समाज के लिए यह फ़िल्म नहीं है तो क्या यह फ़िल्म मंगल ग्रह के प्राणियों के लिए बनाई जा रही है?
उरी फ़िल्म में भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम को जब कुछ मीडिया समूह झुठला पाने में असफल हुए तो उन्होंने फ़िल्म की समीक्षा कर अपनी तसल्ली कर डाली है, लेकिन ऑप-इंडिया के साथ पढ़िए उरी फ़िल्म की समीक्षा, जो है एकदम ‘राइट’।
उरी फ़िल्म की एकदम ‘राइट’ समीक्षा
ख़ैर, भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी उरी फ़िल्म देखते वक़्त आप उसी जज़्बात और रोमाँच का अनुभव करते हैं। फ़िल्म में डायरेक्टर आदित्य धर दर्शकों को रोमांचित करने में सफल रहते हैं। फ़िल्म की कहानी पर अधिक लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि फ़िल्म में क्या देखने को मिलने वाला है। यहीं पर डायरेक्टर की चुनौती शुरू होती है। एक ऐसी कहानी जिससे ‘सरप्राइज़ एलिमेंट’ गायब हो, उससे दर्शकों को बाँधे रखने में आदित्य कामयाब रहे हैं।
फ़िल्म का मजबूत पक्ष इसका अलग-अलग भागों में बँटा होना है। इससे दर्शक समझ सकता है कि सर्जिकल स्ट्राइक कोई खेल नहीं था जिसे आसानी से अंजाम दिया गया हो। इसके पीछे पुराने ऑपरेशन में शामिल सेना के जवान, ख़ुफ़िया एजेंसियों के बीच का तालमेल और जबरदस्त रणनीतिक सूझबूझ, शामिल रहे हैं। सेना के जवानों के परिवारों की सुरक्षा भी सरकार और ख़ुफ़िया एजेंसियों की जिम्मेदारी होती है, ये भी देखने को मिलता है।
फ़िल्म के सभी किरदार अपने रोल में फिट हैं। टीवी धारावाहिक ‘देवों के देव महादेव’ से चर्चित मोहित रैना के किरदार से दर्शक ‘कनेक्टेड’ फील करते हैं और चाहते हैं कि वे स्क्रीन पर और अधिक दिखें। NSA अजीत डोभाल के किरदार में परेश रावल खूब जमे हैं, और साबित किया है कि ‘बाबुभैया’ गुजरात में जितने परेश ‘भाई’ रावल हैं, उतने ही वो पहाड़ी अजीत डोभाल ‘भैजी’ का किरदार भी बखूबी निभा सकते हैं। यामी गौतम के कैरियर में उनका यह अभिनय ‘निख़ार’ लेकर आ सकता है।
विकी कौशल के कंधों पर फ़िल्म टिकी है और एक जाँबाज़ भारतीय सैनिक के रूप में जँचते हैं। मसान फ़िल्म में उनके अभिनय ने ही बता दिया था कि वे बॉलीवुड में लंबी पारी खेलने आए हैं। फ़िल्म में मौजूद अन्य राजनीतिक चरित्रों को पहचानना दर्शकों के लिए अधिक मुश्किल नहीं है।
फ़िल्म में लड़ाई के दृश्य हों या भावुकता के क्षण, दर्शक स्क्रीन से अपनी नजरें हटाना नहीं चाहते हैं। फ़िल्म की कसावट का ही कमाल है कि आप इंटरवल में भी थिएटर से बाहर नहीं निकलना चाहते। लड़ाई के दृश्य और VFX लाजवाब हैं। विशेष रूप से अंत में भारतीय वायु सेना का जवाबी हमला रोमांचित करता है।
फ़िल्म का संगीत इसका मजबूत पक्ष है। लड़ाई के दृश्यों में संगीत का आरोह-अवरोह और कभी अचानक से छा जाने वाली ख़ामोशी आपके रोमांच को बनाए रखती है। गोलियों के चलने की आवाजें तो सब ने बहुत सुनी होंगी, लेकिन खाली होती राइफलों के खाली कारतूसों के गिरने की आवाजें आपको अपने पैरों के पास महसूस होती हैं।
अभी तक यदि आपने फ़िल्म नहीं देखी है, तो ज़रूर देखने जाइए। बॉलीवुड में सार्थक और तकनीकी रूप से सुदृढ़ फिल्में (विशेषतः वॉर आधारित) बहुत कम बनती हैं। शहीदों की याद में ही सही, सिनेमा तक हो आइए। आप निराश नहीं होंगे।
तो मित्रो! बात सिर्फ़ इतनी-सी है कि उरी फ़िल्म को लेकर जिनमें खलबली मची है, उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक के होने पर भी सवाल उठाए थे और साक्ष्य माँगे थे। तो अपना दिन बनाइए, सिनेमा हॉल पहुँचिए, बुलंद आवाज में राष्ट्रगान गा कर अपने और पड़ोसी के रोंगटे खड़े कर आइए और फ़िल्म देख कर हमें बताइएगा जरूर कि, ‘हाऊ इज़ द जोश?’