बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का दबदबा कितना है, ये किसी से छिपा नहीं है। जिस पूर्व दिशा से सूरज उदय होता है, भारत के उसी पूर्वी हिस्से में बिहार बसा है। लेकिन इस राज्य ने विकास कम और बाहुबली नेताओं का उदय ज्यादा देखा है। वर्षों तक कितने ही दबंग इसकी मिट्टी को खून से लाल करते आ रहे हैं।
बिहार की राजनीति ने जमकर बाहुबलियों को पनाह दी है। अपनी काली करतूतों पर सफेद पोशाक का पर्दा डाल बाहुबली नेताओं की तूती बिहार की सियासत में खूब बोली है। राजनीतिक दलों ने अपने-अपने जातीय समीकरणों को साधने के लिए इन्हें दिल खोलकर अपनाया, क्योंकि ये खुद को किसी ना किसी जाति के ‘मसीहा’ के तौर में पेश करते आ रहे हैं।
अनंत सिंह, सूरजभान सिंह, सुनील पांडेय और रामा सिंह जैसे बाहुबली नेताओं के नाम से आज भी बिहार के लोगों में सिरहन पैदा हो जाती है। इन्हीं बाहुबलियों के बीच एक नाम है दबंग और पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह का, जो अभी जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। वो आजाद भारत का पहला ऐसा राजनेता है, जिसे फाँसी की सजा सुनाई गई थी लेकिन बाद में उसे उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया।
कहानी कुछ ऐसे शुरू होती है…
कोसी की धरती पर पैदा हुआ आनंद मोहन सिंह बिहार के सहरसा जिले के पचगछिया गाँव से आता है। उसके दादा राम बहादुर सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी थे। आनंद सिंह का 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान राजनीति से परिचय हुआ, जिसके कारण उसने अपना कॉलेज तक छोड़ दिया। इमरजेंसी के दौरान उसे 2 साल जेल में भी रहना पड़ा। कहा जाता है कि आनंद मोहन सिंह ने 17 साल की उम्र में ही अपना सियासी करियर शुरू कर दिया था।
स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाजवादी नेता परमेश्वर कुंवर उसके राजनीतिक गुरु थे। बिहार में राजनीति जातिगत समीकरणों और दबंगई पर चलती है। आनंद मोहन ने इसी का फायदा उठाया और राजपूत समुदाय का नेता बन गया। साल 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जब भाषण दे रहे थे तो आनंद ने उन्हें काले झंडे दिखाए थे।
आनंद मोहन सिंह 1980 में बाहुबली के तौर पर उभरा। इसी साल उसने समाजवादी क्रांति सेना की स्थापना की, जो निचली जातियों के उत्थान का मुकाबला करने के लिए बनाई गई थी। इसके बाद से तो उसका नाम अपराधियों में शुमार हो गया और वक्त-वक्त पर उनकी गिरफ्तारी पर इनाम घोषित होने लगे। उस दौरान उसने लोकसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन जीत नहीं पाया। साल 1983 में आनंद मोहन को पहली बार 3 महीने की कैद हुई थी।
राजनीति में ऐसे हुई एंट्री
साल 1990 में जनता दल (JD) ने उसे माहिषी विधानसभा सीट से मैदान में उतारा। इस दौरान उसे जीत मिली। उसने कॉन्ग्रेस के लहटन चौधरी को 62 हजार से अधिक मतों से हराया। लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक विधायक रहते हुए भी वो एक कुख्यात सांप्रदायिक गिरोह की अगुवाई कर रहा था, जिसे उसकी ‘प्राइवेट आर्मी’ कहा जाता था। ये गिरोह उन लोगों पर हमला करता था, जो आरक्षण के समर्थक थे।
आनंद मोहन की 5 बार लोकसभा सांसद रहे राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव के गैंग के साथ लंबी अदावत चली। उस वक्त कोसी के इलाके में गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। जब सत्ता में बदलाव हुआ खासकर 1990 में, तो राजपूतों का दबदबा बिहार की राजनीति में कम हो गया।
बनाई खुद की पार्टी
साल 1990 में सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश मंडल कमीशन ने की थी, जिसे जनता दल ने अपना समर्थन दिया। लेकिन आरक्षण के विरोधी आनंद मोहन को ये कदम कैसे सुहाता। उसने अपने रास्ते अलग कर लिए। साल 1993 में आनंद मोहन ने अपनी खुद की पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी (BPP) बना ली। फिर बाद में समता पार्टी से हाथ मिलाया।
उसकी पत्नी लवली आनंद ने 1994 में वैशाली लोकसभा सीट का उपचुनाव जीता। 1995 में एक वक्त ऐसा आया, जब युवाओं के बीच आनंद मोहन का नाम लालू यादव के सामने मुख्यमंत्री के तौर पर भी उभरने लगा था। 1995 में उसकी बिहार पीपुल्स पार्टी ने समता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया था।
लेकिन खुद तीन सीटों से खड़े हुए आनंद मोहन को हार मिली थी। आनंद मोहन साल 1996 के आम चुनावों में शिवहर लोकसभा सीट से खड़ा हुआ। उस वक्त आनंद मोहन जेल में था, लेकिन बावजूद इसके चुनाव जीत गया। इसके बाद 1998 के लोकसभा चुनावों में भी आनंद मोहन इसी सीट से जीता। उस वक्त वह राष्ट्रीय जनता पार्टी का उम्मीदवार था, जिसे राष्ट्रीय जनता दल ने समर्थन दिया था।
साल 1999 में आनंद मोहन का मूड बदला और बीपीपी ने लालू यादव की आरजेडी को छोड़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) का साथ पकड़ा। मगर उसे आरजेडी के अनवरुल हक ने मात दे दी। इसके बाद आनंद मोहन की बीपीपी ने कॉन्ग्रेस से हाथ मिला लिया ताकि शिवहर से फिर से चुनाव लड़ा जा सके। लेकिन कॉन्ग्रेस ने उन्हें ज्यादा भाव नहीं दिया।
दलित IAS की हत्या में हुई उम्रकैद की सजा
यूँ तो आनंद मोहन सिंह पर कई मामलों में आरोप लगे। अधिकतर मामले या तो हटा दिए गए या वो बरी हो गया। लेकिन 1994 में एक मामला ऐसा आया, जिसने न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश को हिलाकर रख दिया। 5 दिसंबर 1994 को गोपालगंज के दलित आईएएस अधिकारी जी कृष्णैया की भीड़ ने पिटाई की और गोली मारकर हत्या कर दी। जी कृष्णैया उस वक्त गोपालगंज के DM थे। इस भीड़ को आनंद मोहन ने उकसाया था। कृष्णैया तब मात्र 35 वर्ष के थे।
इस मामले में आनंद, उसकी पत्नी लवली समेत 6 लोगों को आरोपित बनाया गया था। साल 2007 में पटना हाईकोर्ट ने आनंद मोहन को दोषी ठहराया और फाँसी की सजा सुनाई। आजाद भारत में यह पहला मामला था, जिसमें एक राजनेता को मौत की सजा दी गई थी। हालाँकि 2008 में इस सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया। साल 2012 में आनंद सिंह ने सुप्रीम कोर्ट से सजा कम करने की माँग की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया।
2009 में छत्तीसगढ़ के एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि आजीवन कारावास की स्थिति में किसी सजायाफ्ता को न्यूनतम 14 साल की कैद काटनी होगी और उसे 14 साल बाद खुद-ब-खुद रिहा किए जाने का कोई अधिकार नहीं होगा। जाहिर है, आनंद मोहन का कई साल के लिए सार्वजनिक जीवन से दूर रहना तय है।
जेल में रहते हुए भी बरकरार था रसूख
आनंद मोहन और लवली आनंद की शादी 1991 में हुई थी। जेल में रहते हुए भी वो साल 2010 में अपनी पत्नी लवली को कॉन्ग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव और 2014 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़वाने में कामयाब रहा। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने दोषी करार दिए जा चुके अपराधियों के चुनाव लड़ने में रोक लगा दी हो लेकिन बिहार में आनंद मोहन का दबदबा आज भी कम नहीं हुआ है।
आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद होंगी सहरसा से RJD उम्मीदवार
बिहार में अब बाहुबलियों की राजनीतिक विरासत की कमान उनके पत्नियों और बेटे को सौंपी जा रही है। इस बार के विधानसभा के चुनाव में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद सहरसा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगी। राजद ने उनके सहरसा सीट से लड़ने पर मुहर लगा दी है। इससे पहले खबर थी कि लवली आनंद के सुपौल विधानसभा सीट से लड़ने चाह रही थी, लेकिन कॉन्ग्रेस इस सीट से पूर्व सांसद रंजीत रंजन को चुनावी मैदान में उतारना चाहती है। रंजीत रंजन पाँच बार के सांसद और बाहुबली नेता पप्पू यादव (Pappu Yadav) की पत्नी हैं।
वहीं आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद शिवहर विधानसभा सीट से राजद के ही टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। पिछले महीने ही पूर्व सांसद आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद और बेटे चेतन आनंद ने राजद की सदस्यता ग्रहण की थी।
पूर्व सांसद लवली आनंद के पति आनंद मोहन सिंह और रंजीत रंजन के पति पप्पू यादव के बीच वर्चस्व के टकराव की कहानी से पूरा बिहार वाकिफ है। दोनों के गुटों के बीच चले टकराव के चलते कोसी के इलाके में लंबे समय तक दहश्त फैली रही। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इनकी पत्नियों में से किसका पलड़ा भारी रहता है।
लवली आनंद ने अपने राजनीतिक सफर का आगाज अपने पति आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी से की थी। 1994 में वैशाली संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी किशोरी सिन्हा को मात दी थी। आनंद मोहन की तरह लवली आनंद जल्दी-जल्दी पार्टियाँ बदलती रही हैं। लवली आनंद पहली बार 1994 में उपचुनाव जीतकर सांसद बनी। इसके बाद बिहार पीपुल्स पार्टी, कॉन्ग्रेस, सपा, HAM और नीतीश कुमार के भी साथ रहकर चुनाव लड़ चुकी हैं। हालाँकि इस बार राजद में शामिल हो गई हैं।
एक समय बिहार का दिग्गज चेहरा थीं लवली आनंद
बताने की जरूरत नहीं कि शिवहर में लवली आनंद का कद किस स्तर का है। एक जमाने में जब आनंद मोहन ने अपनी पार्टी बनाई, उनकी पत्नी को सुनने के लिए रैलियों में बेतहाशा भीड़ जुटती थी। यहाँ तक कि 1995 के चुनाव में लालू यादव जैसे दिग्गज भी लवली आनंद के सामने फेल थे। 2015 में माना जा रहा था कि लंबे समय से चुनावी जीत का इंतजार कर रहे आनंद परिवार को शिवहर निराश नहीं करेगा।
गढ़ में 461 वोटों से मिली हार
लेकिन नतीजे लोगों की उम्मीदों से बिल्कुल अलग नजर आए। सैफुद्दीन ने लवली आनंद को काँटे की टक्कर दी। मतगणना खत्म होने तक सैफुद्दीन 44,576 वोट पाकर जीतने में कामयाब हुए। जबकि लवली आनंद को 44,115 वोट मिले। वो 461 मतों से अपने ही गढ़ में चुनाव हार चुकी थीं। किसी को इस बात का भरोसा नहीं हो रहा था। तीसरे नंबर पर निर्दलीय उम्मीदवार था, जिसे 22 हजार से ज्यादा वोट मिले।
अब सवाल उठता है कि क्या आनंद मोहन बिहार की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं? क्या उस नेता के लिए सारे रास्ते खत्म हो चुके हैं, जिसके लिए उसके समुदाय में अब भी सहानुभूति है? इसका जवाब हाँ में भी है और ना में भी। मोहन का राजनैतिक करियर अब खत्म हो चुका है। उसे सुनाई गई सजा उसे पहले ही चुनाव लड़ने के अयोग्य बना चुकी है।
अब, अंतिम फैसले से यह पक्का हो गया है कि वे आने वाले कई साल के लिए चुनाव प्रचार करने लायक भी नहीं रह गया है। राजनीति जैसे क्रूर पेशे में सहानुभूति अल्पजीवी होती है और वफादारी (अगर आपकी बहुत अच्छी हैसियत नहीं है) भी समय के साथ घटती चली जाती है। लेकिन बाहुबली नेताओं की बिहार में अब भी एक ब्रांड वैल्यू है।
बिहार के विषम और गुटों में बँटे समाज में, जहाँ जाति ही अक्सर राजनीति का सबसे बड़ा निर्णायक पहलू होती है, आनंद मोहन अब भी अपनी पत्नी और राजनैतिक आकाओं के लिए कुछ वोट इकट्ठा करने के लिए अपनी लाचारी की दुहाई दे सकता है। अगर उसे बिहार के राजनैतिक परिदृश्य में खुद के लिए कोई भी उम्मीद नजर आती है तो वह यह अच्छी तरह जानता होगा कि उसकी भूमिका एक मोहरे भर की ही रहेगी। वे सिर्फ भावनाओं को उकसाएगा, और उम्मीद करेगा कि आँसू वोट में बदल जाएँ। तभी तो कहते हैं कि न्याय की चक्की धीमे पीसती है पर अक्सर बेहद महीन पीसती है।