गुजराती (और गैर-गुजराती भी) पिछले 6 महीनों से एक-दूसरे से एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि इस साल क्या लग रहा है? गुजरात और देश को अब वह जवाब मिल गया है। गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी 156 सीटों के साथ जहाँ अपना गढ़ बचाने में कामयाब हो गई है। वहीं कॉन्ग्रेस गुजरात भी मात्र 17 सीटों पर सिमट गई। इसी तरह आम आदमी पार्टी के हिस्से केवल 5 सीटें आईं।
भाजपा को हराने में विफल रहा विपक्ष
गुजरात विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए अपना गढ़ बचाने और विपक्ष के लिए उसे भेदने का चुनाव था। आखिर बीजेपी जीत ही गई। यह जीत कोई साधारण जीत नहीं है, भाजपा की यह जीत ‘भूतो न भविष्यति’ वाली जीत है। दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियाँ अपने ‘बीजेपी रोको’ अभियान में पूरी तरह विफल रही हैं।
किसी सियासी पार्टी के लिए राज्य में लगातार 27 साल शासन करना और फिर चुनाव में अभूतपूर्व बहुमत हासिल करना एक असाधारण घटना है। राजनीति में ‘सत्ता विरोधी लहर’ को लेकर खूब चर्चा की जाती है। लेकिन ऐसा लगता है कि यह ‘एंटी-इनकंबेंसी’ गुजरात का रास्ता भटक चुकी है।
बीजेपी ने क्या किया?
लोगों का मानना है गुजरात में बीजेपी ने तीन दशकों में बहुत अच्छा काम किया है। इंफ्रास्ट्रक्चर, बिजली, पानी, पर्यटन स्थलों का विकास, हर क्षेत्र में काम हुआ है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी महत्वपूर्ण योगदान है। गुजरात के लोगों ने नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर जो भरोसा किया वह आज भी कायम है। यह एक बड़ी वजह है कि बीजेपी यहाँ पंचायत से लेकर विधानसभा तक के चुनाव भारी बहुमत से जीत लेती है।
वैसे देखा जाए तो 2017 के विधानसभा चुनाव वास्तव में भारतीय जनता पार्टी के लिए कठिन थे। एक तरफ पाटीदार आंदोलन जोरों पर था, दूसरे समुदाय के लोग भी आंदोलन कर रहे थे और सबसे बड़ी बात कि मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी जैसा दमदार चेहरा नहीं था। लोग नरेंद्र मोदी का विकल्प तलाश रहे थे। कॉन्ग्रेस भी पहले से कहीं ज्यादा सक्रिय हो गई थी। इन सब के बाद भी भाजपा 99 सीटों के साथ सरकार बचाने में कामयाब रही।
इस चुनाव में भाजपा के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। इन पाँच वर्षों के दौरान विभिन्न समाजों को जोड़ लिया गया। किसी तरह का आंदोलन नहीं हुआ। बाज़ी इस हद तक पलट गई कि हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर जैसे युवा नेता जो कभी भाजपा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद किया करते थे, वो इसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे।
साथ ही पिछले साल पार्टी ने मुख्यमंत्री समेत पूरे मंत्रिमंडल में फेरबदल किया था, जिसका सीधा असर अब देखने को मिला है। कोरोना के बाद उत्पन्न हुई परिस्थियों की वजह से लोग विजय रुपाणी सरकार से थोड़े असंतुष्ट थे। हालाँकि, उस वक्त कमोबेश सभी राज्यों में ऐसी ही स्थिति थी। भाजपा चाहती तो रुपाणी सरकार के साथ ही चुनावों में जा सकती थी और सत्ता कायम रख सकती थी। लेकिन पार्टी का उद्देश्य केवल सत्ता बनाए रखना नहीं था। पार्टी का जो लक्ष्य था उसे प्राप्त कर लिया गया है। भूपेंद्र पटेल सरकार ने एक साल चुपचाप काम किया, काम चलता रहा और ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे जनता नाराज हो। जिसका असर इस चुनाव के नतीजों में साफ देखने को मिला। भाजपा ने 150+ का आँकड़ा पार किया और इनमें 156 पर जीत सुनिश्चित की।
कॉन्ग्रेस का गिरता ग्राफ
2014 के आम चुनावों में बड़ा झटका लगने के बाद से कॉन्ग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है। फिर भी पार्टी ने 2017 में गुजरात लिधानसभा चुनाव में 77 सीटें जीतीं। इसके बाद भी गुजरात कॉन्ग्रेस में नेतृत्व की कमी की वजह से उसे नुकसान पहुँचा। नेतृत्व न हो तो संगठन भी गिर जाता है और संगठन न हो तो सरकार बनाना तो दूर सम्मानजनक सीट भी नहीं मिल पाता। आज के परिणाम उसी का उदाहरण हैं जिनमें पार्टी ने 17 सीटें जीती हैं।
कॉन्ग्रेस नेतृत्व ने 2017 के विधानसभा चुनाव में काफी मेहनत की थी। ऐसा लग रहा था इन चुनावों में कॉन्ग्रेस ने ज्यादा दिलचस्पी दिखाई ही नहीं। ऐसा लग रहा है कि पार्टी आलाकमान ने भी औपचारिकता भर पूरी कर ली। एक तरफ राहुल गाँधी ने प्रचार अभियान के तहत सिर्फ तीन रैलियाँ की तो बुलाए जाने के बावजूद प्रियंका गाँधी गुजरात नहीं पहुँचीं। गुजरात चुनाव के लिए कॉन्ग्रेस ने अपनी कैंपेनिंग भी काफी देरी से शुरू की जिसपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुटकी भी ली थी।
दूसरी तरफ पार्टी तब कड़ी मेहनत करती है, जब उसे लोगों से पॉजिटिव फीडबैक मिलता है। गुजरात में पार्टी का लगातार गिरता ग्राफ देख लोग समर्थन में नहीं उतरे। जहाँ कॉन्ग्रेस ने जीत हासिल की है, वहाँ उम्मीदवार मजबूत थे और अपनी लोकप्रियता और क्षमता के दम पर उन्होंने चुनाव जीता न कि पार्टी के सिंबल पर।
शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई आम आदमी पार्टी!
आम आदमी पार्टी ने 6 महीने पहले से ही गुजरात में चुनाव प्रचार शुरू कर दिया था। माहौल बनाने की शुरुआत तो एक साल पहले ही हुई थी। लेकिन पार्टी में भी वह उबाल नहीं आ सका जिससे उन्हें सम्मानजनक सीट हासिल हो सके। अंतत: उन्हें कॉन्ग्रेस का वोट काटकर ही संतोष करना पड़ा। सूरत में जहाँ पार्टी मजबूत मानी जा रही थी, कुछ खास हासिल नहीं कर पाई।
आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव में सोशल मीडिया का खूब इस्तेमाल किया, लेकिन सोशल मीडिया उन्हें चुनाव नहीं जिता सका। उनके हिस्से सिर्फ 5 सीटें आईं। चुनाव जीतने के लिए आपको मजबूत संगठन चाहिए, जमीन पर कार्यकर्ता चाहिए। ‘आप’ के पास कार्यकर्ता तो थे, लेकिन वे सोशल मीडिया पर “Only AAP” लिखने में ज्यादा व्यस्त थे। घर-घर वोट माँगने के लिए कार्यकर्ताओं की कमी ने इस चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुँचाया।
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने गुजरात में रेवड़ी वाली राजनीति करने की कोशिश की लेकिन मुफ्त के प्रलोभनों में जनता ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। दूसरी ओर दिल्ली सरकार के नेताओं पर करप्शन के आरोपों ने भी लोगों को आम आदमी पार्टी के खिलाफ वोट डालने पर मजबूर कर दिया। रही सही कसर पार्टी अध्यक्ष गोपाल इटालिया ने पूरी कर दी।
आम आदमी पार्टी में भी नेतृत्व की कमी है। गोपाल इटालिया और ईसुदान गढ़वी जैसे पार्टी के बड़े नेता अपनी सीट नहीं बचा सके। यदि मजबूत नेतृत्व न हो तो संगठन जीवित नहीं रहता, यदि रहता भी है तो लोग काम नहीं करते। संगठन खड़ा कर चलाना कोई बीजेपी से सीखे।
चुनाव में AIMIM
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM का प्रदर्शन इससे भी बुरा रहा। पार्टी ने 14 मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़ा। नतीजे भी वैसे ही आए जैसा की अनुमान लगाया जा रहा था। पार्टी सभी सीटों पर हार गई। दूसरी तरफ कई सीटों पर कॉन्ग्रेस के वोट काटे, जैसा कि पहले के चुनावों में भी होता रहा है।
कुल मिलाकर कहें तो यह चुनाव भाजपा के लिए रिकॉर्ड तोड़ने, कॉन्ग्रेस के जीवित रहने और आम आदमी पार्टी के लिए पैर जमाने का एक अवसर था। जिसमें मोदी की लोकप्रियता, तीन दशकों की मेहनत और मजबूत संगठन के दम पर बीजेपी ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। कॉन्ग्रेस अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाई और आम आदमी पार्टी भी पूरी तरह से विफल रही।