दिल्ली सीमाओं पर जुटने के लिए बेचैन किसान प्रदर्शनकारी सरकार की एक सुनने को तैयार नहीं हैं। मोदी सरकार कुछ दिन पहले उनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी का प्रस्ताव लाई थी, लेकिन कृषि संघों ने और किसानों के नेता बने बैठे लोगों ने इसे फौरन नामंजूर कर दिया। बिन ये सोचे कि इस प्रस्ताव में क्या-क्या खास चीजें थीं और उससे उन्हें क्या लाभ हो सकता था।
ऐसा करने पीछे उनकी मंशा क्या है इसे समझने के लिए पंजाब में होने वाली खेती, उसमें आने वाली लागत समेत कई चीजों को समझना जरूरी है। इनसे पता चलता है कि विविधता की ओर बढ़कर किस तरीके से किसानों का फायदा हो सकता था लेकिन वो उन कृषि संघों के जंजाल में फँसे हैं जिनका मकसद किसानों के हित में आवाज उठाना नहीं, बल्कि अपने व बिचौलियों के हित को बचाना है।
आइए, आपको सरकार की उन कोशिशों के बारे में संक्षिप्त में बताएँ जिसकी जानकारी सरकारी सूत्रों से हुई:
- 18 फरवरी 2024 को, केंद्र सरकार और पंजाब के किसान संघों के बीच बातचीत हुई। इस दौरान नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों के हित में एक अनूठा समाधान प्रस्तावित किया और कहा कि वह पंजाब के किसानों के साथ पाँच फसलों पर समझौता करने को तैयार हैं।
- सरकार द्वारा लाए गए प्रस्ताव का उद्देश्य किसानों को गेहूँ और धान से हटकर विविधता लाने में मदद करना था और इसके लिए समझौता सरकारी एजेंसियों
- (CCI, NAFED, आदि) के माध्यम से किया जाता। सबसे खास बात यह थी कि सरकार के इस प्रस्ताव में फसलों की मात्रा नहीं सीमित की गई थी।
- सूत्र कहते हैं कि पारिस्थितिक दृष्टिकोण से, यह प्रस्ताव पंजाब के लिए आदर्श था क्योंकि वहाँ भूजल स्तर चिंताजनक रूप से कम हो गया है।
डायनेमिक ग्राउंडवाटर रिसोर्सेज असेसमेंट ऑफ इंडिया-2017 रिपोर्ट में कहा गया है कि पंजाब में 138 मूल्यांकन किए गए ब्लॉकों में से 109 अतिशुष्क, दो गंभीर रूप से शुष्क, 5 अर्ध-शुष्क थे। सिर्फ इसमें केवल 22 सुरक्षित हैं। - ऐसे हाल में राज्य का कुल वार्षिक भूजल पुनर्भरण 23.93 बीसीएम आँका गया है। वहीं वार्षिक निष्कर्षण योग्य भूजल संसाधन 21.59 बीसीएम। बावजूद इसके, वार्षिक भूजल निकासी 35.78 बीसीएम थी यानी निकासी 166 फीसद थी। निकासी का यह आँकड़ा किसी भी राज्य में से सबसे अधिक है। राजस्थान में ये आँकड़ा 140 प्रतिशत से कम है।
- ऐसे में छोटे किसान के लिए, पिछले कुछ वर्षों में भूजल निकालने की लागत बढ़ गई है। अब अगर किसान उन फसलों को उगाएँ जिनमें पानी की खपत कम होती है तो इनपुट लागत अपने आप कम हो जाएगी।
- पंजाब के अधिकांश क्षेत्र में गेहूँ और धान (2020-21 में 85%) की खेती होती है। वहीं सरकार ने जिन फसलों जैसे कपास, दालों और मक्का आदि के लिए एक के लिए ऑफर दिया था, उनमें पारिस्थितिकी तंत्र (बाजार, खरीदार, रसद, इनपुट आपूर्ति, आदि) उतना महत्वपूर्ण नहीं है। बस सिर्फ सरकारी समर्थन की आवश्यकता है वो सरकार देने को तैयार है।
- फिलहाल, खेती के क्षेत्र के संदर्भ में, पंजाब में मक्का 1.5% है, कपास 3.2% है, और दालें केवल 0.4% हैं। सरकार के प्रस्ताव से किसानों को मौका मिलता कि वह इन फसलों की ओर बढ़ें और नए बाजार व खरीदारों से मिलें। खासकर निजी क्षेत्र में, जिससे उन्हें अपनी उपज बेचने के अधिक विकल्प मिलते।
- केंद्र के प्रस्ताव को अस्वीकार करके, कृषि संघों ने अपने कुछ समय के हितों के लिए पंजाब के किसानों के दीर्घकालिक हितों को दाँव पर लगा दिया है। वह किसानों को गेहूँ और धान से ऊपर उठकर कुछ नया नहीं करने दे रहे हैं। इन यूनियनों की वजह से न केवल किसानों नए बाजार में संभावनाएँ तलाशने से अछूते हैं बल्कि इनकी इसी जिद्द के कारण भूजल तनाव भी बढ़ रहा है और किसानों को इनपुट लागत भी ज्यादा आ रही है। अंततः, यह कुछ वर्षों में कुछ बेल्टों को धान और गेहूँ की खेती के लिए अनुपयुक्त बना सकता है, जिससे छोटे और सीमांत किसानों को और नुकसान होगा।
- कृषि संघ, जिनके बारे में स्थानीय रूप से जाना जाता है कि वो मुख्य रूप से आढ़तियों से बने हैं, वे अपने भारी उस कमीशन को भी प्राथमिकता दे रहे हैं जो वे एपीएमसी मंडियों में गेहूँ और धान के व्यापार से कमाते हैं। उनके लिए किसानों के हित से ज्यादा बिचौलियों का कमीशन महत्वपूर्ण है चाहे उसमें पंजाब के किसानों का नुकसान ही क्यों न होता रहे।