81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे अगले कुछ घंटों में स्पष्ट हो जाएँगे। शुरुआती रुझानों में झामुमो-कॉन्ग्रेस-राजद गठबंधन को बढ़त दिख रही है। यदि अंतिम नतीजे भी इसी तरह के रहे तो एक और राज्य भाजपा के हाथ से निकल सकता है। हालॉंकि पोस्टल बैलेट की गिनती पूरी होने के बाद रुझानों में भाजपा की सीटें धीरे-धीरे बढ़ रही है। इन सबके बीच एक सीट जिसके नतीजे को लेकर सबसे ज्यादा उत्सुकता है वह है जमशेदपुर पूर्वी सीट। यह सीट भाजपा का गढ़ रहा और खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास यहॉं से मैदान में हैं। बावजूद इसके दो कारणों से इस बार यहॉं भाजपा की राह मुश्किल मानी जा रही है।
पहला, रघुवर दास को चुनौती केवल कॉन्ग्रेस के गौरव वल्लभ से ही नहीं मिली है। इस सीट से रघुवर कैबिनेट में मंत्री रहे सरयू राय भी मैदान में हैं। राय झारखंड भाजपा के कद्दावर नेताओं में से रहे हैं और चुनाव से ऐन पहले उन्होंने अलग राह पकड़ी थी। इस इलाके में उनकी भी जबर्दस्त पकड़ मानी जाती है।
The counting of postal ballots in the Jharkhand assembly elections concludes and the EVMs have been brought in for tally.
— News18.com (@news18dotcom) December 23, 2019
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दूसरा, मुख्यमंत्रियों से झारखंड की जनता का पुराना वैर। यह दिलचस्प है कि झारखंड के 19 साल के राजनीतिक सफर में जो भी मुख्यमंत्री रहा है उसे चुनावी हार का स्वाद चखना पड़ा है। राज्य में अब तक छह मुख्यमंत्री हो चुके हैं। बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा, हेमंत सोरेन और रघुवर दास। रघुवर एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने बतौर मुख्यमंत्री पॉंच साल का कार्यकाल पूरा किया है। लेकिन, एक मिथक यह भी है कि मुख्यमंत्री के तौर पर जो भी चुनाव मैदान में गया है उसे हार भी मिली है।
Jharkhand: Poster with ‘Jharkhand ki pukar hai gathbandhan ki sarkar hai. Hemant ab ki baar hai’ seen in Ranchi. Counting of votes for #JharkhandAssemblyPolls begins at 8 am today. pic.twitter.com/903QC3Q9iC
— ANI (@ANI) December 23, 2019
शिबू सोरेन तो मुख्यमंत्री बनने के बाद विधायक तक नहीं बन पाए थे। तमाड़ में राजा पीटर ने उन्हें पटखनी दे दी थी। पिछला विधानसभा चुनाव तो पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए कब्रगाह ही साबित हुआ था। चार-चार पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव हार गए थे। मधु कोड़ा और हेमंत सोरेन चुनाव हार गए थे। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और फिलहाल केंद्र में मंत्री और तीन राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके अर्जुन मुंडा भी जीत नहीं पाए थे। माना जाता है कि खरसांवा से मुंडा की हार ने ही रघुवर दास के रूप में राज्य को पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री मिलने का रास्ता खोला था।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या इस इतिहास को रघुवर दास बदल पाएंगे? जानकार उनकी राह मुश्किल मानते हैं। जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक और जन की बात के सीईओ प्रदीप भंडारी ने ऑपइंडिया को बताया- “राज्य में एंटी इंकंबेंसी महत्वपूर्ण फैक्टर है। यदि खुद मुख्यमंत्री चुनाव हार जाएँ या बेहद मामूली अंतर से ही जीत पाएँ तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।”