Monday, November 18, 2024
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लालू को जंगलराज का दिया मौका, फिर सुशासन के लिए BJP का साथ: जॉर्ज से RCP तक कई पर किए सितम, ‘पलटू कुमार’ भी कहलाते हैं नीतीश

जो नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के हिंदुत्व से खुद को अलग दिखाने के लिए भाजपा से नाता तोड़ लेते हैं, वही हिंदुत्व के फायरब्रांड की छवि रखने वाले योगी आदित्यनाथ के शपथग्रहण समारोह में शामिल होते हैं। कभी लालू के साथ होते हैं, कभी विरोधी। कभी जॉर्ज-RCP-शरद-ललन को अध्यक्ष बनाते हैं, कभी दुश्मनी करते हैं।

बिहार की राजनीति में एक बार फिर से हलचल तेज़ हो गई है। जैसा कि पिछले 17 वर्षों से होता आया है, इस उथल-पुथल के केंद्र में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। पिछले 17 वर्षों से सत्ता पर उनका ही कब्ज़ा है। इसके साथ ही मीडिया में सूत्रों का खेल भी शुरू हो गया है। कहीं कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार और सोनिया गाँधी में हाल ही में लंबी बातचीत हुई है, तो कोई जदयू प्रदेश अध्यक्ष की राजद सुप्रीमो लालू यादव से मुलाकात के दावे कर रहा है।

नीति आयोग की बैठक से नदारद रहने के बाद ही नीतीश कुमार को लेकर कयास लगने शुरू हो गए थे कि क्या वो अब फिर से पलटी मारेंगे? एक तरफ जदयू नेता उपेंद्र कुशवाहा कह रहे हैं कि गठबंधन में सब ठीक है और केंद्र की हर बैठक का हिस्सा होना ज़रूरी नहीं है, तो दूसरी तरफ जदयू अध्यक्ष ललन सिंह कह रहे हैं कि कहाँ से जदयू को तोड़ने का षड्यंत्र हुआ और किसने खुलासा किया, ये सब सामने आएगा। कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही नीतीश कुमार बेचैन हैं।

उन्हें डर है कि कहीं बिहार में भी कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र न दोहरा दिया जाए। हालाँकि, राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि वो हमेशा दो दरवाजे खोल कर रखते हैं और दबाव से बचने के लिए किसी भी तरफ झुकने का रास्ता खुला रखते हैं। शायद यही कारण है कि कभी विधायक और सांसद का चुनाव हारने के बावजूद लगभग 2 दशक से बिहार की राजनीति उनके ही इर्दगिर्द घूम रही है।

नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर नजर डालें तो उन्होंने सबसे ताज़ा पलटी तब मारी थी, जब राजद के साथ उन्होंने गठबंधन तोड़ कर भाजपा के साथ हाथ मिला लिया और मुख्यमंत्री बने रहे। इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका स्टैंड बताते हुए भले ही प्रचारित किया गया हो, लेकिन क्या उन्हें लालू यादव के परिवार के बारे में जुलाई 2017 से पहले कुछ भी नहीं पता था? 20 वर्षों में 7 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नीतीश कुमार को तभी उनके विरोधी ‘पलटूराम’ कह कर सम्बोधित करते रहे हैं।

नीतीश कुमार की चुनावी शुरुआत अच्छी नहीं रही थी और उन्हें लगातार तीन बार विधायकी के चुनाव में हार के सामना करना पड़ा। आखिरकार उन्होंने 1985 में जीत का स्वाद चखा और नालंदा के हरनौत से ‘लोक दल’ के टिकट पर जीत दर्ज की। उससे पहले 80 के दशक के अंत में जब ‘जनता पार्टी’ टूटी थी, तब नीतीश कुमार सत्येंद्र नारायण सिन्हा के साथ हो लिए। लेकिन, उस दौरान भी वो किशन पटनायक के नेतृत्व वाले ‘लोहिया विचार मंच’ से जुड़े रहे थे।

उसी समय से उन्होंने दो तरफ वाली राजनीति खेलनी शुरू कर दी थी। पहली बार विधायक का चुनाव जीतने के 4 वर्षों बाद ही वो बाढ़ से सांसद भी निर्वाचित हो गए। ये वो दौर था, जब बिहार में लालू यादव का कद बढ़ता ही जा रहा था और अंततः वो मुख्यमंत्री के पद तक पहुँचे। लालू यादव को मुख्यमंत्री बनाने में नीतीश कुमार का भी योगदान था। ‘जनता पार्टी’ के भीतर उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में लालू यादव का समर्थन किया था।

हालाँकि, इसके कुछ ही वर्षों बाद लालू यादव से उनकी दूरी बढ़ती ही चली गई। 90 के दशक के मध्य में जब समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने समता पार्टी का गठन किया तो नीतीश कुमार उनके साथ हो लिए। फिर उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन किया और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल, सड़क परिवहन और फिर कृषि जैसे मंत्रालय सँभाले। 1994 में समता पार्टी के गठन के 9 साल बाद उन्होंने 2003 में जदयू बनाई।

नीतीश कुमार भले ही खुद को जातिवाद का विरोधी बताते हों और इससे खुद को अलग रखने की बातें करते हों, लेकिन ये भी जानने लायक बात है कि उन्होंने बिहार में अपना राजनीतिक दबदबा कायम करने के लिए एक जातीय रैली का ही सहारा लिया था। फरवरी 1994 की उस रैली को उन्हें लालू विरोध का मुख्य चेहरा बनाने के श्रेय जाता है। इसका नाम था ‘कुर्मी चेतना महारैली’, जिसमें पहले तो नीतीश कुमार शामिल नहीं होना चाहते थे लेकिन फिर पलट गए।

विधायक रहे सतीश कुमार सिंह के आग्रह के बाद उन्होंने इस रैली में शामिल होने के लिए हामी भर दी। कहते हैं, इस रैली में उनके शामिल होने के बाद से ही कुर्मी-कोइरी समाज उनके पीछे लामबंद होना शुरू हो गया और लालू यादव विरोधी राजनीति तेज़ होती चली गई। जदयू और समता पार्टी के बीच की भी एक कहानी है। जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने समता पार्टी का विलय शरद यादव के ‘जनता दल’ वाले धड़े में कर दिया था।

2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने और भाजपा के सहयोग से उन्होंने सरकार चलाना शुरू किया। अपराध पर अंकुश से लेकर विकास परियोजनाओं तक, इस गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल की खासी सराहना हुई। लेकिन, भाजपा के साथ रहते हुए नीतीश कुमार ने 2010 में भाजपा नेताओं को दिया भोज रद्द कर दिया था। कारण – तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी के साथ उनकी एक तस्वीर अख़बारों में छप गई थी।

लुधियाना की उस रैली में नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार का हाथ पकड़ कर उठा दिया था और जनता को सन्देश दिया था कि दोनों में अच्छे रिश्ते हैं, लेकिन इससे नीतीश भड़क गए। हिंदुत्व से खुद को अलग दिखाने की कोशिश में नीतीश कुमार ने भाजपा नेताओं को दिया रात्रिभोज रद्द कर दिया, जबकि इसके कटआउट्स पूरे पटना में लग गए थे। भाजपा नेताओं को शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ी। इतना ही नहीं, बाढ़ राहत कार्य के लिए गुजरार सरकार द्वारा दी गई मदद राशि भी उन्होंने लौटा दी थी।

इसके बावजूद नीतीश कुमार भाजपा के साथ सत्ता में बने रहे। लेकिन, हिंदुत्व विरोधी कीड़े ने उन्हें ऐसा काटा कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के साथ ही उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया और बाहर से राजद के समर्थन से मुख्यमंत्री बन बैठे। जब 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू की बुरी हार हुई और मोदी पीएम बन गए, तब नीतीश कुमार ने नैतिक जिम्मेदारी की बातें करते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया

लेकिन, उन्होंने अपने बदले जिन जीतन राम माँझी को पद पर बिठाया, उनके साथ उनके रिश्ते कुछ ही दिन बाद बिगड़ने लगे। फिर उन्होंने माँझी को हटा दिया और खुद मुख्यमंत्री बन बैठे। 2015 का चुनाव उन्होंने राजद-कॉन्ग्रेस के साथ मिल कर लड़ा और जीत दर्ज की। लेकिन, 3 साल सरकार चलाने के बाद उन्हें राजद फिर से भ्रष्टाचारी लगने लगी और उन्होंने भाजपा से हाथ मिला लिया। 2020 का चुनाव भाजपा के साथ लड़ कर उन्होंने जीत दर्ज की और फिर मुख्यमंत्री बने।

अब 2 साल सरकार चलाने के बाद उन्हें फिर से भाजपा बुरी लगने लगी है और वो एक बार फिर से राजद को डोरे डाल रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो ये कि जिन रामचंद्र प्रसाद सिंह के कारण ये पूरा बखेड़ा खड़ा हुआ है, वो उनके ही विश्वस्त हुआ करते थे। केंद्रीय मंत्री के कार्यकाल के दौरान RCP सिंह उनके सचिव थे। उन्हें समय-पूर्व रिटायर करा कर राजनीति में लाने के श्रेय भी नीतीश कुमार को ही जाता है। उन्होंने RCP सिंह को केंद्रीय मंत्री तक बनवा दिया।

नीतीश कुमार ने पहले मोदी मंत्रिमंडल में जदयू को शामिल किया, लेकिन फिर ऐलान करवा दिया कि जदयू अब मोदी मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं रहेगा। आज RCP सिंह नीतीश कुमार के दुश्मन नंबर एक हैं। वैसे जदयू अध्यक्षों के साथ उनकी दुश्मनी नई नहीं है। जॉर्ज फर्नांडिस को उन्होंने ही जदयू का अध्यक्ष बनाया, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के एक साल के बाद ही उनसे ये पद चीन लिया। इतना ही नहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव में उनका टिकट भी काट दिया।

फिर नीतीश कुमार ने शरद यादव को जदयू के अध्यक्ष का पद दिया। कुछ सालों बाद उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा कर खुद जदयू अध्यक्ष बन बैठे। उनका आवास भी छीन लिया। फिर RCP सिंह का भी वही हाल हुआ। मौजूदा जदयू अध्यक्ष ललन सिंह भले आज उनके विश्वासपात्र हों, लेकिन बीच में दोनों के बीच दुश्मनी हो गई थी। 2009 में उन्होंने ललन सिंह को पार्टी से निकाल दिया था। फिर दोनों दोस्त बन गए और ललन सिंह को मंत्री पद मिला।

जो नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के हिंदुत्व से खुद को अलग दिखाने के लिए भाजपा से नाता तोड़ लेते हैं, वही हिंदुत्व के फायरब्रांड की छवि रखने वाले योगी आदित्यनाथ के शपथग्रहण समारोह में शामिल होते हैं। कभी लालू के साथ होते हैं, कभी विरोधी। कभी जॉर्ज-RCP-शरद-ललन को अध्यक्ष बनाते हैं, कभी दुश्मनी करते हैं। कभी केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा बनते हैं, कभी नहीं बनते हैं। कभी जीतन राम माँझी को सीएम बना देते हैं, फिर उनसे छीन भी लेते हैं।

प्रशांत किशोर भी इसके गवाह हैं। कभी उनके सबसे बड़े विश्वस्त हुआ करते थे और जदयू की सदस्यता के साथ-साथ मंत्री का दर्जा तक मिल गया था, लेकिन फिर उन्हें भी बाहर का रास्ता देखना पड़ा। बिहार में तो प्रशांत किशोर के एक घर को भी अवैध निर्माण बताते हुए ध्वस्त कर दिया गया। नीतीश कुमार ने जिसे भी अपना विश्वस्त बनाया, उसे बाहर का रास्ता भी दिखाया ही दिखाया। अब देखना है कि उनका ताज़ा फैसला क्या होता है।

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