लालू प्रसाद यादव के 15 साल के जंगलराज के दौरान अगर बिहार का सबसे ज्यादा किसी क्षेत्र में नुकसान हुआ, तो वो है – शिक्षा। शिक्षा के क्षेत्र में बिहार इतना पीछे चला गया, जिसकी कीमत उसे आज तक भुगतनी पड़ रही है। उस दौरान लालू यादव ने लाइमलाइट के लिए ‘चरवाहा विद्यालय’ जैसे प्रयोग तो किए, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं हुआ। हाँ, बिहार की साक्षरता दर ज़रूर पानी माँगती हुई नज़र आई।
बिहार में मुजफ्फरपुर स्थित तुर्की में लालू यादव ने पहले ‘चरवाहा विद्यालय’ का उद्घाटन किया था। आज भी जाकर अगर आप इसकी हालत देखें तो आपको तरस आएगा। लालू यादव ने दावा किया था कि मवेशी चराने वाले बच्चे यहाँ पढ़ेंगे। लेकिन, वो इसका जवाब नहीं दे पाए कि आखिर बच्चे गाय-भैंस-बकरी चराएँगे ही क्यों? बच्चे सिर्फ शिक्षा क्यों नहीं लेंगे? सरकार का दावा था कि मवेशी चराने वाले बच्चे अपने जानवरों को आसपास छोड़ कर इस विद्यालय में पढ़ेंगे।
इसके लिए शिक्षकों की भी तैनाती की गई थी। लालू यादव द्वारा इसका उद्घाटन सुर्खियाँ भी बना था। गोपालगंज से लेकर गोरौल तक, हर जगह चरवाहा विद्यालय खुले। एक तरह से लालू यादव की सरकार ने बच्चों के मवेशी चराने को मान्यता दे दी और ये धारणा बना दी कि शिक्षा ज़रूरी हो या नहीं, लेकिन उनका मवेशी चराना ज़रूरी है। साथ ही उन्हें ज़िंदगी भर के लिए ‘चरवाहा’ के रूप में सीमित रखने का प्रयास किया।
लालू यादव ने ‘ओ गाय चराने वालों, भैंस चराने वालों.. पढ़ना-लिखना सीखो।‘ नारे के साथ बिहार या भारत ही नहीं बल्कि देश से बाहर भी अपनी सुधारवादी छवि बनाने की कोशिश की और 1-2 वर्षों तक तो सब ठीक रहा, लेकिन उसके बाद न तो शिक्षकों का कोई अता-पता था और न ही छात्रों का। जिन छात्रों को गाय-भैंस चराने को कहा जाए और साथ ही चारा काट कर ले जाने की ड्यूटी भी हो, वो भला पढ़ेंगे कैसे?
उनकी शिक्षा के लिए अगर पहले से ही मौजूद विद्यालयों को संसाधन-संपन्न बनाया गया होता, या फिर नए भवन बनवा कर अच्छे शिक्षकों की भर्तियाँ होती, तो शायद बात बन सकती थी। बच्चों को आर्थिक सहायता दी जाती पढ़ने के लिए, तो तस्वीर दूसरी होती। लेकिन, लालू यादव को खबर बनवानी थी। मुजफ्फरपुर में ‘चरवाहा विद्यालय’ के लिए 25 एकड़ की भूमि दी गई थी और इसका उद्घाटन दिसंबर 23, 1991 में हुई थी।
वहीं जनवरी 15, 1992 से ये विद्यालय चालू हो गया था। विद्यालय में 5 शिक्षक, ‘नेहरू युवा केंद्र’ के 5 स्वयंसेवी और इतने ही एजुकेशन इंस्ट्रक्टर्स की तैनाती की गई थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका इतना प्रचार किया गया था कि अमेरिका और जापान तक से टीमों को बुला कर यहाँ घुमाया गया था। लालू यादव हमेशा से मार्केटिंग को लेकर नए तरकीब निकालते रहे हैं, ताकि वो चर्चा में बने रहें। अपने रेल मंत्रित्व काल में भी उन्होंने यही किया।
उनके रेल मंत्री रहते रेलवे के मुनाफे के किस्से दुनिया भर में मशहूर हुए। उन्होंने खुद की ‘मैनेजमेंट गुरु’ की छवि बना दी और तमाम घोटालों और 15 साल के जंगलराज के बावजूद सफ़ेद कुर्ते-पाजामे और संसद में मजाकिया बयान दे-दे कर उन्होंने मीडिया में अपनी छवि चमकाई। जबकि हुआ ये था कि लालू के दौर में रेल के पास कैश सरप्लस (नकद अधिशेष) 88,669 करोड़ रुपए बताया गया और मीडिया में इसकी खूब वाहवाही ली गई।
जबकि असलियत यह है कि ये राशि 39,411 करोड़ रुपए थी। यूपीए-2 के दौरान रेल मंत्री बनीं ममता बनर्जी ने ‘लालू के रेल’ की पोल खोली। सोचिए, एक सरकार अपने ही पिछले कार्यकाल के एक मंत्री की असलियत को सामने लाने के लिए ‘श्वेत पत्र’ लाने को विवश हो गई। एकाउंटिंग (लेखा परीक्षा) के उस वक़्त जो नियम-कायदे थे, उन्हें ही बदल डाला गया। कुछ यही हाल लालू यादव ने 15 सालों में बिहार की शिक्षा का भी किया था।
इसी तरह चरवाहा स्कूल को चलाने की जिम्मेदारी कृषि, सिंचाई, उद्योग, पशु पालन, ग्रामीण विकास और शिक्षा विभाग को दी गई थी। अब आप सोचिए, 6 विभागों को एक विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी दी गई, वो भी उस बिहार में, जहाँ भ्रष्टाचार चरम पर था। फंड्स कौन से विभाग में कहाँ अटके रहेंगे और फाइलें कितने समय में एक दफ्तर से दूसरे तक का समय तय करेंगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।
लेकिन, वो तो लालू यादव थे। उन्होंने बच्चों को मध्याह्न भोजन, दो पोशाकें, किताबें और मासिक छात्रवृत्ति के रूप में 9 रुपए देने की घोषणा की थी। भले ही आज से 30 वर्ष पहले 9 रुपए की वैल्यू ज्यादा रही होगी, लेकिन क्या इतने कम की छात्रवृत्ति से बच्चे पढ़ सकते हैं? एक सुस्त प्रशासन के सुस्त अधिकारियों को एक नकारे राजनीतिक नेतृत्व के अंदर उन्हें काम करना था, जो संभव नहीं हो पाया।
नीतीश जी बिहार में शिक्षा की अहमियत जानते हैं इस वजह से आज हर गांव में स्कूल है। हमने बालिकाओं के लिए पोशाक, साइकिल, आर्थिक सहायता दी। अब बिहार में उच्च स्तरीय शैक्षणिक संस्थानों की भरमार है। आप लोगों ने तो सिर्फ़ चरवाहा विद्यालय खोलने का काम किया था। तब ये बातें कहां गई थीं? https://t.co/QioEJ6OzHm
— Janata Dal (United) (@Jduonline) October 16, 2020
बाद में राजद कहने लगी कि बाहर के लोगों ने इसकी खूब तारीफ की लेकिन यहाँ के लोगों ने इस इस कदम को बदनाम किया, दुष्प्रचार किया। उस समय लालू यादव के साथ रहे जीतन राम माँझी, जो बाद में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने, ने बीबीसी को बताया था कि ये एक ‘आईवॉश’ था, जिसका कोई व्यावहारिक लक्ष्य नहीं था और लालू यादव ने समाज को बेवकूफ बनाया। सब उनसे स्कूल-कॉलेज खोलने को कहते रहे और वो नज़रअंदाज़ करते रहे।
लालू यादव इसकी चर्चा के बाद बिहार में ‘पहलवान विद्यालय’ खोलने की बातें करने लगे, जहाँ उनके हिसाब से पढ़ाई के साथ-साथ लड़ाई (कुश्ती) भी होगी। राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (SCIRT) ने अपने सर्वे में पाया था कि ये सभी विद्यालय जुआ, शराब और ताश खेलने वालों के अड्डे बन गए थे। लालू यादव 113 ‘चरवाहा विद्यालय’ खोलने की योजना बनाई थी। उन्होंने भोजपुरी में क्लास भी ली थी।
इस दौरान भी लालू यादव बच्चों को सलाह देते रहे कि वो अपने जमींदारों को ‘मालिक’ कहना छोड़ें, जो अच्छी बात है, लेकिन, वो खुद पूरे बिहार का ‘मालिक’ बन कर समाज को नियंत्रण में रखना चाहते थे। तभी तो आज भी जब राजद नेताओं और लालू यादव के सुपुत्रों से पूछा जाता है कि उन 15 सालों में क्या हुआ तो वो कहते नहीं थकते कि ‘सामाजिक न्याय’ हुआ। हालाँकि, ये क्या है, ये वो लोग आज तक नहीं समझा पाए।