गुजरात में ‘सुफलाम शाला विकास संकुल’ द्वारा संचालित एक विद्यालय ने 9वीं कक्षा के इंटरनल परीक्षा में पूछा गया कि महात्मा गाँधी ने आत्महत्या करने के लिए क्या किया था? जब मीडिया में इसे लेकर हंगामा मचाया गया, तभी हमें लगा कि कुछ गड़बड़ है क्योंकि कोई भी स्कूल ऐसा सवाल क्यों पूछेगा? यह भी संभावना थी कि मीडिया ने सवाल को ग़लत तरीके से पेश किया हो क्योंकि गुजराती से अंग्रेजी अनुवाद में दिक्कत आ सकती है। गुजरात सरकार ने स्कूल को नोटिस भेजने के साथ-साथ प्रश्नपत्र सेट करने वाले शिक्षक के ख़िलाफ़ भी जाँच बिठा दी है। क्या गुजरात सरकार ने सिर्फ़ मीडिया रिपोर्ट्स को आधार बना कर कार्रवाई कर दिया?
असल में जब प्रश्नपत्र में हमारी नज़र पड़ी तो पता चला कि सच में ऐसा पूछा गया था। हालाँकि, ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि महात्मा गाँधी ने आत्महत्या नहीं की थी, उनकी हत्या हुई थी। स्कूल ने अपना बचाव करते हुए कहा कि गुजरात की सरकारी पुस्तकों में इसका विवरण है कि कैसे गाँधी ने कभी आत्महत्या करने की ‘सोची’ थी और इसीलिए इस प्रश्न को पूछा गया। स्कूल के ट्रस्ट संयोजन ने कहा कि उक्त सवाल में कुछ भी ग़लत नहीं है और गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में भी इस बात का जिक्र किया है कि उन्होंने कैसे आत्महत्या करने का प्रयास किया था?
महात्मा गाँधी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में इस बात का जिक्र किया है कि कैसे उन्होंने एक बार आत्महत्या की सोची थी और इसका प्रयास भी किया था। पढ़िए उनकी पुस्तक का वो अंश उनकी ही शब्दों में:
“अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लगा। हमारे पास पैसे नहीं थे। हम दोनों में से किसी का यह ख्याल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा है। पर गंध में भी आनंद नहीं आता था। हमें लगा सिर्फ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मजा है। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुआँ उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूकने की इच्छा हुई।”
“गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूँठ फेंक देते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया। पर बीड़ी के ये ठूँठ हर समय मिल नहीं सकते थे और उनमें से बहुत धुआँ भी नहीं निकलता था। हमने इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों में से एकाध पैसा चुराने की आदत डाली। हम बीड़ी खरीदने लगे। पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखे कहाँ? हम जानते थे कि बड़ों के देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया। इसी बीच सुना कि एक पौधा होता है जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं। फूँके जा सकते हैं। हमने फिर उन्हें खोजा और फूँकने लगे।
“हमें दुख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते। हम उब गये। हमने आत्महत्या करने का फैसला कर किया। पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दे? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है। हम जंगल में जाकर बीज ले आए। शाम का समय तय किया।”
“केदारनाथजी के मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किए और एकांत खोज लिया। पर जहर खाने की हिम्मत न हुई। अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न ये सब सह ही लिया जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने की हिम्मत ही ना हुई। दोनों मौत से डरे… यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर जाकर दर्शन करके शांत हो जाएँ और आत्महत्या की बात भूल जाएँ।”
इस घटना के बाद से महात्मा गाँधी और उनके मित्र ने स्मोकिंग छोड़ दी। महात्मा गाँधी को आगे जाकर देशसेवा के लिए काफ़ी-कुछ करना था और नियति को भी यही मंजूर था। आज गुजरात के उक्त स्कूल के सवाल पर बवाल मचा हुआ है, इस प्रकरण को याद करना ज़रूरी है।