17 जुलाई 1953, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के बंदरगाह पर सरगर्मियाँ तेज थीं। पोलैंड के एक जहाज पर धड़ाधड़ कुछ सामान चढ़ाया जा रहा था। यह जहाज पहले श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो जाने वाला था, कोलम्बो से होकर यह चीन के टाकू बार पहुँचता। लेकिन इस जहाज पर कुछ ऐसा रख दिया गया कि एक एक सप्ताह के भीतर ही इस जहाज को समंदर में रोकने के लिए अमेरिका के राजनयिक दिल्ली की गलियों के चक्कर काटने लगे।
दरअसल, इस जहाज में 2,248 पाउंड थोरियम नाइट्रेट मुंबई में लोड किया गया था। यह वही थोरियम है जिसका उपयोग परमाणु बम बनाने में होता है। थोरियम नाइट्रेट को भारत की सरकारी कम्पनी इंडियन रेयर अर्थ मैटेरियल लिमिटेड (IREL) ने चीन को ₹40,500 में बेचा था। यह कम्पनी भारत में खनन का काम करती थी। तब तक भारत चीन युद्ध नहीं हुआ था और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चीन को अच्छा दोस्त मानते हुए परमाणु बम बनाने का सामान बेचने की अनुमति दे रहे थे।
जब यह जहाज भारत से निकल कर कोलम्बो के रास्ते में था तब 21 जुलाई, 1953 को अमेरिका को इसका पता चला। और दिल्ली से लेकर वाशिंगटन तक अमेरिकी राजनयिकों में भगदड़ मच गई।
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन फोस्टर डलेस ने तुरंत 24 जुलाई, 1953 को भारत में अपने राजदूत जॉर्ज एलन को पत्र लिखा। फोस्टर ने कहा कि भारत की नेहरू सरकार ने यह परमाणु पदार्थ बेचने की अनुमति दी है तो स्थिति बहुत गंभीर है। उन्होंने अपने राजदूत एलन से कहा कि तुरंत भारत सरकार को इसके लिए राजी करो कि यह जहाज कोलम्बो से आगे ना जाने पाए।
पत्र मिलने के तुरंत बाद अमेरिकी राजदूत एलन ने भारतीय विदेश सचिव आर के नेहरू के पास इस संबंध में जानकारी भिजवाई। इस बीच अमेरिकी राजदूत एलन भारत के वित्त मंत्री चिंतामन देशमुख से भी मिल आए थे। आर के नेहरू का कहना था कि प्रधानमंत्री नेहरु ही अब इस जहाज को कोलम्बो में रोक सकते हैं।
अमेरिका ने इस जहाज को रोकने की अपील के साथ ही नेहरू सरकार को एक धमकी भी हल्के शब्दों में दे डाली। अमेरिका ने कहा कि यदि भारत यह जहाज नहीं रोकता और कम्युनिस्ट तानाशाही वाले चीन को परमाणु पदार्थ की आपूर्ति करता है तो वह भारत को दी जाने वाली मदद रोक सकता है।
तब की स्थितियों को देखते हुए भारत के लिए अमेरिका की यह मदद काफी जरूरी थी क्योंकि देश को आजाद हुए मात्र 6 वर्ष हुए थे और उसे विकास के लिए सहायता चाहिए थी। तब के समय में गेंहू तक विदेशों से आता था।
जब कहने से कुछ नहीं बन सका तो राजदूत एलन खुद 28 जुलाई 1953 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से शाम 6 बजे मिले। उन्होंने इस पूरी मुलाकात की जानकारी अपने देश के विदेश विभाग को एक टेलीग्राम के माध्यम से भेजी।
एलन ने बताया कि मैं शाम को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिला था और मैंने उनसे इस विषय की गंभीरता पर बात भी की। जवाहर लाल नेहरु ने इस पर जवाब दिया कि अगर भारत सरकार चाहे तो भी वह इस जहाज को नहीं रोक सकती।
नेहरू ने कहा कि यह थोरियम नाइट्रेट एक विदेशी जहाज पर लदा हुआ है जो कि एक विदेश के बंदरगाह में है। नेहरू ने यह कह कर भी अपनी असमर्थता जता दी कि अगर भारत सरकार ऐसा एक्शन लेती है तो उसके चीन से रिश्ते खराब हो जाएँगे। नेहरु ने इसे असंभव काम बताते हुए एलन को मना कर दिया।
एलन ने अपने देश में बताया कि आखिरी बार पूछने पर नेहरू ने कहा कि इस सम्बन्ध में कुछ नहीं हो सकता है। आगे ऐसी घटना ना हो इसके लिए अमेरिका को भारत के साथ ऐसे पदार्थों की खरीद बिक्री के लिए समझौता करना पड़ेगा।
दरअसल, नेहरू उस दौरान चीन के साथ अच्छे संबंधों पर जोर देते थे। चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही स्थापित हो चुकी थी और वह लगातार तिब्बत समेत अक्साई चिन के इलाकों पर अपना प्रभाव बढ़ा रहा था। हालाँकि, नेहरू इन सब बातों को नजरअंदाज कर रहे थे और देश में ‘हिंदी-चीनी-भाई-भाई’ के नारे लगवा रहे थे।
बता दें कि भारत के चीन को थोरियम बेचने से अमेरिका इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने भारत को ‘बैटल एक्ट’ की याद दिला दी। दरअसल, बैटल एक्ट के तहत अमेरिका किसी भी ऐसे देश को दी जाने वाली सहायता बंद कर सकता था जो कि इसमें प्रतिबंधित हो। थोरियम नाइट्रेट को इसी सूची में शामिल किया गया था।
अमेरिका के विदेश मंत्री ने भारत में अपने राजदूत से कहा कि नेहरू की सरकार ने चीन को थोरियम बेच कर हमें मुश्किल में डाल दिया है। बैटल एक्ट के कारण हम उन पर एक्शन लेने को मजबूर हैं और इसलिए अमेरिका द्वारा भारत को दी जाने वाली मदद रोकनी पड़ सकती है।
14 अगस्त को राजदूत एलन ने वापस अपने विदेश मंत्री को लिखा कि हमें भारत को स्पष्टतया यह बता देना चाहिए कि यदि वह हम से मदद लेते हैं तो कुछ शर्तें हमारी माननी पड़ेगी। उन्होंने इससे पहले के एक खत में भारत का सारा थोरियम नाइट्रेट अमेरिका के खरीदने का भी प्रस्ताव रखा।
कई महीनों तक चले इस ड्रामे में यह थोरियम नाइट्रेट चीन पहुँच गया। नेहरू ने चीन से अच्छे संबंधों की दुहाई देते हुए इस जहाज को रोकने से मना कर दिया। इसी चीन ने नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए 1953 में तिब्बत पर भी कब्जा कर लिया और 1962 में भारत का भी इलाका हथिया लिया।
नेहरू ने इस पर संसद में कहा अक्साई चिन में तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता।